Modern History

‘हिन्द स्वराज’ एक विवेचन (Hind Swaraj : A Study)

महात्मा गांधी का ‘स्वराज‘ एक वैचारिक यात्रा का तार्किक निष्कर्ष था। जिस पृष्ठभूमि में भारत की आजादी की अवधारणा विकसित हो रही थी, उसका सरोकार मात्र सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं था ऐसा सोचने वालों में महात्मा गांधी पहले व्यक्ति नहीं तो अग्रणी व्यक्ति अवश्य थे। गांधी ने पाया था कि भारत के क्रान्तिकारी स्वराज के प्रति सीधी परन्तु अराजक सोच रखते हैं उनके इस चिन्तन का आधार साधन की पवित्रता था। उनके विचार से क्रान्तिकारी उस आलोचनात्मक विवेक का विकास नहीं कर सके थे जिससे औपनिवेशिक शासन से प्रभावित आधुनिक परिवेश का निर्माण हुआ था। क्रान्तिकारी कार्य और सोच की प्रकृष्टता का स्वरूप वैसा नहीं मानते थे जिसका भावात्मक आधार दादा भाई नौरोजी ने तैयार किया था। वे तो हिन्दुस्तान के पढ़े लिखे लोगों खासकर नौजवानों को तन्द्रा त्यागकर जागृत और सक्रिय होने का संदेश दे रहे थे। गोपाल कृष्ण गोखले, सर वेडरवर्न तथा तैय्यव जी हिन्दुस्तान का हित चिन्तन कर रहे थे। पश्चिम की यात्रा कर चुके भारतीय युवा इस अविश्वास भी भावना से कार्यरत थे कि उदारवादी नेता आन्दोलन की भ्रूण हत्या करना चाहते हैं उनका अविश्वास एनीबेसेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे राष्ट्रवादियों के प्रति भी हो चला था। कुछ अति उत्साही उन्हें ‘पूतना‘ कहने लगे थे जिसे अंग्रेज कंस के विष लगा स्तनपान कराकर ‘स्वराज‘ के बालकृष्ण की हत्या के लिए भेजा था। इस परिस्थिति में गांधी को हिंसा प्रेरित क्रान्तिकारिता के पक्षघरों की शंकाओं व गलत-फहमियों का निराकरण करना था। गांधी जी जब एक विद्यार्थी के रूप में लन्दन पहुँचे थे उस समय गुजरात के काठियाबाड़ क्षेत्र के प्राण जीवन मेहता लंदन में ही थे। प्राण जीवन मेहता बम्बई के ग्रांट मेडिकल कालेज से पढ़कर व्रसेल्स नगर में पर स्नातक शिक्षा के लिए गए थे। बाद में लंदन से बैरिस्टर की डिग्री लेकर गुजरात में चिकित्सा अधिकारी रह चुके थे। किसी कार्य से वे 1909 में लंदन में थे। गांधी से उनकी मुलाकात एक होटल में हुई फिर दोनों एक माह तक सम्पर्क में रहे। डा0 प्राणजीवन मेहता गांधी को मूर्ख और भावुक व्यक्ति मानते थे। कानून और चिकित्सा विज्ञान के जानकार डा0 मेहता प्रबल बुद्धिवादी थे उनका विचार तार्किक अराजकतावादी था इसलिए गांधी उन्हे क्रान्तिकारी अराजक मानते थे। दोनों के आपसी सम्पर्क, जो एक माह तक बना रहा, के दौरान गांधी ने मेहता को तर्क से पराजित कर दिया अन्ततः डा0 मेहता गांधी के विचारों से सहमत हो गए। उन्होंने आजीवन गांधी तथा उनके परिवार को आर्थिक सहायता पहुँचाई। गांधी के बड़े भाई के निधन पर गांधी परिवार में पांच विधवाएं बच रही थी इनके भरण पोषण का खर्च डा0 मेहता ने उठाया। गांधी ने जब साबरमती आश्रम की स्थापना कर संकल्प लिया था तो प्राण जीवन मेहता ने बिना मांगे 1) लाख रूपये भेज दिये थे। चम्पारन आन्दोलन के दौरान जब राजकुमार शुक्ल के आह्वान पर गांधी जी बिहार गए थे उस समय भी डा0 मेहता से सहायता लेना मुनासिब समझा था। इन्हीं प्राणजीवन दास जगजीवन दास मेहता से हुई गांधी की बातचीत का विवरण ‘हिन्द स्वराज  है। संवाद शैली में रचित इस पुस्तक में नाटकीय और रोमांच जगह-जगह पर दिखाई पड़ता है। पहले ही अध्याय में ‘ठहरिए आप तो बहुत आगे बढ़ गए हैं, ‘आप अधीर हो गए हैं, ‘मैं अधीरता बर्दास्त नहीं कर सकता, ‘गोल-मोल जवाब देकर आप मेरे सवालों को उड़ा देना चाहते हैं,‘ जैसे वाक्य दिखते हैं जो संवाद को निहायत दिलचस्प बना देते हैं। यह संवाद शैली भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीन है। अतः यह कहा जा सकता है कि गांधी इस शैली को पुस्तक रचना के समय से पहले से जानते थे। हिन्द स्वराज के लिए संवाद शैली के चयन करते समय सम्भवतः वे दो और चीजें ध्यान में रख रहे थे पहली तो प्लेटों के डायलाग और दूसरी एच.