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बौद्ध संस्कृति में वन और उनका महत्त्व(Forests And Their Significance In Buddhist Culture)

मनुष्य और अन्य पशुओं के जीवन में कुछ समानता प्रत्यक्ष है। इस समानता का स्तर प्राकृतिक है, जिसे भर्तृहरि के शब्दों में कह सकते हैं-                     आहार- निद्राभयमैथुनं च समानमेतत् पशुभिर्नराणाम्।                 प्राकृतिक स्तर के अतिरिक्त मानवीय जीवन-प्रवृत्तियों के बहुविध स्तर हैं-सामाजिक, दैविक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और रसात्मक। मनुष्य ने एक समाज की रचना की है, जिसकी विशाल परिधि में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ आता है। वह देवी-देवताओं की कल्पना करके उनकी दैविक विभूति का उपयोग करता है। आत्मा और परमात्मा की प्रतिष्ठा करके मानव आध्यात्मिक समाधि की अवस्था में जा पहुँचता है। बौद्धिक स्तर पर अपने बुद्धि-कौशल से नित्य अनुसन्धान करके ज्ञान-विज्ञान की दिशाओं में वह सफलता प्राप्त करता है। उसकी प्रगति के लिए प्रेरणा की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है रसात्मक निष्ठा, जिसके द्वारा व्यावहारिक और कल्पनात्मक सर्जनाओं में वह रस ग्रहण करता है।                 अपने प्राकृतिक जीवन-स्तर पर पशु प्रायः वहीं हैं, जहाँ सहस्रों वर्ष पहले थें, किन्तु मानव न केवल प्राकृतिक स्तर पर, अपितु उपर्युक्त अन्य स्तरों पर निरन्तर प्रगति करता आ रहा है। यही उसकी मानवोचित साधना है। यह साधना-पथ अनन्त है और मानव निरवधि काल तक इस पर चलता रहेगा। इस साधना के पीछे उसकी बुद्धि, वाणी, सौन्दर्य-भावना, आध्यात्मिक अनुसंधान और सहानुभूति की नित्य अपेक्षा रहती है। इनको सतत् उच्चत्तर स्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए मानव अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सुख-सौरभ की सृष्टि करता आ रहा है। मनुष्य की यही प्रवृत्ति उसकी संस्कृति है। यही मानव जीवन की कला है। यही मानव-जीवन के विकास की सनातन प्रक्रिया है।                 संस्कृति के विकास-पथ में प्राकृतिक परिस्थितियों का सर्वाधिक महत्त्व होता है। प्राकृतिक दशा के अनुरूप मानव की नित्य की आवश्यकताएँ होती हैं। मानव इस प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रायः अपने आस-पास प्राप्त होने वाली प्रकृति- प्रदत्त वस्तुओं को उपयोग में लाता है। यदि प्रकृति की विषमताओं के कारण मानव की नित्य की आवश्यकताएँ अत्यधिक हो जाती हैं और उनकी पूर्ति के लिए उसे प्रकुृति से संघर्ष करना पड़ता है तो स्वभावतः वह प्रकृति को आदर की दृष्टि से नहीं देख पाता। ऐसी प्रकृति के संसर्ग में वह स्वयं कठोर बन जाता है। इसके विपरीत यदि प्रकृति उदार हो, अपनी शरण में आये हुए, स्वल्प श्रम करने वाले व्यक्तियों का भरण-पोषण करती हो तो लोगों के हृदय में उसके प्रति सद्भावना उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में लोग प्रकृति को देवी मान लेते हैं। ऐसी प्रकृति के संसर्ग में आने पर लोगों का चरित्र उसके आदर्शों के अनुरूप विकसित हो जाता है। प्रकृति उदारता, सहानुभूति, सहिष्णुता आदि का प्रथम पाठ मानव को पढ़ाती है। प्रकृति के रम्य प्रदेशों में दार्शनिक को आध्यात्मिक सत्य का आभास होता है। शिल्पी और कलाकार प्रकृति से उपादानों को ग्रहण करके उसके सौष्ठव और सौन्दर्य की अभिव्यंजनाओं को चित्र, मूर्ति, वास्तु और काव्य आदि के माध्यम से प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। प्रायः प्राकृतिक संविधानों के अनुरूप ही भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक एकता का प्रादुर्भाव हुआ। छः ऋतुः                 भारतीय संस्कृति के लिए प्रकृति से अलंकृत गाँवों का महत्त्व वनों की भाँति रहा है। नगरों को आध्यात्मिक संस्कृति के प्रतिकूल माना गया है। भारतीय प्रकृति की चारूता ऋतुओं के साथ बदलती रहती है। छः ऋतुओं में क्रमशः छः बार सारे प्राकृतिक वातावरण का परिवत्र्तन सा होता है। प्रायः सभी ऋतुओं की प्रघान विशेषता रही है कि वे कभी भी इतनी कठोर नहीं होती कि लोगों को बाहर निकलने में कठिनाई हो या उन्हें अपने घर के कोने में दुबक कर बैठना पडे़। कोई भी ऋतु इतनी दुःसह नहीं होती कि मानव को भोजन-पान तथा वस्त्र सम्बन्धी विशेष आयोजन किए बिना जीवन दूभर या असम्भव हो जाय। जहाँ तक जलवायु का सम्बन्ध है, प्राचीन भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में आज की अपेक्षा अधिक वर्षा होती थी और गर्मी भी कम पड़ती थी। बौद्ध संस्कृति में वनः                 व्यक्तित्व के विकास के लिए बौद्ध संस्कृति में वनों का अतिशय महत्त्व रहा है। इस संस्कृति में अरण्य को रमणीय माना गया और कहा गया कि कामनाओं के फेर न पड़ने वाले विरागी पुरूष इन्हीं अरण्यों में रमण करते हैं। थेर-गाथा में अधिकांश चरित ऐसे ही महापुरूषों के हैं जिन्होंने वन में रहते हुए ही अपने व्यक्तित्व का विकास किया था और साथ ही जिन्होंने वन-भूमि को अतिशय रमणीय मानकर प्रायः वहीं अपना जीवन-यापन किया। इन ग्रन्थों के अनुसार अरण्य-संज्ञी उन मुनियों की उपाधि थी, जिनका चित्त वन की शोभा और सुविधाओं की ओर विशेष प्रवृत्त था। पर्वत और वन की प्रशान्ति के बीच अंगुलिमाल का मन रमता था। वन-वृक्षों की हरी शीतल छाया में विचरण करने वाले मुनि वन-सरिताओं का शीतल जल पीते थे, उसी में स्नान करते थे और वन में ही परिभ्रमण करते थे। वन और पर्वत की शीतल वायु उनके अज्ञान रूपी कुहरे को मानों उड़ा देती थी। वे वन की पुष्प- रंजित भूमि पर बैठ कर मुक्ति और बन्धन-विहीनता का अनुभव करते थे। प्रकृति की वन्य सुरम्यता को भिक्षुओं ने अपनी प्रगति में सर्वथा सहायक पाया। ऐसा वातावरण उनकी समाधि और चिन्तन को स्फुरित करता था। वन की प्राकृतिक उदारता के प्रति भिक्षुओं की कृतज्ञता के अनेक उद्गार पुस्तकों में संकलित हैं। उसभ नामक थेर को शरद् की वनश्री की संवर्धना के द्वारा आत्म-विकास का सन्देश मिला था। वन का महत्वः                 गौतम बुद्ध ने वन की उपयोगिता प्रमाणित करते हुए कहा कि जब तक भिक्षु वन के शयनासन का उपभोग करेंगे, उनकी वृद्धि होगी। उन्होंने नियम बनाया कि भिक्षु एकासन और एकशय्या वाला होकर अकेले विचरण करें, आलस्य न करे, अकेले अपना दमन करे और वन में आनन्दपूर्वक रहे। गौतम बुद्ध का मन पर्वतों और वनों की प्राकृतिक शान्ति में रमता था। उनके जीवल-काल में प्रायः भिक्षु वनों और पर्वतों की गुफाओं में रहते थे। स्वयं बुद्ध कभी-कभी वनों में कई दिनों तक लगातार रहते थे। आगे चलकर प्रकृति की सुरम्यता के बीच नगरों से दूर, नदियों के तट पर और पर्वतों की घाटियों में अनेक बिहार बने। बिहारों में रहने वालों की आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए राजाओं और धनी लोगों के द्वारा भूमि और धन का दान दिया गया। नन्द ने योगाभ्यास करने के लिए वन की शरण ली थी। बौद्ध भिक्षुओं के नियमः                 बौद्ध मुनियों के लिए नियम था कि वे नित्य भ्रमण करों। केवल बर्षा के चार महीनंे

