कल्याणी का चालुक्य राजवंश: भाग-1 (The Chalukyan Dynasty Of Kalyani)

Table of Content

परिचयः

                दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट सत्ता का विनाश कर चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने परवर्ती चालुक्य वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित की। चालुक्यों तथा समकालीन अन्य राजवंशों के लेखों में इन्हें राष्ट्रकूटों के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप् में चित्रित किया गया है। विल्हण के संस्कृत काव्य विक्रमांकदेवचरित एवं रन्न के कन्नड काव्य गदायुद्ध में इनकी ऐतिहासिक एव काव्यात्मक निधि निहित है।

                10वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कल्याणी या कल्याण में चालुक्यों की एक शाखा का राजनीतिक उत्कर्ष हुआ। उस समय दक्षिणापथ की राजनैतिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। मालवा के परमार शासकों के निरन्तर आक्रमणों के कारण राष्ट्रकूट साम्राज्य कमजोर हो गया था और कृष्ण तृतीय के दुर्बल उत्तराधिकारी इसकी सुरक्षा करने में असफल रहे। अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय के समय उसका सामन्त चालुक्यवंशीय तैलप द्वितीय बहुत शक्तिशाली हो गया था। 973-74 ई0 में तैलप द्वितीय ने अपनी शक्ति और कूटनीति से राष्ट्रकूटों पर अघिकार कर लिया। इस प्रकार तैलप द्वितीय ने एक नये राजवंश की स्थापना की जो कल्याणी के चालुक्य राजवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

उत्पत्तिः

                कल्याणी के चालुक्य राजवंश की उत्पत्ति विषयक साक्ष्य ग्यारहवीं शताब्दी तथा इसके बाद के वेंगी एवं कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों, रन्न कवि के कन्नड़ काव्य गदायुद्ध तथा बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित आदि साक्ष्यों में मिलते हैं। इन साक्ष्यों में इन्हें न केवल वातापी के चालुक्यों का वंशज बताया गया है, वरन् उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी अयोध्या का मूल निवासी भी बतलाया गया है। अभिलेखीय साक्ष्यों- होट्टूर अभिलेख, कौथेम ताम्रलेख, गडग लेख, मिरज ताम्रपत्र, तिरूवालंगाडु अभिलेख, चोल अभिलेखों आदि से हमें कल्याणी के चालुक्यों के इतिहास की जानकारी मिलती है।

मूल निवासः

                वेंगी और कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों एवं उनके इतिहास के अन्य साक्ष्यों के विवरणों में काफी समानताओं के बावजूद प्रायः एकरूपता का अभाव है। वस्तुतः कई शताब्दियों के शासन के बाद जब चालुक्यों ने अपनी उत्पत्ति एवं मूल निवास आदि का विवरण लिखवाया उस समय तक वे अपना प्रारम्भिक इतिहास भूल चुके होंगे। इसलिए  उन्होंने कल्पना के आधार पर इसका निर्माण किया। जो भी हो समस्त साक्ष्यों की समीक्षा के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि चालुक्य कन्नड़ देश के मूल निवासी थे एवं कल्याणी के चालुक्य, वातापी के चालुक्यों के वंशज थें।

                कल्याणी के चालुक्य बादामी के चालुक्यों से अपना सम्बन्ध बतरते हैं। वे अपने को विक्रमादित्य द्वितीय का वंशज मानते हैं। इनका गोत्र, कार्तिकेय और अन्य कुछ देवताओं की उपासना, इनके प्रतीक और अन्य राजचिन्ह की प्राप्ति के सम्बन्ध में सभी वर्णन प्रायः वही हैं जो बादामी के चालुक्यों के थे।