पी. ब्लावटस्की की क्रिश्चियन जिसमें विक्टोरिया कालीन नैतिक पाखण्ड और आधुनिक यूरोपीय सभ्यता की कठोर आलोचना की गई थी। जो भी सच हो लेकिन इतना तय लगता है कि यह उस समय के लिए अनोखी शैली थी। गांधी जी ने स्वयं 1940 में मलिकदां बैठक में स्वीकार किया था कि यह पुस्तक डा0 प्राण जीवन मेहता से हुई बातचीत की ‘जस की तस‘ प्रस्तुति है। 1940 तक वे अपने विचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का संकल्प भी व्यक्त करते हैं। स्वराज के बारे में गांधी जी इस पुस्तक के अतिरिक्त अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी अपना विचार प्रस्तुत करते हैं। मसलन हिन्द नवजीवन के 29 जनवरी 1925 के अंक में वे कहते हैं कि ‘‘स्वराज से मेरा अभिप्राय है कि लोकसम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन लोक सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी से बड़ी तादाद के मत के जरिये हो, फिर चाहे स्त्रियां हो या पुरूष इसी देश के हो या इस देश मं आकर बस गए हों, वे लोग ऐसे हो जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो। सच्चा लोकतंत्र थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता है, तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें हैं।‘‘ हरिजन के 1939 के 25 मार्च के अंक में वे कहते हैं कि ‘मेरे स्वराज की अवधारणा में अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे। उसमें ऐसा नहीं होना चाहिए कि चन्द अमीर तो रत्न जड़ित महलों में रहें और लाखों- करोड़ों ऐसी मनहूस झोपड़ियों में, जिनमें हवा और प्रकाश का प्रवेश न हो। सुसंगठित राज्य में किसी के न्याय अधिकार का किसी दूसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छीन लिया जाना असम्भव होना चाहिए। इसी प्रकार के राष्ट्र, मजदूर, किसान शिक्षा, भाषा स्त्रियों की दशा दलितों महिलाओं, डाक्टरों, वकीलों, विद्यार्थियों साम्प्रदायिकता, अपश्चता आदि के बारे में स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करते हैं। वे अपने पत्र ‘हरिजन बन्धु‘ के अंक (30/4/33) में कहते हैं कि ‘‘मेरे लेखो का मेहनत से अध्ययन करने वालों और उसमें दिलचस्पी लेने वालों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे एक ही

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भारतीय पर्यटन: एक विश्लेषण (Indian Tourism: An Analysis)

                भारत की 5,000 से भी अधिक वर्ष से भी अधिक प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का विश्व की प्राचीनतम् सभ्यताओं में गौरवपूर्ण स्थान है। भारत की विशाल सांस्कृतिक विरासत को देखते हुए इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पर्यटकों को आकर्षित करने की अपार संभावनाए। विद्यमान हैं। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक नगर व स्मारक, अजन्ता, एलोरा, खजुराहो आदि की अवर्णनीय कलाकृतियाँ, उत्तर-दक्षिण भारत के भव्य व कलात्मक मंदिर, ताजमहल व मुगल कालीन स्मारक हमारे लिए गर्व की बात है। पश्चिम की भौतिकवादी जीवनधारा से ऊबे विदेशियों को भारत की सौम्य व सरल शैली ने अपनी ओर आकर्षित किया है। धरती का स्वर्ग कही जाने वाली कश्मीर घाटी का अद्भुत सौन्दर्य, मनोहारी समुद्र तट एवं सुरम्य वन स्थलों की प्राकृतिक सुन्दरता सैलानियों को सहज ही आकर्षित करने में सक्षम है।   