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Society in Chandellas Dynasty

The Chandella inscription throw very little light on the social structure of the kingdom and only a few passing reference are found, mostly in the Copper Plates and inscriptions of the ministerial families. Even the contemporary Sanskrit drama, Prabodha-Candrodaya is not of much use for a study of the social conditions, though it is of the value for our section on Religion. However, with the help of the scanty materials available, we shall try to outline the essential features of Chandella society. Brahmana: In our period, the supremacy of the Brahmanas and the great honour and privileges enjoyed by them are clearly evident. In the inscriptions the Brahmanas are mentioned with their Sakha, Gotra and Pravaras. Th Semra Plates of Paramardi record grants made to no lesstha 309 Brahmanas, all o whom ae mentionedwith their Gotras Prvaras and Sakhas. The constant emphasis on the Gotra and Sakha shows that the orthodox Brahmanical system was fully in force. That the Brahmanas devoted themselves to religious studies is known from the inscriptions, one of which states that a  Brahmana done ‘’ was ever ready to expound the Vedas, the Vedangas, Itihasa, the Puranas and Mimamansa , and was devoted to Sat-karma’’. Other inscriptions and the Prabodha-Candrodaya also praise the Brahmanas for their knowledge and education. But it cannot be said that they devoted themselves only activities of the Brahmans, and, as we have already noticed, they often acted as Senapatis, Dharmadhikarins, and Rautas in the Chandella kingdom. The Bagheri stone inscription of Paramardi gives the genealogy of a Brahmin family, who served as officers of the Chandella kings for five generations.      The Chandella inscriptions often mention the Brahmanas as Pandita, Thakura, Bhatta etc, which from the contexts, were no doubt titles, and not surnames as suggested by Vaidya, though they certainly became surnames in more recent times. The donees, who were always Brahmanas, usually came from Agraharas often called Bhattagraharas or Bhattagramas, terms applied to the villeges granted to Brahmanas by the kings or others. Ksatriya:    Only  two specific mentions of the Ksatriya caste are found in the Chandella records. The Ajaygadh Stone inscription of Paramardi’s time records the building of cautra by one Rauta Sihada, son of Rauta Santana of the Ksatriya caste . Another inscription refers to a Rauta who was also a Ksatriya.  This apparent rarity of Ksatriyas is satisfactorily explained by Mr.Seth’s suggestion that the Ksatriyas had lost the custom of maintaining caste divisions, and thus the practice of mentioning their caste was not popular during this period. The Kula or family became the most important factor in their lives and this resulted in the extinction of the previous practice of mentioning the caste. According to Mr.Seth, the rise of the new dynasties in Northern India in the middle ages, chiefly contributed to the importance of the Kula or family.       This contention is strongly supported by the Chandella epigraphic records, which put great stress on the Vamsa or Kula of the people mentioned in the inscriptions. Kings, ministers and others mostly mention their respective families, but not their caste. All who enjoyed high position in society, except the Brahmanas, wanted their families to be known, and always enthusiastically enumerated the good qualities deeds of their stock. An inscription of a Grahapati family (i.e.Suryavamsa) gives us some idea of the ideals of a good and respectable family. This states that one Atiyasowala of the Grahapati family supported the families of friends and dependents, excavated thanks full of water and built temples, and thus became honoured and famous. His son Mahata secured the three objects of life (i.e. religion, wealth and pleasure) in a blameless manner. Mahata’s successors, Jayadeva and Sekkalla, were famous for their good deeds. Sekkalla’s son Kokkala was endowed with good qualities, and always bestowed food, clothes, horses, couches, seats, umbrellas, shoes, grains and dwelling places on worthy recipients. He was also engaged in other works of piety and built a wonderful town with high archways and gates of great value. A Rewa grant of Trailokyavarman gives a similar genealogy of family of Maharanaka Kumarapala of the Kaurava Vamsa, who were probably Ksatriyas.       Chandella epigraphic records indicate that by the beginning of the 11th century, the Kayasthas had become one of the main castes in this part of India, and the Rewa Stone Inscription of K.C. 800 gives a mythical account of the origin of the Kayastha caste. The prominence gained by the Kayasthas as a caste is evident from an inscription which runs as follows-‘’There were thirty six towns, purified by the fact that men of the writer caste dwelt in them (Karana-karma-nisasputa)and more (than other towns) endowed with great comfort. Among them the most excellent, thought of as the abode of gods, was Takkarika, an object of envy….. (and) in this (town) which by crowds (of students) was made to resound with the chants of the Vedas, there were born in the Vastavya family those Kayasthas whose fame was filled (and rendered) white like swans all the worlds, illuminging the quarters.” This inscription shows that the Kayasthas, like the Ksatriyas, were even more proud of their families than of their caste; and in a grant of Paramardi, the writer calls himself a member of the Vastavya Vamsa without mentioning his caste. The were apparently regarded as a class of intellectualas, who, besides having knowledge of the ancient books, knew the art of civil administration. Vaisya and Sudra:       No mention of the terms Vaisya and Sudra is found in the inscriptions, which indicates that the people of the low castes were known by their profession rather than by their class. This is supported by the Dahi Plate of Viravarman, which records that before making a land grant Viravarman assembled all the local Brahmanas, Kayasthas, Harkaras, cow-herds, goat-herds, orchard-keepers and all other classes, high and low.  Other Copper Plates also mention the people by their profession, viz, dutas, vaidyas, medas, chandalas etc.       Though there is no direct evidence of the nature of

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प्राचीन भारत में बौद्ध शिक्षण केन्द्र :(Buddhist Teaching Centre In Ancient India)

