आधुनिक भारत में जातिगत चेतना(Caste Consciousness in Modern India) (उत्तर भारत के विशेष सन्दर्भ में)(Special Reference of North India)

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बीसवीं सदी के प्रारम्भिक चरण में पाश्चात्य नवजागरण से प्रभावित सामाजिक सुधारों के प्रति आस्थावन बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पनपने लगा था। राष्ट्रीय भावना के विस्तार के साथ नए आर्थिक स्रोतों की उपलब्धता और शिक्षा एवं अनुकरण की प्रवृत्ति ने सम्पन्न दलित और गैर-ब्राह्मण मध्यम वर्ग की जातियों Caste) में संस्कृतिकरण के भाव भर दिए। अपनी-अपनी जातीय(Caste) संस्कृति और इतिहास जानने की ललक उठी और समाज में स्थान पाने की व्याकुलता बढ़ी। विभिन्न जातियों ने, विशेषकर उत्तर भारत में जातीय सभाओं और संगठनों का निर्माण कर समाज में अपने दर्जे को ऊँचा करने के लिए आन्दोलन किए। ऐसे संगठन मुख्यतः मझोली (और कभी-कभी निम्न) जातियों (Caste) के पर्याप्त छोटे शिक्षित समूहों द्वारा संगठित किए जाते थे। व्यवसाय तथा नौकरियों की होड़ में देर से शामिल होने के कारण इन लोगों को लगता था कि इस क्षेत्र में पहले से स्थापित ब्राह्मणों एवं अन्य जातियों के विरुद्ध संघर्ष की दृष्टि से एकत्रित होने के लिए जाति एक उपयोगी साधन हो सकती है। इन जातिगत आन्दोलनों की उध्र्वगामी गतिशीलता को ‘संस्कृतिकरण’ कहा गया है। इनमें उत्तर भारत में पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन, आगरा में जाटव समुदाय का आन्दोलन, अछूतानन्द के आदि हिन्दू आन्दोलन की विशेष चर्चा की गई है।

पंजाब का आदि-धर्म आन्दोलन

                उत्तर भारत में विभाजनपूर्व के पंजाब की निचली और अछूत जातियों में 1926 में आदि-धर्म आन्दोलन चलाया गया। बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में आदि-धर्मी दलित-अछूत सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि से बहुत संगठित हुए। इस आन्दोलन ने दलित वर्ग को समाज में गौरव और आदरपूर्ण स्थान दिलाया जिसके परिणामस्वरूप दलित वर्ग संगठित होने को प्रेरित हुआ। नगरीय सम्भ्रान्त दलित वर्ग में यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया था।

                पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन के पहले 1924 ई. में मद्रास में आदि द्रविड़ महाजन सभा द्वारा आन्दोलन चलाया गया था। इसी तरह आन्ध्र प्रदेश में ‘आदि आन्ध्र आन्दोलन’ चलाया गया था। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत के अछूत वर्ग की स्थिति में काफी सुधार आया था। इसी से सीख लेकर पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन 1926 ई. में एक सुसंगठित रूप में सामने आया। इस आन्दोलन में दो अछूत जातियाँ- चमार (चर्मकार) और चूहड़ा (सफाई कर्मचारी) शामिल थीं जो पंजाब में बड़ी संख्या में थीं। पंजाब में पहले से चले आ रहे समाज सुधार आन्दोलनों से यह एकदम अलग था। आदि धर्म आन्दोलन चलाने वाले नेता आरम्भ में आर्यसमाजी थे, जो बाद में दक्षिण के रामास्वामी नायकर के आत्म-सम्मान आन्दोलन से प्रभावित होकर उन्हीं का अनुकरण करने लगे। आर्य समाज के संबंध में उनका मानना था कि वे केवल शुद्धि आन्दोलन द्वारा हिन्दुओं की संख्या बढ़ा रहे है। जो शुद्धि आन्दोलन द्वारा निम्न वर्गीय लोग हिन्दू बनते हैं, उन्हें वह यह अहसास दिलाते हैं कि वे उनसे छोटे हैं। आदि धर्म आन्दोलन के नेताओं ने दक्षिण के आदि-आन्दोलनों की तरह प्रचारित किया कि वे ही भारत के आदि मूलनिवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक मान्यताएं हैं, बाद में ब्राह्मणों ने उन पर हिन्दू धर्म बलात् थोप दिया है।