सामाजिक एवं आर्थिक उपयोगिता – पर्यटन से होटल, सड़क, आवास एवं अन्य उपयोगी सेवाओं को प्रोत्साहन मिलता है। जो विदेशी मुद्रा अर्जित करने में सहायक सिद्ध होता है, यह रोजगार का व्यापक सृजन करता है, अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है, पर्यटन से हस्तकला उद्योगों को बढ़ावा मिलता है और औद्योगिक व व्यावसायिक क्रियाओं में वृद्धि होती है, पर्यटन से परिवहन के साधनों का प्रोत्साहन तो मिलता है, साथ ही विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में भी सहायता मिलती है, वस्तुओं के निर्यात किए बिना करोड़ों की विदेशी मुद्रा का अर्जन होता है। आज पर्यटन भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। देश को विदेशी मुद्रा का एक बड़ा अंश इसी से प्राप्त होता है। पिछले दसकों के दौरान भारत में अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन में वृद्धि हुई है।                                                                   विदेशी पर्यटक का आगमन                       वर्ष                                                                 विदेशी पर्यटक (करोड़ में)                      2010                                                                                                  5.78                      2011                                                                                                  6.31                    2012                                                                                                    6.58                      2013                                                                                                  6.97                      2014                                                                                                  7.68                      2015                                                                                                  8.03                      2016(जनवरी-जून)                                                                       4.19 स्रोत- पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार। सरकारी प्रोत्साहन- पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्रालय द्वारा विदेशी मुद्रा आय व रोजगार बढ़ाने के लिए ‘राष्ट्रीय पर्यटन कार्यक्रम’ की घोषणा की गयी है। इस कार्यक्रम के अन्र्तगत तीर्थाटन व सांस्कृतिक पर्यटन  के विकास, पर्यटन विशेष क्षेत्रों के सघन विकास, वर्ष  भर मेले और उत्सवों के जारी रहने को प्रोत्साहन, तीन वर्ष में विश्व पर्यटन मेले का आयोजन, देश भर में ‘सम्मेलन नगर ’ स्थापित करने और विशिष्ट पर्यटक सर्किटों और केन्द्रों के विकास को प्रोत्साहन देने की घोषणा की गई है। इसके लिए होटल निर्माण व परिचलन, पर्यटन परिवहन और अन्य पर्यटन सुविधाओं के लिए व्यापक छूटों और प्रोत्साहन देने की घोषणा की गई है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सरकार की क्षेत्र विशेष की योजनायें भी हैं जिनमें पैलेस आन व्हील्स रेलगाड़ी का उल्लेख किए बगैर बात अधूरी रहेगी। यह रेलगाड़ी विदेशी सैलानियों को राजस्थान के अतीत की झलक दिखाने के लिए भारतीय रेल द्वारा राजस्थान पर्यटन विकास विभाग और भारतीय रेल मंत्रालय के सहयोग से 1982 ई0 से यह गाड़ी चलायी जा रही है। गाड़ी का पूरा टूर इस प्रकार बनाया गया है कि अधिकांश सफर रात को ही होता है और दिन में यात्रियों को नगर भ्रमण कराया जाता है। गाड़ी जयपुर, चित्तौड़गढ़, जैसलमेर, जोधपुर आदि का भ्रमण करती है। इससे अब तक काफी विदेशी मुद्रा अर्जित हुई है। भारत