                प्राचीन काल से लेकर आजतक भारत में अध्यापन पुण्य का कार्य माना गया है। गृहस्थ ब्राह्मण के पाँच महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ का स्थान सर्वोच्च था। ब्रह्मयज्ञ में विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रधान कर्म था। ब्रह्मयज्ञ के लिए प्रत्येक विद्वान गृहस्थ के लिए विद्यार्थियों का होना आवश्यक था। इन्हीं विद्यार्थियों में आचार्य के पुत्र भी होते थे। इस प्रकार प्रत्येक विद्वान गृहस्थ का घर विद्यालय था। ऐसे विद्यालयों का प्रचलन वैदिक काल में विषेष रूप से था। महाभारत में भी गृहस्थाश्रम में रहने वाले आचार्यों के अपने घर में अध्यापन करने के उल्लेख मिलते हैं। उर्पयुक्त वैदिक विद्यालयों के सम्बन्ध में इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वे बड़े नगरों में नहीं होते थे। विद्यालयों की स्थिति साधारणतः नगरों से दूर वनों में होती थी। महर्षि गृहस्थ होने पर भी अपने रहने के लिए वनभूमि को ही प्रायः चुनते थे। जिन वनों, पर्वतों उपनद-प्रदेश को लोगों ने स्वास्थ्य संवर्धन के लिए उपयोगी माना और जहाँ ग्रीष्मऋतु का संताप प्रखर नहीं था, उन्हें आचार्यों ने अपने आश्रम और विद्यालयों के लिए चुना। विद्यालय प्रायः वहीं होते थे, जहाँ आचार्यों की गायों को चरने के लिए घास का मैदान होता था, हवन की समिधा वन के वृक्षों से मिल जाती थी और स्नान करने के लिए निकट ही सरोवर या सरिता होती थी। तत्कालीन वैदिक विद्यार्थी-जीवन में ब्रह्मचर्य और जप का विषेष महत्त्व था। इनकी सिद्धि के लिए नगर और ग्राम से दूर रहना अधिक समीचीन माना गया। उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान के शिक्षक ऋषियों की आवास-भूमि अरण्य को ही बताया गया है। इन्हीं ब्रह्मज्ञानियों के समीप ब्रह्मज्ञान के विद्यार्थी आते थे। अरण्य में रहना ब्रह्मचर्य का पर्याय समक्षा जाने लगा। बौद्ध शिक्षा के प्रवर्तक गौतम बुद्धः बौद्ध शिक्षण-संस्थाओं के प्रसिद्व प्रवर्तक गौतम बुद्व थे। गौतम ने अपने दर्शन और धर्म के अनुकूल मानव-व्यक्तित्व के विकास की जो योजना बनायी, उसमें गृहस्थाश्रम का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं था। गौतम के पहले भी कुछ ऐसे विचारक थे, जिनके मत से गृहस्थाश्रम की उपयोगिता किसी विद्वान या अग्रशोची व्यक्ति के लिए नहीं है। ऐसी परिस्थिति में कुछ विचारशील माता-पिता स्वयं अपने पुत्र को ब्रह्मपरायण बनाने के लिए निश्चय कर लेते थे और अपने बालक की अवस्था सोलह वर्ष हो जाने पर उसे सदा के लिए वन में भेज देते थे, जिससे वह अग्नि की पूजा करते हुए ब्रह्मलोकगामी हो जाय। ऋषि-प्रव्रज्या के अनुसार भी बाल्यावस्था से ही लोग प्रव्रजित हो सकते थे। ऋषि-प्रव्रज्या लेने वाले लोग प्रायः हिमालय पर्वत पर किसी आचार्य- महर्षि के सानिध्य में जीवन बिताते थे। कभी-कभी वे पर्वतीय प्रदेश छोड़कर नगरों की ओर आते जाते थे और नागरिकों को उपदेश देते थे। राजाओं द्वारा उनका आदर- सम्मान किया जाता था। ऋषि वर्षा ऋतु में किसी एक ही स्थान पर रहते थे। राजा के उद्यान में इनके लिए पर्णशाला बनायी जाती थी। वनों में रहते हुए ऋषि वनान्तर से फल-फूल आदि अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ लाते थे। ऋषियों की यह प्रव्रज्या अग्नि-पूजा के विरूद्ध थी। उनके जीवन-क्रम और अभ्यास बहुत कूछ ऐसे ही थे, जैसे परवर्ती युग में बौद्ध संस्कृति में प्रतिष्ठित हुए। अरक जातक के अनुसार बोधिसत्त्व एक बार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर काम-भोगों को छोड़कर ऋषि-प्रव्रज्या अपना कर ब्रह्म-विहारों में समापन्न होकर अरक नाम के उपदेशक हुए। वे हिमालय प्रदेश में अनुयायियों के साथ रहते थे। अरक के उपदेश थे- प्रव्रजित को मैत्री, करूणा, मुदिता और उपेक्षा भावनाओं का अभ्यास करना चाहिए। मैत्री- भावना से चित्त अर्पणा, समाधि और ब्रह्मपरायणता प्राप्त करता है। गौतम ने स्वयं कहा है कि प्राचीन काल में अनेक अर्हत् बुद्ध हो चुके हैं। फाह्यान ने लिखा है कि देवदत्त के अनुयायियों के भी संघ थे। वे पूर्व के तीन बुद्धों- कश्यप, ककुच्छद और कनक मुनि की भी पूजा करते थे, केवल शाक्यमुनि की नहीं। उपर्युक्त उल्लेखों से प्रतीत होता है कि गौतम ने व्यक्तित्व के विकास की जिन योजनाओं और समस्याओं को अपनाया, उनका पूर्व रूप भारतीय संस्कृति में सुदूर प्राचीन काल से चला आ रहा था। गौतम ने प्रव्रज्या लेने वाले ऋषियों के संघीय रहन-सहन को अपनाया और उन्हीं की भाँति आजीवन व्रत-निष्ठ रहने का विधान बनाया। इस जीवन- विन्यास में उन्होंने अरण्यवास और पर्णशालाओं को बहुत महत्व नहीं दिया। बौद्ध विहार नगरों के आस- पास ही ऊँचे भवनों के रूप में बने। तत्काीन अनेक राजाओं और धनी लोगों ने गौतमबुद्ध के समय से ही विहारों के बनवाने का उत्तरदायित्व लिया। ऐसी परिस्थिति में विहारों का राज-प्रासाद के समकक्ष होना स्वाभाविक था। जहाँ तक विहारों के नगरों के समीप होने का सम्बन्ध है, गौतम का स्पष्ट उद्देश्य था- नागरिकों के अवगाहन के लिए अपनी उदात्त विचार-धारा को सुलभ बनाना। इसमें गौतम को सफलता मिली। भिक्षुओं को विहार में रहने की अनुमति गौतम ने राजगृह के नगर-सेठ के प्रार्थना करने पर दी थी। इसके पहले भिक्षु गौतम बुद्ध से शिक्षा लेने के लिए प्रातःकाल आ जुटते थे और दिन भर शिक्षा- ग्रहण करके रात्रि का समय वनों में, वृक्षों के नीचे, पर्वत की पाश्र्व-भूमि में, गुफाओं में बिता देते थे। गौतम बुद्ध चलते- फिरते महात्मा थे। उनकी शिष्य- मण्डली भी उनके साथ चलती- फिरती थी। जब शिष्यों की संख्या अधिक हो गयी तो सबको लेकर घूमना कठिन हो गया और उनको भवन में रहने की अनुमति दे दी गयी। बौद्ध शिक्षा के केन्द्र- विहारः                 भिक्षुओं को बेघर होकर घूमने की परिस्थिति का अवलोकन करके राजगृह के सेठ ने उनके लिए 60 घर बनवाया। गौतम ने अनुमति दी थी कि भिक्षुओं के रहने के लिए पाँच प्रकार के घर हो सकते हैं- विहार, हठयोग, पासाद (प्रासाद), हम्मिय (हम्र्य) तथा गुहा। उन्होंने 60 घरों के दान का अनुमोदन करते हुए सेठ को इन शब्दों में धन्यवाद दिया- जो व्यक्ति संघ के लिए विहार का दान करता है, वह भिक्षुओं को जाड़े, गर्मी और वर्षा के प्राकृतिक प्रकोपों से बचाता है, मच्छरों और कीड़ों से उनकी रक्षा करता है तथा उष्ण वायु के झोकों से सुरक्षित रखता है। विहार-भवन में शान्तिपूर्वक बैठकर भिक्षु समाधि लगा सकते हैं और चित्त को एकाग्र करके चिन्तन कर सकते हैं। बुद्धिमान पुरूष अपने कल्याण की भावना से मनोरम विहारों को बनवायें और वहाँ विद्वान मनीषियों को आश्रय दें। जिन लोगों का अन्तःकरण शुद्ध है, उनके लिए प्रसन्न मन से भोजन, पेय, वस्त्र, आवास आदि का दान देना