                पंजाब के आदि-धर्मियों ने सार्वजनिक कुओं से पानी भरने, हिन्दू जमींदारों की तरह भूमि अधिकार दिए जाने, सार्वजनिक सम्पत्तियों के उपयोग करने और ऊँची जातियों के अत्याचार से मुक्त करने की माँग की। आदि धर्म को मानने वाले लोगों का मानना था कि उन्हें समान अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना है। इस आन्दोलन के कार्यकर्ता प्रायः बैठकों के बाद एक साथ गाँव या नगर के तालाब पर जाते थे और स्नान करके उच्च हिन्दू जातियों (Caste) द्वारा उस परम्परागत प्रतिबन्ध को तोड़ते थे कि अछूत वहाँ पानी नहीं भर सकते। यह एक ठोस कार्रवाई थी जिससे न केवल अछूत जातियों में परस्पर अलगाव की प्रवृत्ति दूर हुई जो सवर्ण हिन्दुओं द्वारा उन पर लादी गई थी, बल्कि उनमें जातीय एकता भी बढ़ी।

                पंजाब का आदि-धर्म आन्दोलन आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का बहुआयामी आन्दोलन था। आदि-धर्म के आन्दोलनकर्मियों ने माँग किया कि आगामी जनगणना (1931) में उन्हें हिन्दू की जगह आदि-धर्मी लिखा जाए। इन्होंने माँग की कि उन्हें सार्वजनिक , तालाबों से पानी का उपयोग करने दिया जाएं, हिन्दू जमींदारों की तरह समान भूमि अधिकार दिए जाएं, उन्हें सार्वजनिक जातीय सम्पत्तियों का उपयोग करने की छूट दी जाए, उन्हें ऊँची जातियों के अत्याचारों से बचाया जाए और साथ ही उनके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ और अधिकार दिए जाएं। इस समाज के लोग अपने आपको आदि धर्मी मानने लगे थे और जनगणना में भी उन्होंने अपने आप को आदि धर्मी लिखवाया जिससे पंजाब में अछूतों की संख्या में कमी आ गई।

                इसी दौरान जब डॉ. अम्बेडकर ‘लोथियन समिति’ के लिए जनसंख्या सम्बन्धी तथ्य एकत्र कर रहे थे, तो उन्होंने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि 1931 ई. में पंजाब के अछूतों की जनसंख्या में 1911 ई. के मुकाबले कमी आई है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि, ‘‘इसकी वजह आदि धर्म आन्दोलन है। 1931ई. की जनगणना में भाग लेने वाले आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने अपने लोगों और स्वयं को आदि धर्मी लिखवाया था हिन्दू नहीं जैसा कि पहले होता आया था। अम्बेडकर ने लिखा कि सरकार ने उनकी बात मान ली है और आदेश जारी कर दिए हैं कि जो जनगणना कर्मचारी हैं, वे उन लोगों को एक नए शीर्षक में ‘आदि धर्मी’ लिखें जो कि ऐसा लिखवाना चाहते हैं। इससे अछूत जाति पंजाब के कई हिस्सों में बंट गई। इस कारण सवर्ण हिन्दुओं और अछूतों में कई स्थानों पर संघर्ष हुए और कुछ स्थानों पर अछूतों पर दबाव डाला गया कि वे अपनी पुरानी जाति(Caste) पर आएं और उसे ही लिखवाएं। यद्यपि कई स्थानों पर उन्हें आदि धर्मी की लिखा गया और जाति नहीं लिखी। गई।