महोत्सव-                 साथ ही विदेशी मेहमानों को आकर्षित करने के लिए श्रीमती गांधी के जमाने से ही विदेशों में भारत महोत्सवों के आयोजन का सिलसिला जारी है। अब तक यह महोत्सव ब्रिटेन, अमरीका, रूस, चीन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि देशों में आयोजित हो चुके हैं और भारतीय विरासत के आकर्षण को विदेशी नागरिकों से अवगत करा चुके हैं। वर्ष 1991 में विदेशी पर्यटकों के भारत आगमन में बाधक नियमों और कानूनों में संशोधन कर उनके आगमन को सरल बनाया गया है। टैक्सी ड्राइवरों, आव्रजन कर्मचारियों, कस्टम अधिकारियों आदि के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किये गये हैं। विदेशी मुद्रा- वर्तमान में पर्यटन भारत के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करने में सर्वोच्च स्थान पर है। पर्यटक अपने खानपान, भ्रमण व आवास हेतु धनराशि व्यय करके विदेशी मुद्रा प्रदान करते हैं। इससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़  आधार प्रदान किया जा सकता है। विभिन्न वित्तीय वर्षों में पर्यटन से अर्जित आय की स्थिति तालिका में दर्शायी गयी है।                                                                                 तालिका                                                 पर्यटन उद्योग से विदेशी मुद्रा अर्जन                    वर्ष                                                                          आय (करोड़ रूपये में)                     2010                                                                      80000.00                     2011                                                                     100000.00                     2012                                                                     120000.00                     2013                                                                     140000.00                     2014                                                                     160000.00                     2015                                                                     135193.00                     2016(जनवरी-जून)                                           73065.00 स्रोत्र- पर्यटन मंत्रालय, भारत सरकार।                                                                           वर्तमान अस्त-व्यस्त भारतीय भुगतान संतुलन की स्थिति, बढ़ता हुआ विदेशी ऋण भार तथा पूजी निर्माण की दर में वृद्धि, विदेशी मुद्रा प्राप्ति से ही संभव है, जिसके लिए पर्यटन उद्योग एक महत्वपूर्ण साधन  है। पर्यटन से विदेशी मुद्रा का अर्जन करने के लिए हमें ‘अतिथि देवोभव’ वाली भावना को फिर से विकसित करना होगा। रोजगार- देश की बेरोजगारी को दूर करने की दृष्टि से पर्यटन उद्योग में रोजगार वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं। प्रशिक्षित प्रबन्धकों से लेकर कर्मचारियों, हस्तशिल्प कारीगरों, परिवहन कर्मचारियों, होटलों, गाइडों आदि कई व्यवसायों से लोगों को रोजगार मिलता है। कृषि, बागवानी, मुर्गीपालन, हस्तशिल्प, भवन निर्माण आदि गतिविधियों से पर्यटन के जुड़े होने के कारण रोजगार पर इसका और भी अधिक रचनात्मक प्रभाव पड़ता है। भारत सरकार ने पर्यटनसे युवाओं को रोजगार प्रदान करने हेतु वर्ष 1988 से पर्यटन बिषय को व्यावसायिक पाठ्यक्रम के रूप में स्कूली एवं विश्वविद्यालय स्तर पर आरम्भ कर दिया है। प्रशिक्षण काल समाप्त करने पर प्रशिक्षणार्थी पर्यटक गाइड, पर्यटक कंडक्टर, बुकिंग अधिकारी, सूचना अधिकारी, जनसम्पर्क अधिकारी, आतिथ्य सत्कार अधिकारी, इण्डियन एयर लाइंस, रेलवे गेस्ट हाउस, होटल में रिसेप्शनिस्ट आदि पदों पर रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। समस्याएं- पर्यटन एक सामाजिक आर्थिक गतिविधि है, जिससे कई क्षेत्रों तथा कभी- कभी पिछड़े इलाकों के आर्थिक विकास में मद्द मिलती है और नई आर्थिक गतिविधियाँ प्रारम्भ होती हैं। राष्ट्रीय विकास परिसद ने सन 1984 में ही पर्यटन को एक उद्योग के रूप में मान्यता दे दी। 