                कल्याणी के अनेक चालुक्य शासकों के अभिलेखों में वातापी के अन्तिम चालुक्य नृपति कीर्तिवर्मन् द्वितीय तथा कल्याणी के चालुक्य राजवंश के संस्थापक तैलप द्वितीय के बीच राज्य करने वाले सात शासकों के नाम मिलते हैं। जिन्होंने 757 से 773 ई0 तक राज्य किया। इसकी पुष्टि गदायुद्ध ने भी किया है। इस बीच प्रथम तैल (तैलप) और उसके बाद के चालुक्य सरदार बीजापुर जिले में सम्भवतः राष्ट्रकूटों के अधीन रहे। उनके वैवाहिक सम्बन्ध राष्ट्रकूटों और चेदिदेश के हैहयवंशी (कलचुरि) कन्याओं से होते रहे। जो इस बात का प्रमाण है कि उनका राजवंशीय स्वत्व समाप्त नहीं हुआ था।

तैलप द्वितीयः

                कलचुरि राजकुमारी बोन्थादेवी के गर्भ से उत्पन्न विक्रमादित्य चतुर्थ का पुत्र तैलप द्वितीय था। यह चालुक्य वंश का प्रथम शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी शासक था। प्रारम्भ में तैलप द्वितीय तर्डवाडी (कर्नाटक) में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के अधीन शासन कर रहा था। उसने राष्ट्रकूट वंश की कन्या, जो भामह की पुत्री थी, जाकव्वे, जाक्कलादेवी या जक्कलमहादेवी से अपना विवाह किया था। वह कृष्ण तृतीय के सामन्त के रूप में बीजापुर में 957ई0 और 965 ई0 में शासन कर रहा था। 965 ई0 के एक अभिलेख में उसके लिए ’महासामन्ताधिपति आहवमल्लतैलपरस’ कहा गया है। तैलप द्वितीय ने अपने अधिराज  राष्ट्रकूट शासक कर्ण द्वितीय के दुर्बल शासनकाल में अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर 973-74 ई0 में कर्ण द्वितीय को हराकर राष्ट्रकूट साम्राज्य का स्वामी बन बैठा।

उपलब्धियाँ:

                तैलप द्वितीय अपनी शक्ति और साम्राज्य विस्तार हेतु सर्वप्रथम गंग वंश के शासक पांचलदेव से युद्ध करना पड़ा। प्रारम्भ में गंग वंश के अवयस्क शासक मारसिंह से तैलप द्वितीय का सामना हुआ। गंग नरेश मारसिंह तैलप का सामना न कर सका। इसके बाद गंग वंश के शासक पांचलदेव, जिसका साम्राज्य कृष्णा नदी तक फैला था, तैलप द्वितीय का कई बार सामना हुआ। किन्तु प्रारम्भिक युद्धों में तैलप पांचलदेव से परास्त होता रहा। किन्तु बेल्लारी के सामन्त भूतिगत की सहायता से तैलप ने गंग शासक पांचलदेव को अन्ततः परास्त करने में सफलता पायी। इस सहायता से प्रसनन होकर तैलप द्वितीय ने ‘पांचलमर्दनपंचानन’ की उपाधि ग्रहण की और भूतिगत को अपना सामन्त नियुक्त किया तथा उसे ‘आहवमल्ल’ की उपाधि प्रदान किया। इस विजय के फलस्वरूप इसका साम्राज्य विस्तार उत्तरी कर्नाटक तक हो गया। उत्तरी कर्नाटक पर अधिकार कर लेने के बाद उसने कर्क द्वितीय के सहायक रणस्तम्भ, जो दक्षिणी मैसूर पर शासन कर रहा था, को मारकर दक्षिणी मैसूर तक अपना साम्राज्य विस्तार किया।

                तैलप द्वितीय का समकालीन दूसरा पड़ोसी राज्य पश्चिमी कोंकण में शिलाहार वंश का शासन था। इस समय यहाँ शिलाहार शासक अवसर तृतीय या उसके पुत्र रट्टराज का शासन था। ये राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। इन्हें परास्त कर तैलप ने कोंकण को अपने साम्राज्य में मिला लिया। यादव शासक भिल्लम, जो दौलताबाद में शासन कर रहा था, ने बिना युद्ध किये ही तैलप की अधीनता मान ली। लाट प्रदेश, जो साबरमती एवं अम्बिका नदी के बीच का भू भाग, को जीत कर तैलप द्वितीय ने बाडप, जो उसका सेनानायक भी था, को अपना सामन्त बनाया। तैलप द्वितीय ने अपने पुत्र सत्याश्रय को अपना युवराज नियुक्त किया।