                इस प्रकार पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन से उत्तर पश्चिमी भारत के सभी अछूतों में जोश की एक लहर सी दौड़ गई और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए ये लोग सजग होने लगे। कालान्तर में आदि धर्मी लोगों ने काफी प्रगति की और इससे प्रेरणा लेकर कई अछूतों ने अपने सामाजिक और आर्थिक सतर में सुधार लाने के लिए प्रयास किए।

आगरा का जाटव आन्दोलन-

                उत्तर भारत के दलित आन्दोलन में आगरा आन्दोलन का विशेष महत्त्व है। जातीय (Caste)आन्दोलन और संस्कृतिकरण से शुरू होकर इसने समाज में अपनी पहचान बनाई। आगरा के जाटवों के सन्दर्भ में ओवन एम. लिंच ने अपना शोध प्रबन्ध ‘पालिटिक्स आफ अनटचेबिल्टी’ लिखा है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में 1900 ई. में ही उत्तर प्रदेश के आगरा में जाटवों में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो गई थी। कई दशक तक जाटव जाति(Caste) के प्रतिष्ठित धनी लोग आर्य समाज से प्रभावित होकर उच्च जातियों जैसी मानसिकता से ग्रसित रहे। 1887 ई. में स्वामी आत्माराम ने ‘ज्ञान संमुदर ’ पुस्तक में यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि लोमश रामायण के आधार पर जाटव वंश शिव के गोत्र से सम्बन्धित हैं, इसलिए वे क्षत्रिय हैं, अछूत नहीं। स्वामी आत्माराम की प्रेरणा से जाटवों में संस्कृतिकरण की भावना का उदय हुआ और इस प्रक्रिया में  सेठ सीताराम व सेठ मानसिंह जैसे जाटव समाज के कुछ धनी लोगों ने जाटवों को माँस न खाने और अपने बच्चों को ईसाई स्कूलों, आर्यसमाज की पाठशालाओं और सरकारी विद्यालयों में शिक्षा दिलाने का निश्चय किया। 1917 में ‘जाटव वीर महासभा’ (जाटव मैन्स एसोसिएशन) और ‘अखिल भारतीय जाटव सभा’ का गठन किया गया। इन संगठनों के द्वारा जाटवों ने अपनी पहचान में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। 1920 में जाटव जाति(Caste) के लोगों ने एक बड़ा प्रदर्शन किया जिसमें करन सिंह नामक जाटव को ऊँची जाति (Caste)के लोागों ने पीट-पीट कर मार डाला। उसका दोष मात्र इतना था कि उसने पका हुआ भोजन ऊँची जाति(Caste) के किसी व्यक्ति को खिला दिया था। करनसिह को जाटव उत्तर भारत का पहला शहीद मानते है। 20वीं सदी के तीसरे दशक में 1924 में ‘जाटव प्रचारक मण्डल’ का गठन किया गया। इस संगठन ने जाटवों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया और 1926 में पहला जाटव स्नातक हुआ।

                ‘जाटव परिषद्’ और ‘जाटव जनशिक्षा संस्थान’ के माध्यम से विद्यालयों और पुस्तकालयों की स्थापना कर जाटवों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया और शिक्षित समाज के युवकों के लिए नौकरियों की माँग की। अब जाटवों ने सरकार से माँग की कि उन्हें चमारों से अलग सूची में रखा जाए और जाटव जाति को अलग से गिना जाए। अपने को आदि धर्मी कहने वाले हिन्दुओं के विपरीत जाटवों ने जाति प्रथा के अन्तर्गत ऊपर उठने की कोशिश की। उनका मूल उद्देश्य और समस्त सामाजिक कार्य-व्यापार जातिभेद को समाप्त न कर उसी के अन्दर प्रगति का रास्ता तलाश करना था।