6दिसम्बर,1989 से इसे एक स्वतंत्र मंत्रालय का रूप देते हुए एक कैबिनेट मंत्री के प्रभार में रखा गया किन्तु अनेक बाधाओं के कारण भारत में पर्यटन एक उद्योग के

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आधुनिक भारत में जातिगत चेतना(Caste Consciousness in Modern India) (उत्तर भारत के विशेष सन्दर्भ में)(Special Reference of North India)

बीसवीं सदी के प्रारम्भिक चरण में पाश्चात्य नवजागरण से प्रभावित सामाजिक सुधारों के प्रति आस्थावन बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पनपने लगा था। राष्ट्रीय भावना के विस्तार के साथ नए आर्थिक स्रोतों की उपलब्धता और शिक्षा एवं अनुकरण की प्रवृत्ति ने सम्पन्न दलित और गैर-ब्राह्मण मध्यम वर्ग की जातियों Caste) में संस्कृतिकरण के भाव भर दिए। अपनी-अपनी जातीय(Caste) संस्कृति और इतिहास जानने की ललक उठी और समाज में स्थान पाने की व्याकुलता बढ़ी। विभिन्न जातियों ने, विशेषकर उत्तर भारत में जातीय सभाओं और संगठनों का निर्माण कर समाज में अपने दर्जे को ऊँचा करने के लिए आन्दोलन किए। ऐसे संगठन मुख्यतः मझोली (और कभी-कभी निम्न) जातियों (Caste) के पर्याप्त छोटे शिक्षित समूहों द्वारा संगठित किए जाते थे। व्यवसाय तथा नौकरियों की होड़ में देर से शामिल होने के कारण इन लोगों को लगता था कि इस क्षेत्र में पहले से स्थापित ब्राह्मणों एवं अन्य जातियों के विरुद्ध संघर्ष की दृष्टि से एकत्रित होने के लिए जाति एक उपयोगी साधन हो सकती है। इन जातिगत आन्दोलनों की उध्र्वगामी गतिशीलता को ‘संस्कृतिकरण’ कहा गया है। इनमें उत्तर भारत में पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन, आगरा में जाटव समुदाय का आन्दोलन, अछूतानन्द के आदि हिन्दू आन्दोलन की विशेष चर्चा की गई है। पंजाब का आदि-धर्म आन्दोलन–                 उत्तर भारत में विभाजनपूर्व के पंजाब की निचली और अछूत जातियों में 1926 में आदि-धर्म आन्दोलन चलाया गया। बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में आदि-धर्मी दलित-अछूत सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि से बहुत संगठित हुए। इस आन्दोलन ने दलित वर्ग को समाज में गौरव और आदरपूर्ण स्थान दिलाया जिसके परिणामस्वरूप दलित वर्ग संगठित होने को प्रेरित हुआ। नगरीय सम्भ्रान्त दलित वर्ग में यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया था।                 पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन के पहले 1924 ई. में मद्रास में आदि द्रविड़ महाजन सभा द्वारा आन्दोलन चलाया गया था। इसी तरह आन्ध्र प्रदेश में ‘आदि आन्ध्र आन्दोलन’ चलाया गया था। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत के अछूत वर्ग की स्थिति में काफी सुधार आया था। इसी से सीख लेकर पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन 1926 ई. में एक सुसंगठित रूप में सामने आया। इस आन्दोलन में दो अछूत जातियाँ- चमार (चर्मकार) और चूहड़ा (सफाई कर्मचारी) शामिल थीं जो पंजाब में बड़ी संख्या में थीं। पंजाब में पहले से चले आ रहे समाज सुधार आन्दोलनों से यह एकदम अलग था। आदि धर्म आन्दोलन चलाने वाले नेता आरम्भ में आर्यसमाजी थे, जो बाद में दक्षिण के रामास्वामी नायकर के आत्म-सम्मान आन्दोलन से प्रभावित होकर उन्हीं का अनुकरण करने लगे। आर्य समाज के संबंध में उनका मानना था कि वे केवल शुद्धि आन्दोलन द्वारा हिन्दुओं की संख्या बढ़ा रहे है। जो शुद्धि आन्दोलन द्वारा निम्न वर्गीय लोग हिन्दू बनते हैं, उन्हें वह यह अहसास दिलाते हैं कि वे उनसे छोटे हैं। आदि धर्म आन्दोलन के नेताओं ने दक्षिण के आदि-आन्दोलनों की तरह प्रचारित किया कि वे ही भारत के आदि मूलनिवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक मान्यताएं हैं, बाद में ब्राह्मणों ने उन पर हिन्दू धर्म बलात् थोप दिया है।                 पंजाब के आदि-धर्मियों ने सार्वजनिक कुओं से पानी भरने, हिन्दू जमींदारों की तरह भूमि अधिकार दिए जाने, सार्वजनिक सम्पत्तियों के उपयोग करने और ऊँची जातियों के अत्याचार से मुक्त करने की माँग की। आदि धर्म को मानने वाले लोगों का मानना था कि उन्हें समान अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना है। इस आन्दोलन के कार्यकर्ता प्रायः बैठकों के बाद एक साथ गाँव या नगर के तालाब पर जाते थे और स्नान करके उच्च हिन्दू जातियों (Caste) द्वारा उस परम्परागत प्रतिबन्ध को तोड़ते थे कि अछूत वहाँ पानी नहीं भर सकते। यह एक ठोस कार्रवाई थी जिससे न केवल अछूत जातियों में परस्पर अलगाव की प्रवृत्ति दूर हुई जो सवर्ण हिन्दुओं द्वारा उन पर लादी गई थी, बल्कि उनमें जातीय एकता भी बढ़ी।                 पंजाब का आदि-धर्म आन्दोलन आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का बहुआयामी आन्दोलन था। आदि-धर्म के आन्दोलनकर्मियों ने माँग किया कि आगामी जनगणना (1931) में उन्हें हिन्दू की जगह आदि-धर्मी लिखा जाए। इन्होंने माँग की कि उन्हें सार्वजनिक , तालाबों से पानी का उपयोग करने दिया जाएं, हिन्दू जमींदारों की तरह समान भूमि अधिकार दिए जाएं, उन्हें सार्वजनिक जातीय सम्पत्तियों का उपयोग करने की छूट दी जाए, उन्हें ऊँची जातियों के अत्याचारों से बचाया जाए और साथ ही उनके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ और अधिकार दिए जाएं। इस समाज के लोग अपने आपको आदि धर्मी मानने लगे थे और जनगणना में भी उन्होंने अपने आप को आदि धर्मी लिखवाया जिससे पंजाब में अछूतों की संख्या में कमी आ गई।                 इसी दौरान जब डॉ. अम्बेडकर ‘लोथियन समिति’ के लिए जनसंख्या सम्बन्धी तथ्य एकत्र कर रहे थे, तो उन्होंने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि 1931 ई. में पंजाब के अछूतों की जनसंख्या में 1911 ई. के मुकाबले कमी आई है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि, ‘‘इसकी वजह आदि धर्म आन्दोलन है। 1931ई. की जनगणना में भाग लेने वाले आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने अपने लोगों और स्वयं को आदि धर्मी लिखवाया था हिन्दू नहीं जैसा कि पहले होता आया था। अम्बेडकर ने लिखा कि सरकार ने उनकी बात मान ली है और आदेश जारी कर दिए हैं कि जो जनगणना कर्मचारी हैं, वे उन लोगों को एक नए शीर्षक में ‘आदि धर्मी’ लिखें जो कि ऐसा लिखवाना चाहते हैं। इससे अछूत जाति पंजाब के कई हिस्सों में बंट गई। इस कारण सवर्ण हिन्दुओं और अछूतों में कई स्थानों पर संघर्ष हुए और कुछ स्थानों पर अछूतों पर दबाव डाला गया कि वे अपनी पुरानी जाति(Caste) पर आएं और उसे ही लिखवाएं। यद्यपि कई स्थानों पर उन्हें आदि धर्मी की लिखा गया और जाति नहीं लिखी। गई।                 इस प्रकार पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन से उत्तर पश्चिमी भारत के सभी अछूतों में जोश की एक लहर सी दौड़ गई और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए ये लोग सजग होने लगे। कालान्तर में आदि धर्मी लोगों ने काफी प्रगति की और इससे प्रेरणा लेकर कई अछूतों ने अपने सामाजिक और आर्थिक सतर में सुधार लाने के लिए प्रयास किए। आगरा का जाटव आन्दोलन-                 उत्तर भारत के दलित आन्दोलन में आगरा आन्दोलन का विशेष महत्त्व है। जातीय (Caste)आन्दोलन और संस्कृतिकरण से शुरू होकर इसने समाज में अपनी पहचान बनाई।