                इसके बाद तैलप ने मालवा के परमारों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया। इसका कारण यह था कि इसे तैलप अपने साम्राज्य का अंग मानता था, जबकि परमार शासक इसे अपना मानते थे। तैलप द्वितीय का समकालीन परमार शासक मुंज था। परमार शासक मुंज ने चालुक्यों पर आक्रमण किया। यह आक्रमण छः बार हुआ। इसमें पाँच बार तैलप परास्त हुआ ,किन्तु अन्तिम छठीं बार तैलप ने परमार शासक मुंज को परास्त करने में सफलता पायी। तैलप द्वितीय ने मुंज की हत्या कर मालवा के दक्षिणी भाग पर अपना आधिपत्य कायम किया। 1003ई0 के कौथेम ताम्रपत्र के अनुसार तैलप ने परमार शासक मुंज को अपनी राजधानी मान्यखेट में बंदी बनाकर रखा।

सत्याश्रय इरिवबेदड़गः       

तैलप द्वितीय के बाद उसका बड़ा पुत्र सत्याश्रय 997ई0 में चालुक्य सिंहासन पर आसीन हुआ। इसने इरिवबेदड़ग (शत्रुओं का भेदन करने में अद्वितीय), आहवमल्ल, अकलंकचरित आदि विरूद धारण किया। पिता की भाँति इसने भी आक्रामक नीति का अनुसरण किया। दक्षिण में चोलों, उत्तर में परमारों तथा पूरब में पूर्वी अथवा वेंगी के चालुक्यों के राजनीतिक विस्तार हो रहे थे जिनसे उसका संघर्ष अपरिहार्य हो गया।

परमारः

                मुंज की पराजय के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए परमारों के हृदय में अग्नि की ज्वाला धधक रही थी। परमार नरेश सिन्धुराज ने उन क्षेत्रों को सैन्यबल से अधिकृत कर लिया जिसे तैलप द्वितीय ने परमार शासक मुंज से छीना था। लेकिन चालुक्य लेखों में इस संघर्ष का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। संभवतः दक्षिणी सीमा पर युद्धरत होने के कारण सत्याश्रय ने उत्तर के उन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान न दिया, जिनके निकल जाने से इसके साम्राज्य की सीमा में कोई विशेष परिवर्तन की संभावना थी।

कलचुरिः

                त्रिपुरी के कलचुरि नरेश कोक्कल द्वितीय ने कुन्तल नरेश को बनवास में रहने के लिए बाध्य किया था। यहाँ संभवतः बनवास का अभिप्राय बनवासी से है जो चालुक्य साम्राज्य में सम्मिलित था। लगता है कि तैलप द्वितीय के समय कलचुरियों के पराजय का प्रतिशोधपूर्ण अभियान रहा हो किन्तु यह विवरण पूर्णतया सत्य पर आधारित नहीं है। क्योंकि सत्याश्रय के समय में बनवासी तक कोक्कल द्वितीय का असंभव था। संभावना यही है कि त्रिपुरी के समीपवर्ती भूभाग जो चालुक्यों के अधीन रहा हो, उसे कोक्कल द्वितीय ने जीत लिया हो।

शिलाहारः

                उत्तरी कोंकण को आक्रान्त कर सत्याश्रय ने शिलाहार वंश के शासक अपराजित को पराजित कर उसे सामुद्रिक क्षेत्र में आश्रय लेने के लिए बाध्य कर दिया था। उसकी स्थिति उस कीड़े की तरह हो गयी जिसके दोनों सिरों पर आग लगा दी गयी हो। सत्याश्रय ने अंशनगर को जला दिया तथा शिलाहार सेना के 21 हाथियों को अपहृत कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप समुद्रपर्यन्त समस्त भू-भाग चालुक्य साम्राज्य के अधीन हो गया और शिलाहार शासक को पुनः सामन्त के रूप में शासन करने का आदेश दिया। इस प्रकार शिलाहार शासक अपराजित एवं उसके उत्तराधिकारियों ने निरन्तर चालुक्य-सामन्त पद से वफादारी का परिचय दिया।