                1930 में ‘जाटव युवक परिषद्’ ने अम्बेडकर को अछूत समाज का नेता मान लिया। 1944-45 में ‘आगरा परिगणित जाति संघ’ स्थापित हुआ और उसे अम्बेडकर के संघ से सम्बद्ध कर दिया गया जिससे जाटवों में एक नई धारा तथा जनजागृति का उदय हुआ। अब नव जाटवों ने क्षत्रियत्व का मोह त्याग कर अनुसूचित जातियों में अपनी पहचान बनाई। जाटवों ने अपने को अश्पृश्य जातियों में पाया जिन्हें सवर्ण पहले से ही अछूत समझते थे। इस प्रकार आर्य समाज, शुद्धि आन्दोलन और अन्य सामाजिक अनुकरण की प्रक्रिया से उध्र्वगामी गतिशीलता (संस्कृतिकरण) की जो हवा शूद्र-अछूत जातियों में बह रही थी, वह थम गई।

आदि-हिन्दू आन्दोलन-

                फर्रुखाबाद के छिबरामऊ में चमार जाति(Caste) में जन्मे स्वामी अछूतानन्द (हीरालाल) ने अछूतों के समग्र-विकास के लिए 1925-30 में एक आदि-हिन्दू आन्दोलन चलाया। बीसवीं सदी के आरम्भ में वे कांग्रेस की राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित थे, फिर वे आर्य समाज के धार्मिक समाज सुधार की ओर उन्मुख हुए। 1910 में वे दलितों में सामाजिक जागृति का मन्त्र फूँकने के लिए नगर-नगर, गाँव-गाँव संगठन बनने का प्रयास करने लगे थे। स्वामी जी का मानना था कि कांग्रेस में शोषक वर्ग, अस्पृश्यता के परिपोषक सवर्ण हिन्दू, दलितों को सताने वाले मुस्लिम नवाब और हिन्दू जमींदार, राजा-महाराजा तथा ब्राह्मणों का आधिपत्य है। यहाँतक कि गाँधी का अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन भी दिखावा है क्योंकि वे वर्णव्यवस्था के प्रबल पक्षधर हैं। अछूतानन्द ने स्वतन्त्र रूप से दलितों और अछूतों में सामाजिक राजनैतिक चेतना के बीज बोए और जातिवाद को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया और केन्द्र व राज्य में दलितों की संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिए जाने की माँग की।

                स्वामी अछूतानन्द ने संयुक्त प्रान्त में आदि हिन्दू आन्दोलन खड़ा किया और हिन्दू धर्म की भेदभावमूलक जाति प्रथा, सामन्तवाद, अस्पृश्यता जैसी रूढ़ियों पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने कहा कि आज हम मुट्ठी भर हैं, कल के भारत में घर-घर में हमारा समाज सुधारक होगा भारत उनका होगा, जो मेहनत करके खाएगा। 1922 में अखिल भारतीय अछूत सम्मेलन नई दिल्ली में उन्होंने कहा था, ‘आदि धर्मी दलित-अछूत सवर्ण हिन्दुओं, सम्पन्न मुसलमानों और शासक अंग्रेजों के तिहरे गुलाम हैं।’ उन्होंने गाँवों में प्रचलित बेगार और बंधुआ मजदूरी का विरोध किया और समाज सुधार की दिशा में मृत्युभोज, विवाहों, नाच-तमाशों पर होने अपव्यय को रोकने, मद्यपान को बन्द करने एवं देवी-देवताओं की पूजा का तिरस्कार किय और निम्न जातियों के साथ अन्तर्जातीय विवाह की सलाह दी। अछूतानन्द के विचार आगरा के जाटवों को पसन्द नहीं थे, इसलिए जटवों ने अछूतानन्द का विरोध किया और उन्हें आगरा हटा दिया था।

                यद्यपि यह आन्दोलन बहुत प्रभावी नहीं रहा, किन्तु इसके सदस्य पूरे प्रदेश में फैले हुए थे। 1933 में कानपुर में उनके परिनिर्वाण के बाद शवयात्रा में हजारों स्त्री-पुरुषों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इस प्रकार बीसवीं सदी के प्रथम तीन दशकों में उनकी प्रभावी भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।इन जातीय(Caste) आन्दोलनों के बावजूद आज भी दलितों की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हो सका है। इसके लिए दलितों और पिछड़ों में वर्गीय एकता स्थापना करके एक जुझारू सांस्कृतिक-सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की आवश्यकता है।

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Dr vishwanath verma

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