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वैदिक लोक संस्कृति एवं उसकी परम्पराएँ(Vedic Folk Culture And Traditions)

संस्कृति वह प्रक्रिया है, जिससे किसी देश के सर्वसाधारण का व्यक्तित्व निष्पन्न होता है। इस निष्पन्न व्यक्तित्व के द्वारा लोगों को जीवन जगत् के प्रति एक अभिनव दृष्टिकोण मिलता है। कवि इस अभिनव दृष्टिकोण के साथ अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का सामंजस्य करके सांस्कृतिक मान्यताओं का मूल्यांकन करते हुए उनकी उपादेयता और हेयता प्रतिपादित करता है। वह प्रकृति के सत्पक्ष का समर्थन करते हुए उसे सर्वजन ग्राह्य बनाता है। संस्कृति का अर्थ-                 भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा गुण यह रहा है कि उसमें अपने आपको कायम रखने की अद्भुत शक्ति अनादि काल से विद्यमान रही है। संसार के अनेक प्राचीन देशों का नाम लिया जा सकता है, जैसे मिस्र, यूनान, चीन, इटली आदि; किन्तु इन देशों का आमूल परिवर्तन हो चुका है। मिस्र की पिरामिड युगीन संस्कृति का वर्तमान मिस्र में नामोंनिशान भी नहीं है। इसी प्रकार अन्य देशों की स्थिति भी है। किन्तु भारत की स्थिति इनसे सर्वथा भिन्न है। भारतीय धर्म और समाज की परम्परागत चली आने वाली विशिष्ट बातें हजारों वर्षों से अपने उसी रूप में विद्यमान हैं जिस प्रकार हजारों वर्ष पहले कुम्भ स्नान हुआ करता था, वह आज भी उसी रूप में चल रहा है। चारों धाम की तीर्थयात्रा के महत्व में भी कोई कमी नहीं आयी है। यहाँ तक कि अनेक सामाजिक क्रिया कलाप भी ज्यों के त्यों चले आ रहे हैं।                 हिन्दी में प्रयुक्त होने वाला संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृति ’ शब्द़ सम़् + कृति है। इस शब्द का मूल ‘कृ’ धातु में है। वैयाकरण ‘संस्कृति’ शब्द का उद्गम सम् + कृ से भूषण अर्थ में ‘सुट्’ आगम पूर्वक ‘क्तिन्’ प्रत्यय से सिद्ध करते हैं। इस दृष्टिकोण से ‘संस्कृति’ का शाब्दिक अर्थ समप्रकार अथवा भलीप्रकार किया जाने वाला व्यवहार अथवा क्रिया है। जो परिष्कृत अथवा परिमार्जित करने के भाव का सूचक है। संस्कृति शब्द को संस्कार से भी जोड़ा जाता है। इस सन्दर्भ में इसे परिष्कार माना जाता है। अंगे्रजी  भाषा में संस्कृति के लिए culture (कल्चर) शब्द का प्रयोग किया जाता है। जो लैटिन भाषा के cultura और colore से निकला है। इन दोनों शब्दों का अर्थ क्रमशः उत्पादन और परिष्कार है। आक्सफोर्ड डिक्शनरी में संस्कृति का अर्थ बताते हुए कहा गया है- The training and refinement of mind, tastes and manners; the condition of being thus trained and refined; the intellectual side of civilization; the acquainting ourselves with the best. डा0राधाकृष्णन् के अनुसार, ‘‘संस्कृति…विवके ज्ञान का, जीवन को भली प्रकार जान लेने का नाम है। डा0हजारी प्रसाद द्विवेदी मानव की युग-युग की साधना को ही संस्कृति मानते हैं।‘ मनुष्य की श्रेष्ठ साधनायें ही संस्कृति है। डा0बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार, ‘‘संस्कृति है मानव जीवन के विचार, आचार का संशु़द्धीकरण अथवा परिमार्जन। वह है मानव जीवन की सजी- सँवरी हुई अन्तः स्थिति। वह है मानव समाज की परिमार्जित मति, रूचि और प्रवृत्ति पुंज का नाम*।                 