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उत्तर-पश्चिम भारत के प्राचीन नगर: मस्सागा, पुष्कलावती और तक्षशिला (The Ancient town of North West India,Massaga,Pushkalavati And Takshashila)

प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने राजा को निर्देश दिया है कि वह धर्म के उदय अथवा उपार्जन (समुदयस्थान) के लिए बड़े-बड़े नगरों (स्थानीय-निवेश) का निर्माण करवाए। नगर का निर्माण उपयुक्त स्थानों, जैसे नदी के संगम (नदी संगमे), सर व तड़ाग के तटों पर वास्तुविद्याविशारदों द्वारा सम्पन्न कराया जाता था। नगर का निर्माण भूमि के अनुसार वृत्ताकार, दीर्घ (लम्बा) अथवा चतुरथ (चैकोर) रूप में किया जाता था। नगर के लिए पानी की व्यवस्था हेतु चारों ओर छोटी-छोटी नहरों का निर्माण भी आवश्यक था। नगर में बिक्री की वस्तुओं के संग्रह और विक्रय का प्रबन्ध तथा नगर में आने-जाने के लिए स्थल तथा वारि-पथ (जलमार्ग) दोनों प्रकार की सुविधा का प्रबन्ध आवश्यक था।                 जनपदों को बसाने के लिए कौटिल्य ने राजा को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वह दूसरे देशों से जनों को लाकर अथवा अपनी आबादी को बढ़ाकर पुराने या नए जनपद बसाए। भारतीय अर्थशास्त्रियों के निर्देश के परिणामस्वरूप प्राचीन काल में भारत में नगरों के निर्माण की दिशा में राजाओं ने बहुत ध्यान दिया। यही कारण है कि सिकन्दर के समकालीन इतिहासकारों ने तत्कालीन भारत को अनेक बड़े और विशाल नगरों से परिपूर्ण बताया है। स्ट्रैबों लिखता है कि ‘हमें पहले के लेखकों से पता चलता है कि मेसीडोनियनों ने हिडासपिस (झेलम) और हिपनिस (व्यास) के बीच स्थित नौ राज्यों को जीता था, जिनमें 5,000 नगर थे। ग्लासाय के साम्राज्य में एरियन के अनुसार 37 नगर थे, जिनकी आबादी 5,000 से 10,000 थी। अकेले पोरस के राज्य में 2,000 नगर थे। मेगस्थनीज के अनुसार आन्ध्र पदेश में 30 नगर थे। पाड्य आदि दक्षिण के राज्यों में तीन-तीन सौ नगर थे। इस आलेख में उत्तर-पश्चिम भारत के मस्साका, तक्षशिला और पुष्कलावती पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। मस्साका या मस्सागा                 उत्तर-पश्चिमी सीमान्त का नगर मस्सागा सम्भवतः मलकन्द दर्रे के उत्तर की ओर स्थित था। एरियन लिखता है कि अस्साकिनोई के प्रदेशों में एक महान् नगर था जिसे मस्सागा या मस्साका कहते हैं। यह उस राजशक्ति का केन्द्रस्थान है, जो सम्पूर्ण साम्राज्य का शासन करता है। कर्टियस के अनुसार मस्साका नगर प्रकृति और शिल्प से दृढ़ता के साथ परिवेष्ठित था। कर्टियस के विवरण से ज्ञात होता है कि मस्साका नगर दुर्ग के रूप में बना हुआ था। यह नगर पूरब में एक पहाड़ी नदी से घिरा हुआ था और उसके दोनों ओर चट्टानों के ऐसे ढ़ाल थे कि नगर तक पहुँचना बहुत कठिन था। दक्षिण और पश्चिम में प्रकृति ने ऊँची-ऊँची पहाड़ियों को खड़़ा कर दिया था जिससे नगर पूर्णतया सुरक्षित था। इस प्राकृतिक परिवेष्ठन के साथ नगर की रक्षा के निए एक विशाल खाई खुदी हुई थी तथा वह 35 स्टेडिया की परिधि की एक दीवार से घिरा था। इस दीवार की नींव पत्थर की थी और ऊपर का भाग ऐसी ईंटों का बना था, जो धूप में सुखाकर तैयार की गई थी। इस नगर-दुर्ग की रक्षा में उसके राजा अस्सकेनोस ने 38 हजार सेना लेकर सिकन्दर का प्रतिरोध किया था। पुष्कलावती                 इस नगर का एक नाम पुष्करावती भी था। इस नगर की पहचान सुवास्तु एवं कुंभा के संगम पर स्थित आधुनिक चारसद्दा (चारषद्दा) से की जाती है। रामायण में इस नगर की स्थापना का श्रेय भरत को दिया गया है। उन्होंने इसका नाम अपने पुत्र पुष्क के नाम पर रखा था। पश्चिमी गान्धार के इस प्रसिद्ध नगर का उल्लेख पालिग्रन्थों में भी यदा-कदा मिलता है। गाथाओं के अनुसार बोधिसत्त्व ने अपने एक पूर्वजन्म में यहाँ पर एक भूखी व्याघ्री को अपना शरीर अर्पित किया था। पेरीप्लस के अनुसार यह नगर प्रसिद्ध व्यापारिक मार्गों पर स्थित था। टाल्मी तथा एरियन ने इसे विशाल राजधानी तथा घनी आबादी वाला नगर बताया हैं उ़त्तर-पश्चिम भारत वर्ष में स्थित होने के कारण इस नगर पर भी आक्रमण होते रहे हैं। सिकन्दर के आक्रमण के समय यह नगर गान्धार प्रान्त की राजधानी थी। सिकन्दर के आक्रमण ने इस नगर को बड़ी क्षति पहुँचाई। शकों एवं कुषाणों के आक्रमणों के कारण इस नगर की प्राचीन समृद्धि विलुप्त हो गई।                 कालान्तर में अपनी महत्त्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति के कारण इस नगर का पुनरोदय हुआ। वाणिज्य का केन्द्र होने के कारण इसके नष्ट वैभव का उद्धार होना स्वाभाविक था। श्वांनच्वांग के यात्रा-विवरण से पता चलता है कि उसके आगमन के समय यह नगर अत्यन्त समृद्ध था। उसके अनुसार इसकी परिधि लगभग तीन मील थी। इस जनाकीर्ण केन्द्र के निवास धन-धान्य से परिपूर्ण थे। नगर के पश्चिम द्वार पर एक देवमन्दिर था, जिसमें स्फटिकनिर्मित मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इसके उपकण्ठ पर अशोक द्वारा निर्मित स्तूप अब भी विद्यमान था। इसके दर्शनार्थ अनेक बौद्ध धर्मानुयायी देश के विभिन्न भागों से यहाँ एकत्र होते थे। श्वांनच्वांग से यह भी ज्ञात होता है कि इस नगर के समीप और भी स्तूप तथा विहार विद्यमान थे।  तक्षशिला                 तक्षशिला उत्तर-पश्चिम भारत का एक प्रसिद्ध नगर था। यह प्रारम्भ में पूर्वी गान्धार की राजधानी थी। रामायण में इस नगर की स्थापना का श्रेय भरत के पुत्र तक्ष को दिया गया है। महाभारत के अनुसार परीक्षित के ज्येष्ठ पुत्र जनमेजय का नागयज्ञ यहीं पर हुआ था। कुछ इतिहासकार तक्षशिला का सम्बन्ध शक्तिशाली तक्क जाति से जोड़ते हैं जो सिन्धु और चिनाब नदियों के बीच निवास करती थी। फाह्यान ने अपने यात्रा-विवरण में इसे ‘चु-शि-शु-लो’ कहा है जिसका अर्थ चीनी भाषा में ‘कटा सिर’ होता है। जातक कथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध का जन्म एक बार दलिद्दी नामक ग्राम के एक ब्राह्मण-कुल में हुआ था। उन्होंने एक याचक को अपना सिर काटकर भिक्षा के रूप में समर्पित किया था। इस घटना के कारण इस नगर का यह नाम पड़ा।                 बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर का विशेष वर्णन मिलता है। एक जातक के अनुसार वाराणसी का कोई शासक आक्रमण के उददेश्य से प्रेरित होकर अपनी शक्तिशाली सेना के साथ तक्षशिला पहुँचा था, किन्तु इस नगर के प्रधान द्वार के ऊपर निर्मित शिखर के सौन्दर्य से वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने आक्रमण का विचार ही त्याग दिया। इस नगर के भीतर भव्य भवन सुशोभित थे।                 बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि इस नगर की बौद्धिक क्षेत्र में विशेष प्रसिद्धि थी। देश के सुदूर भागों के विद्यार्थी यहाँ अध्ययन के निमित्त बहुसंख्या में एकत्र होते थे। यहाँ तक कि राजकुलों से सम्बन्धित व्यक्ति भी इस विद्या-केन्द्र में अध्ययन करने के लिए आया