गुजरात के चालुक्यः

गुजरात में इस समय चालुक्यों का शासन स्थापित था। मूलराज प्रथम की मृत्यु के बाद चामुण्डराज उसका उत्तराधिकारी बना। इस समय लाट प्रदेश पर चालुक्यों का अधिकार बना हुआ था। लक्कुडि लेख (1007ई0) और रन्न के गदायुद्ध से लाट एवं गुर्जर पर सत्याश्रय के विजय का उल्लेख मिलता है। इसने लाट को अधीन कर वहाँ पर बाडप के पुत्र गोग्गिराज को शासक नियुक्त किया। यहाँ गुर्जर नरेश का तात्पर्य चालुक्य राजा चामुण्डराज से है।

चोलः     

                भारत के दक्षिण में उत्तम चोल के बाद राजराज प्रथम के सिंहासनारोहण से चोल वंश के इतिहास का एक नया अध्याय आरम्भ होता है। चोल शासक राजराज प्रथम ने अपने बाहुबल से दक्षिण का अधिकांश भू-भाग, सिंहल और मालद्वीव को भी अधिकृत कर लिया। सत्याश्रय के सिंहासनारोहण के समय तक राजराज प्रथम ने गंगवाड़ी और नोलम्बवाड़ी तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया। वेंगी की राजनीति में वह काफी लोकप्रिय हो रहा था। वेंगी नरेश दानार्णव के दोनों पुत्र शक्तिवर्मन और विमलादित्य राजराज प्रथम के यहाँ शरण लिए हुए थे। 999-1000ई0 के आस-पास राजराज प्रथम ने वेंगी को आक्रान्त कर जयचोड भीम को पराजित कर शक्तिवर्मन को वेंगी के सिंहासन पर अधिष्ठित किया।

                वेंगी पर राजराज प्रथम का यह अधिकार सत्याश्रय के हृदय में द्वेष का कारण बना तथा चोल-चालुक्य संघर्ष वेंगी के प्रश्न पर निरन्तर चलता रहा।

                सत्याश्रय ने वेंगी में भीम का समर्थन किया जिससे राजराज प्रथम का स्वाभाविक शत्रु बन गया। 1003ई0 के बाद राजराज प्रथम के लेखों में रट्टपादि को अधिकृत करने के उल्लेख प्राप्त हाते हैं। तिरूवालंगाडु दानपत्र के अनुसार युद्ध में तैलप का पुत्र सत्याश्रय राजराज के सामने कष्टाश्रय हो गया। उसने सत्याश्रय की सेना को तंुगभद्रा तट पर उसी प्रकार अवरूद्ध किया जैसे शिव की जटा में गंगा की धारा। चेब्रोल लेख (गुण्टूर) से ज्ञात होता है कि 1006ई0 में सत्याश्रय के सेनापति ने वेंगी को आक्रान्त किया था, और धरणीकोट एवं यनमदल के दुर्गों को अधिकृत किया था। सत्याश्रय के होट्टूर लेख से पता चलता है कि राजराज प्रथम को इसमें सफलता मिली। संभवतः इस अभियान में प्राप्त धनराशि से राजराज ने तंजौर में राजराजेश्वर या बृहदीश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया था। अतः स्पष्ट है कि सत्याश्रय चोलों से दो सीमाओं पर संघर्षरत था। दक्षिण में मुख्य चोल साम्राज्य और पूर्व में वेंगी राज्य।

                सत्याश्रय की एक पुत्री का नाम प्राप्त होता है जो नोलम्ब, पल्लव शासक ईरिव नोलम्बाधिराज से विवाहित थी। जो विक्रमादित्य की बहन थी। सत्याश्रय ने 1008ई0 तक राज्य किया। सत्याश्रय जैन धर्म का अनुयायी था तथा इसके गुरू विमलचन्द्र जैन दर्शन के उद्भट विद्वान थे। वह विद्वानों का उदार संरक्षक भी था। कन्नड़ कवि रन्न इसके आश्रित थे।

Tags :

Dr vishwanath verma

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent News

Related Post

© 2025 worldwidehistory. All rights reserved and Powered By historyguruji