संस्कृति में वही संस्कृति स्थायी रह सकती है, जिसमें आदान-प्रदान की क्रिया-प्रक्रिया हो। हम इस मत का प्रतिपादन नहीं कर सकते कि भारतीय संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ रही है,बाकी नगण्य रही हैं; हमारा तो यह मानना है कि कौन सी वह चीज थी जो भारत को विदेशों में सम्मान के साथ ले गयी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारत ने दूसरों पर अपने विचारों को लादने के लिए कोई बर्बर संगठन नहीं बनाया और न तलवार के जोर से अपनी बात मनवाने के लिए किसी देश या जाति पर आक्रमण ही किया। भारत के उदार-विचार, उसके सामयिक दृष्टिकोण और चिन्तन की गहरी जिज्ञासा ने ही दूसरे देशों को प्रेमपाश में जकड़ा था। वेद में संस्कृति और लोक-                 वेद को ‘श्रुति’ कहा जाता है। श्रुति का अर्थ सुनना है। गुरू-परम्परा से ही जो सुना जाता है,उसी को श्रुति कहते हैं। लोक में वाचिक परम्परा का स्थान श्रुति के समकक्ष है। लोक की वाचिक परम्परा का अवदान वेद है। लोक में वाचिक परम्परा का निर्वाह एक कलाकार से दूसरे कलाकार तक, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक, एक ओठ से दूसरे ओठ तक आज भी देखा जा सकता है।इस प्रक्रिया की परम्परा का निर्वाह आज भी वेदपाठियों में देखा जा सकता हैं। लोक संस्कृति की परम्परा की निरन्तरता और उसकी लोक व्यापी ऊर्जा का आभास वेदों से होता हे। वेदों ने तत्कालीन सामाजिक जीवन की बहुत सी बातें, संस्कार व्यवहार, अनुष्ठान, विश्वास और सबसे प्रमुख समाज के ढा़ँचे को स्वीकार किया, जो बाद में वर्णाश्रम में प्रतिष्ठित किया गया। लोक में प्रचलित गुरू-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरूकुल शिक्षा पद्धति को ग्रहण किया। शिक्षा का मुल उद्देश्य उत्तरोत्तर लोक जीवन में सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की ओर अग्रसर होना है, इसे वेदों ने ज्यों का त्यों प्रतिपादित किया। इन्द्रिय संयम की शिक्षा का मूलमंत्र जो लोक संस्कृति का हिस्सा था, उसे वैदिक संस्कृति के आचरण में शामिल किया गया। लोक संस्कृति में प्रचलित लोक धर्म दर्शन की धारणाओं का परिष्कार कर वेदों में सायुज्य प्रस्तुत किया गया। विवाह में गाये जाने वाले लोकगीतों का वेदों अनेक जगह उल्लेख आया है। ऋग्वेद में ऐसे गीतों के लिए ‘गाथा’और गाने वाले के लिए ‘गाथिन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। वेदों में शक्ति पूजा का प्रावधान लोक संस्कृति की ही देन है। संक्षेप में यह कहना उचित होगा कि वेदों ने लोक जीवन कह उन सभी चीजों को ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं की, कि जो मनुष्य को श्रेष्ठता की ओर ले जाने में सहायक होती थी। लोक और संस्कृति-                 लोक और संस्कृति दोनों व्यापक संज्ञा है। लोक और संस्कृति को विखंडित करके नहीं देखा जा सकता है। फिर भी दोनों के अर्थ और क्षेत्र को समझ लेने में कोई बुराई नहीं है।        लोक का साधारण प्रचलित अर्थ है ‘संसार’। वामन शिवराम आप्टे कृत संस्कृत -हिन्दी कोश में लोक को ‘‘लोक्यतेऽसौ’ कहा गया है जो लोक शब्द में ‘धञ्’ प्रत्यय के योग से बना है। जिसका अर्थ है दुनिया, संसार। अंग्रेजी में इसे फोक (folk) भी कहा जाता है।जिसका अर्थ है जनसमूह, जनसाधारण, लोक अथवा लोग आदि।डा0हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ‘‘लोक शब्द का अर्थ जनपद अथवा ग्राम नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाॅ नहीं है; ये लोग अकृतिम और सरल जीवन व्यतीत करते हैं।’ रघुवंश महाकाव्यम्  में लोक

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