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प्राचीन भारतीय साहित्य में सौन्दर्य बोध :Aesthetic Sence In Ancient Indian Literature (केश प्रसाधन के सन्दर्भ में)(With Refrence TO Hairstyle)

संस्कृति स्थूल एवं सूक्ष्म, मन एवं कर्म, भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का परिष्कृत रूप है। यह मानव जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान-विज्ञान, धर्म-दर्शन, कला, साहित्य एवं पारंपरिक मूल्य आदि इहलौकिक एवं मोक्ष नामक पारलौकिक सुखानुभूति का मूलाधार है। यह व्यक्त्गित एवं सामाजिक जीवन की मति, रूचि एवं प्रवत्ति पुंज है। संस्कृति- सभ्यता के भिन्न सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् का प्रतीक है। यह जीवन के आभ्यंतरिक तत्त्वों का परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप है। इसीलिए संस्कृति मानव जीवन का आंतरिक सौन्दर्य है। आन्तरिक सौन्दर्य से ही बाह्य सौन्दर्य की अभिव्यक्ति संभव है। सूर्य, चन्द्र, पर्वत, नदी, झरने, वृक्ष एवं वनस्पतियां आदि सभी प्राकृतिक तत्त्व सौन्दर्यमयी हैं। अतः कालान्तर में कला को भी व्यक्ति एवं समाज के बाह्य एवं आभ्यन्तर मनोभावों की अभिव्यक्ति का एक साधन मान लिया गया है। कलात्मक रूपों का ही नाम संस्कृति है। कला के द्वारा जो रूप उत्पन्न होते हैं उससे संस्कृति का क्षेत्र भरता है और संस्कृति की काया पुष्ट होती है। कला वर्तमान और भावी जीवन की आवश्यकता है। जीवन कला के बिना अपूर्ण है। लेकिन कला विलास परक नहीं होनी चाहिए। कला श्री और सौन्दर्य को प्रत्यक्ष करने का साधन है। जिसमें रस नहीं वह रसहीन होती है। जहाँ रस नहीं वहाँ प्राण नहीं रहता है। जिस जगह रस, प्राण और श्री तीनों एकत्र रहते हैं वहीं कला रहती है। अलंकरण विधानः                 भारतीय कला में सौन्दर्य- विधान के लिए अनेक अलंकरणों का प्रयोग हुआ है। देवों के मूर्तरूप कला के शरीर हैं, तो भाँति- भाँति के अभिप्राय-अलंकरण उस शरीर के बाह्य मंडन हैं। इसके बिना कला संभ्रान्त नहीं होती। पत्र और पूष्पों से कला का शरीर श्री सम्पन्न बनाना आवश्यक है। लताओं और वृक्ष – वनस्पतियों ने कला के स्वरूप को अनेक प्रकार से सँवारने में सहायता दी है।                 समाजिक जीवन में शरीर को रमणीय बनाने की प्रक्रिया सदा से विशेष महत्वपूर्ण रही है। इस उद्देश्य से शरीर की बाह्यतः स्वच्छता करना, लेप लगाना, केश सँवारना, अलंकार धारण करना आदि सुसंस्कृत नागरिक के कार्य रहे हैं। प्रचीन काल से भारत इसमें अग्रणी रहा है।                                           नकुण्डली नामुकुटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान्।                                           नमृष्टो न लिप्तांगो नासुगन्धश्च विद्यते।।                                             नमृष्टाभोजी नादाता नाप्यनंगदनिष्कधृक्।                                             नाहस्ताभरणो वापि दृश्यते नाप्यनात्मवान।।                 स्त्री और पुरूष दोनों ही प्रसाधन करते थे। स्त्रियों में नख से लेकर सिर तक प्रसाधन का प्रचलन था। पुरूषों में भी प्रसाधन-प्रियता पायी जाती है। सौन्दर्य- प्रसाधन दन्तधावन से आरम्भ होती है। पुरूष के लिए दाढ़ी-मूंछ और केश पूर्ण रूप से मुण्डन करने या कटवाने या स्वतंत्र रूप से बढ़ने की छूट रही है। स्त्रियाँ भी सिर के बाल कटा सकती थी। पुरूष भी फैशन के अनुरूप काट-छाँट कर सकता था। बृहत्संहिता से ज्ञात होता है कि दाढ़ी अनेक रंगों में रँगी जाती थी। केश- विन्यासः                 स्नान के बाद केश को सुखाकर उसे सुगन्धित किया जाता था। सिन्धु-सभ्यता के समय से ही सौन्दर्य-संवर्धन के लिए केश-प्रसाधन का प्रचलन था। उस समय बाल पीछे की ओर जूड़े या चोटी के रूप में गंूथे जाते थे। बाल बाधने के लिए सूत के धागे का प्रयोग होता था। कंघियों का प्रयोग केश की सफाई और सजावट के लिए होता था। केश के बीच से माँग निकालने का प्रचलन रहा है। तेल के द्वारा केश को सुगन्धित किया जाता था। वैदिक काल में लोगों को केश प्रसाधन में अभिरूचि थी। उस समय साही के काँटे से सीमन्त बनाने का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य में कंघी के लिए कंकत शब्द का प्रयोग मिलता है। स्त्री और पुरूष दोनों केश को गंूथ कर ओपश(चोटी) बना लेते थे। कुछ लोग बनावटी चोटी लगाते थे। चैड़ी चोटियों को पृथुष्टुका और शिथिल चोटियों को विपितष्टुका कहा जाता था। सिर पर जूड़ा बनाने की रीति थी। पुरूष और स्त्री सिर के विभिन्न भागों में कपर्द बनाते थे। केश-विन्याश की विविधता रही है। केश-विन्यास की विविधताः                 भारत एक विशाल देश है। अतः केश-विन्यास की विविधता भी स्वाभाविक है। नाट्यशास्त्र में कहा गया है कि ‘‘अवन्ति की स्त्रियों के केश में अलक और कुन्तल की विशेषता होती है। गौड़ देश की स्त्रियाँ अलक, शिखा, पाश टौर वेणियाँ बनाती हैं। आभीर देश की स्त्रियाँ दो वेणियाँ बनाती हैं। इनके केश- शिखण्डक क्रमशः ऊँचे रहते हैं। प्रोषितपतिका स्त्रियाँ केवल एक वेणी बनाती हैं।’’                 केशों के लिए जैन साहित्य में अलक, कबरी, केश, कुन्तल आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। सुगन्धित जल से स्नान के बाद केश को धूप में सुखाया जाता था, फिर तेल आदि द्वारा केशों को संवार कर बाँधा जाता था। केश-प्रसाधन में पल्लव, विभिन्न प्रकार के पुष्प, पुष्पपराग, पुष्प-माला, मंजरी एवं सिन्दूर आदि का प्रयोग किया जाता था। महाकवि कालिदास ने अपने रघुवंश महाकाव्य में धूप से सुगन्धित केश को ‘धूपवास’ और धूपित केश को ‘आश्यान’ वर्णित किया है। मेघदूत में केश को सुगन्धित करने की विधि को ‘केश-संस्कार’ कहा गया है। जैन महापुराण में वर्णित है कि सफेद बाल वाले लोग बालों में हरिद्रार (खिजाब) लगाते थे। इससे ज्ञात होता है कि सफेद बाल को खिजाब द्वारा काला करने की परम्परा पहले से चली आ रही है। वैदिक काल मे केश प्रशाधनः                 वैदिक काल में वप्ता नपित केश-कर्तन के द्वारा प्रसाधन करने के लिए नियुक्त होता था। राजकुलों के लिए नाई नियुक्त होते थे, जो राजाओं, रानियों, राजकुमारों तथा राजकुमारियों के बाल काटते थे और केश सुधारते थे। यदि कहीं केशों में से कुछ सफेद हो जाते थे तो उनको काला किया जाता था अथवा उखड़वा दिया जाता था। दाढ़ी को काँट-छाँट कर नाई उसे बार-बार सुन्दर बनाते थे। कुछ स्त्रियाँ आगे के बालों को घुँघराले बनवाती थी। उनको ‘प्रागुल्फा’ कहा जाता था।                 ऋक्संहिता में ‘शिखा’ शब्द का व्यवहार हुआ है और ब्राह्मणग्रन्थों में शिखा-सूत्र वाले ऋषियों का वर्णन मिलता है। वैदिक सोलह संस्कारों में उपनयन की तरह चूड़ाकरण भी एक संस्कार है। इससे सिद्ध होता है कि इसका कोई निश्चित और अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्य अवश्य था। इससे यह भी सिद्ध होता है कि यह संस्कार अत्यन्त प्राचीन है। दैनिक कत्र्तव्यों में स्नान के बाद अथवा जब शिखा खुली हुई, तो गायत्री मंत्र द्वारा इसमें ग्रन्थि देना आवश्यक कत्र्तव्य है। शिखा खुली रखकर इधर-उधर घूमना मना है बौर यह गर्हित तथा प्रायश्चितीय कर्म समझा जाता है। जिस पंकार प्रासादपुरूष परमपुरूष की कल्पित प्रतिकृति के अनुरूप है, उसी प्रकार मानव-शरीर भी

Accient History

प्राचीन भारत में सिंचाई व्यवस्था एवं जल- प्रबन्धन(Irrigation And Water Managment In Ancient India) (प्रारम्भ से लेकर मौर्य काल तक) (From Early To Mauryan Period)

मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के साथ उसके सामाजिक ढाँचें में भी परिवर्तन होता रहता है। इसी विकास-क्रम में हमें सभ्य समाज की रचना देखने को मिलती है।मानव मस्तिष्क विचारों का केन्द्र है। वह सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ अपने विचारों में परिवर्तन जाता है। विचारों के माध्यम से ही मानव-चेतना आगे बढ़ती है। वह आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक भावनाओं को साकार तथा क्रियाशील बनाती और सिद्धान्त रूप में परिणत करती है। सैन्धव सभ्यता में जल-प्रबन्धनः                 सैन्धव घाटी की अन्नोत्पादन की प्रक्रिया में सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियों का योगदान रहा। ताम्रपाषाणिक प्रथम नगरीय क्रान्ति में नदियों की वही भूमिका थी, जो कि छठी सदी ई0पू0 की द्वितीय नगरीय क्रान्ति में लोहे की। उत्तर में रावी नदी के बायें तट पर हड़प्पा तथा दक्षिण में सिन्धु नदी के दाहिने तट पर स्थित मोहनजोदड़ो नदियों की ही देन थे। सिन्धु-सभ्यता के युग में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के उपवर्ती प्रदेशों में कृषि होती थी। उसके लिये सिन्धु नदी का जल सिंचाई के काम में आता था। लगभग उसी युग में बलूचिस्तान में पत्थर के बने बाँधों के द्वारा नदियों का पानी रोककर सिंचाई करने की व्यवस्था थी। मश्काई घाटी में दो बाँध मिले हैं। इनके द्वारा ऊपर के पर्वत से आता हुआ पानी अभीष्ट दिशा में बहाया जाकर इकट्ठा किया जाता था और समयानुसार उससे सिचाई की जाती थी।                 वास्तव में अन्नोत्पादन के लिये सिन्धु घाटी के लोग तीसरी सहस्त्राब्दि में दो प्रकार की प्रक्रिया पर निर्भर दिखाई देते हैं। प्रथम, सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों पर बन्धों का निर्माण, द्वितीय बाढ़ के समय नदी जल के फैलाव को तथा वर्षा के जल को खेतों के चारों ओर ऊँची-ऊँची मेड़ बना कर संचित कर लेना। डी0 डी0 कोसाम्बी ने प्रथम पद्धति को विशेष महत्त्व दिया है और कहा है कि सिन्धु की सहायक नदियों पर बन्धों को निर्मित कर देने से नदी का जल तथा उसके साथ लाई गई उपजाऊ मिट्टी भी दोनों तरफ फैल जाती थी। इस मिट्टी को नुकीले यन्त्र से धुरच कर बीज डाल दिया जाता था। किन्तु इस प्रक्रिया से होने वाली पैदावार उस उपज की अपेक्षा कम होती थी जो कि विकसित तरीके के हल से जोती गयी भूमि तथा नहरों से की गयी सिंचाई से प्राप्त होती है।                 यदि आज इन बन्धों के अवशेष नहीं मिलते हैं, तो इसका कारण आर्यो द्वारा इनको विनष्ट करना है। डी0डी0 कोसाम्बी ने इस सम्बन्ध में ऋग्वेद से स्पष्ट तथा असन्दिग्ध उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने ऋग्वेद में प्रयुक्त ‘वृत्र’ तथा ‘रोधस’ शब्दों का उल्लेख किया है, जिनका अर्थ वास्तव में बाँध या अवरोध होता है। इन्द्र ने अपने बज्र से ‘वृत्र’ का बध कर नदियों के जल को मुक्त किया और यह जल सूखी भूमि पर चारों ओर फैल गया। बन्धे के अर्थ में वृत्र शब्द का प्रयोग ऋग्चेद में अन्यत्र भी हुआ है। ‘रोध’ शब्द भी मनुष्यकृत बन्धे के अर्थ में ऋग्वेद में प्रयुक्त मिलता है। जैसे- ‘रिणग्रोधाँसि कृत्रिमाण्येषां’। बन्धों के अतिरिक्त खेतों के चारों ओर मेड़ बना कर वर्षा ऋतु में जल को संचित कर उसमें खरीफ की खेती भी यहाँ के निवासी करते रहे होगें। इस प्रकार की खेती नदियों के किनारे ही सम्भव होती होगी। वैदिक काल में जलाशयः                 वैदिक साहित्य के अनुसार आर्य- कृषकों की सिंचाई प्रधानता कुओं से उसी प्रकार होती थी, जैसे आजकल होती है। तत्कालीन कुओं के नाम ‘अवत’ और ‘उत्स’ मिलते हैं। जल चक्र से निकाला जाता था। उस चक्र से वरत्रा (रस्सी) सम्बद्ध होता था और वरत्रा से कोश लगाारहता था। लकड़ी के कुण्ड से आहाव में जल डाला जाता था। जल को सुर्मी या सुषिरा(नाली) से खेतों तक पहुँचाया जाता था। कुल्या नहरों के समान थीं, जिससे जलाशयों में पानी इकट्ठा किया जाता था।                                                 शं न आपो धन्वन्या शमु सन्त्व नूप्याः।                                                 शं न खनित्रिमा आपः  शमु या कुम्भं,                                                 आ मृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।           अथर्ववेद में वर्णित जल के उपर्युक्त स्रोत एवं उसके महत्व से वैदिक कालीन भारतीय कृषक पूर्णतः परिचित थे। उपर्युक्त विरिण सिंचाई के साथ जल की विविधता का भी परिचायक है। यथा, एक कृषि वर्षा द्वारा, दूसरी नहरों के जल से और तीसरी कृषि हिम-पर्वतों के पिघले हुये बर्फ जल से सम्पन्न होती थी। नदी आदि के जल की प्रसिद्धि थी ही। ऋग्वेद में भी चार प्रकार के जल  का उल्लेख हुआ है:- 1.            दिव्य जल -यह वर्षा जल, विशेष कर स्वाति नक्षत्र में बरसे हुए जल का नाम है। 2.            स्त्रवणशील जल- ये नदियों में होते हैं। 3.            खनित्रिमा जल- यह खोदे हुए कूप या बावड़ी का जल है। 4.            स्वयंजा जल- यह पर्वतीय निर्झर-जल है। अथर्ववेद में भी इनका उल्लेख मिलता है। ये सभी प्रकार के जल कृषि कार्य के लिए उपयोगी बताए गए हैं। वैदिक काल में सिंचाई के मुख्यतः दो साधन थे- 1.प्राकृतिक, और 2. कृत्रिम। प्राकृतिक सिंचाई नदी, झील, झरना और वर्षा जैसे स्वाभाविक जल स्रोतों द्वारा होती थी और कृत्रिम सिंचाई कुँआ, नहर, जलाशय आदि कृत्रिम जल स्रोतों द्वारा होती थी।   महाकाव्य युग में सिंचाई व्यवस्थाः रामायण और महाभारत के युग से सिंचाई के लिए जलाशयों का प्रचलन विशेष रूप से बढ़ा। इसके पहले के युग में प्रायः लोग नदियों के तट पर रहा करते थे और उनको सिंचाई के लिय नहरों का पानी पर्याप्त होता था, पर नदियों से दूर के प्रदेशों में जलाशय के जल से सिंचाई की सर्वोत्तम व्यवस्था हो सकती थी। जलाशय दो प्रकार के होते थे- प्राकृतिक नालों को बाँधकर अथवा भूमि को खोदकर बनाये हुए। महाभारत के अनुसार कृषि वर्षा के अधीन नहीं छोड़ी जानी चाहिए। महाभारत कालीन तड़ागों के चारों ओर वृक्ष आरोपित होते थे। कई तालाबों में केवल वर्षा में जल रहता था। बड़े तालाबों में चर्ष भर जल पूरा रहता था। सिंचाई के लिए कभी-कभी गाँव के सभी लोग सम्मिलित होकर बाँध बनवाते थे। पूरा गाँव उसमें धन लगाता था और प्रत्येक के लिए आवश्यक था कि वह स्वयं काम में जुटे। यदि कोई स्वयं नहीं जाता था तो उसे व्यय में तो भागीदार होना पड़ता था, पर लाभ में उसे कोई भाग नहीं मिलता था। खेती के लिए बीस हल से जोती जाने योग्य भूमि पर एक कुआँ बनाने का विधान था। सिंचाई करने योग्य भूमि में अनेक जलाशय ऊपर- नीचे

Medieval History

Village Crafts in Early Medieval India

The general term for village in India is grama, derived from the coot gras(to swallow, or to eat). Sometimes it is derived from the root gam (to go) as well. Although it has come to siginify generally anumber of residential houses clustered together at a place, yet it cannot be denied that it means something more. According to the Markandeya Purana grama is a habitat in the centre of land fit for cultivation. This show that a village must have cultivable land all around it. A large number of land grants also indicate that in addition to the habitat, the area of a village comprised cultivable, uncultivable, high, low, watery, dry, forest and grassy land. According to PV Kane that “grama ordinarily meant a village in the modern sense and included several hundred acres of lands.’’ H.S.Maine points out that an Indian village was divided into three parts like the district of the ancient Teutonic cultivating community in Germany- the village itself which was the cluster of residential houses, the arable mark or the cultivated area, and the common mark of the village waste. Thus a village in India consisted of the inhabited part as well as all kinds of land attached to it. Village crafts- Pot-making:       Our sources refer to some important village crafts, such as pot making, wood work, iron work, oil pressing, weaving, basket-making, milk churning, salt making, paddy pounding,etc. The Harsacharita speaks of servel kinds of water-pot, namely, karkari, sikatilakalasi, alinjara,udkumbhan and a type of plate called sarava used at the drinking inns(prapa) of a sylan village in U.P. The same work mentions water-jars uplifted by the old village elders in honour of the king marching with his army through the countryside in a part of U.P. It again speaks of a ceremonial water-pot with a mango spray on its mouth placed in the courtyard of the house of Bana in village Pritikuta in western Bihar. Govardhanacarya describes the churning of milk and crud in earthen pots. Drona, used as land or corn measure, was also perhaps an earthen vessel. Moreover, poor villagers may have used earthen vessels for boiling  rice, milk, etc; and for storing molasses and grain. Thus a large number of earthen pots were in use in village. Hiuen Tsang clearly states that utensils used in households were mostly earthenware and a few of brass. All these pots for various purpose appear to be the work of village potters, whose chief instrument for moulding pots was a wheel. Wood-work-       A large number of wooden articles were also used by the villagers, plough and harrow, mortar and pestle, bullock-cart, and oil press –all were made of wood as now. The Harsacarita refers to wooden frames (kasthamancika) for keeping water-jars at the inns; and the Krsiparasara speaks of a wooden measure called Adhaka for measureing paddy perhaps the sugar-press was also made of wood. All these must have been the work of the village carpenters, who may have also helped the villagers in making bamboo sticks and bows, wooden posts to be fixed at the threshing floor, wooden handles for the spades and sickles, etc, wooden machine or lever for drawing water from wells for irrigating fields, and several other articles of common use. Nowadays villagers in north-eastern India generally use wooden bedstead plaited with strings( carapai or khata). The timber of sala, mango, mahua, jackfruit and palmrya, which were largely grown in north-eastern India, may have been used for all these purposes. Bamboo, khadira, banyan, silk-cotton, udumbara, gambhari, slesmataka, etc, may have been also in common use. Iron-work-       Village blacksmiths showed their skill in making agricultural implements of iron, namely, spade, hoe, sickle, axe, plough-share, etc. It is likely that they also made iron-rims and placed them on the wooden wheels of the bullock-carts. The Harascarita, referring to the blacksmiths (vyokara) of forest village, states that they burn piles of wood for getting charcoal, This shows that they used charcoal in their furnace for heating iron. A large number of gahadavala land grants refer to iron pits existing in village. This must have ensured constant supply of iron ores to the blacksmiths. Paddy- pounding-       Pounding of paddy with the help of mortar and pestle was very common in village. It seems to have been a supplementary craft practiced by the farmers and agricultural labourers. Yogesvara notes with interest the beauty of the moving arms and tinkling of the bracelets of women engaged in the act of pounding paddy; This shows that paddy-pounding was generally done by women, and that dhemki or dhemkula (pedal for husking grain) as a means of pounding paddy, etc, now much in use in north-eastern India, was not known in the early medieval times. Parching of grains-       Frying or parching of grains was also practiced on a considerable scale. Hiuen Tsang tells us that “parched grain with mustard- seed oil” was an item of “common food.’’ This seems to have been the modern muhari or mudi as called in Bengal Peasant Life. Sattu (grain- powder)-       Several references of sattu (powdered grain) indicate that barley and gram were also parched. These two varieties of grain, when parched and ground, yield very fine powder while describing the drinking inns of a sylvan village Bana refers to grain-powder consumed perhaps by the travelers and pilgrims. Yogesvara states that apoor housewife is very uneasy on looking at her saktu (sattu)  flooded with water during a heavy downpour;  and Lakhsmidhara speaks of a man who was renounced the pleasure of material life as living on powdered grain obtained as alms. Milk-churning-       Churning of milk and curd by women of the herdsman class was another craft. Hiuen Tsang  refers to ghee (clarified butter) as an item of common food, which indicates that it was produced on a large scale. The Bhattikavya speaks of the churning of milk or curd by the cowherd ladies living in the village settlements of eastern uttar Pradesh and states that the movement of the hips and the

Modern History

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की राष्ट्रवादी दृष्टि (Nationalist View of Bhartendu Harishchandra)

जिस समय भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, बड़ी ही विवशतापूर्वक अपना धर्म, अपनी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति तथा आघ्यात्मिक बल खोता जा रहा था, ठीक उसी समय भारत के साहित्यिक मंच पर एक ऐसे सितारे का अभ्युदय हुआ, जिसने भारत को धरातल से उठाकर आसमान की बुलन्दियों पर अवस्थित कर दिया। यह सितारा कोई और नहीं बल्कि बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। आपका जन्म काशी में भाद्रपद शुक्ल विक्रम संवत् 1907(1850ई0)  9सितम्बर को हुआ था।                 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का सम्पूर्ण जीवन लेखन, समर्पण और संघर्ष की अनन्त गाथा है। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के द्वारा समाजोत्थान और राष्ट्रीय जन-जागरण का महनीय कार्य किया, उस कार्य के लिए उन्होंने शस्त्र के स्थान पर लेखनी को ही एक कारगर हथियार के रूप में प्रयुक्त किया। अपने क्रान्तिकारी विचारों से सरकारी नीतियों की आलोचना अविरल रूप से जारी रखने के लिए उन्होंने छद्म रूप से राज्यभक्ति का भी प्रदर्शन किया। उनके सामने सम्पूर्ण देश की तस्वीर थी इसीलिए उनका लेखन व्यष्टि के लिए नहीं, समष्टि के हितों के लिए था। राजसी वैभव में रहकर भी वे राजसी मानसिकता से दूर रहे, सामन्तवादी वातावरण से जुड़कर भी वे सामन्तवादी प्रभाव से अछूते रहे, महाजनवादी संस्कारों में पलकर भी उनका दृष्टिकोण जनवादी रहा। व्यक्ति और राष्ट्र की चिन्ता उनके जीवन और लेखन का केन्द्र बिन्दु बना। भारतेन्दु ने जन-सामान्य के दुःख-दर्द को, अन्धी परम्पराओं को, उसके अन्धविश्वासों और दासता की गर्हित मानसिकता को साहित्य का केन्द्रीय कथ्य माना और उसे जन के साथ जोड़ा। उन्होंने पत्रकारिता को जन की समस्याओं के लिए एक नश्तर की तरह इस्तेमाल किया और साहित्य से मरहम का काम किया, सामाजिक कुरीतियों से आदमी की मुक्ति के लिए उन्होंने आवाज उठायी। विदेशी दासता से देश को मुक्त करने के लिए उनहोंने देशवासियों में राष्ट्रीयता का प्राण फूँका और अंग्रेजों की भारत-विरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया। उन्होंने समाज और स्वदेश प्रेम का मंत्र दिया तथा स्वदेशी का उद्घोष किया, अंग्रेजों के अत्याचारी रवैये की निन्दा की और अपनी रचनाओं के द्वारा उन पर तीखा प्रहार किया-                 ‘‘मरी बुलाऊँ देश उजाडूँ, मँहगा करके अन्न                  सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न                  मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानोजी।’’                 ‘‘अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी।                  पै धन विदेश चलि जात, यहै अति ख्वारी।।’’                 भारतेन्दु जी का अवतरण भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास-फलक पर ऐसे समय हुआ जब देश 1857 ई0 की आजादी की पहली लड़ाई हार चुका था और जनमानस में एक घोर निराशा व्याप्त हो गयी थी। सामाजिक रूढ़ियों, कुरीतियों, धर्मान्धता और पुर्नजन्मवाद की मानसिकता के परिणामस्वरूप देश सम्पन्न और विपन्न, ऊँच और नीच, छूत और अछूत के बीच संकुचित दायरों में बँटा हुआ था। इतिहास की एक ऐसी विषम घड़ी में वक्त की जरूरत बनकर भारतेन्दु जी पैदा हुए थे।                 इतिहास की धारा से प्रभावित होने वाले व्यकित अनेक होते हैं किन्तु उस धारा को प्रभावित करने वाला कोई एक होता है। इतिहास की धारा का अनुसरण करने वाले अनेक हो सकते हैं पर धारा को प्रवाहित करने वाला, नया मोड़ और गति पैदा करने वाला कोई एक होता है। हिन्दी साहित्य और भारतीय नव-जागरण के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का स्थान इतिहास की धारा को प्रभावित करने वाले, उसे नया मोड़ देने वाले, नयी जीवन शक्ति और ऊष्मा से अभिषिक्त करने वाले महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में ही है। उनके छोटे से जीवन की एक लम्बी कहानी है जो अतुलनीय और अकथनीय है। वे साहित्य-सेवी ही नहीं समाजसेवी भी थे, विद्यानुरागी ही नहीं कलानुरागी भी थे, वे धर्मात्मा ही नहीं धर्म और दर्शन के मीमांसक भी थे। वे समाज-सुधारक ही नहीं धार्मिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों के भी परिमार्जक थे। वे प्रेमी रसिक और कृष्णभक्त ही नहीं, राष्ट्रभक्त भी थे।

Accient History

भारत की प्रागैतिहासिक संस्कति (Prehistoric Culture of India)

मानव के उद्भव एवं विकास तथा उसकी संस्कृति तथा सभ्यता के विकास के सोपानों सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण सामग्री पृथ्वी के अन्दर छिपे हुए हैं। पुरातत्व मानवीय सांस्कृतिक प्रगति का क्रमिक इतिहास प्रस्तुत करने का माध्यम है। मानव सभ्यता के इस उत्थान एवं पतन के इतिहास को अध्ययन की दृष्टि से तीन वर्गो में वर्गीकृत किया गया है- 1-प्रागैतिहासिक काल (Pre-Historic Age) 2-आद्यैतिहासिक काल (Proto-Historic Age) 3-ऐतिहासिक काल (Historic Age) प्रागैतिहास का अर्थ एव विकास- हिन्दी भाषा का शब्द प्रागितिहास (प्राक्इतिहास) अंग्रेजी का (Prehistory) का अनुवाद है। इसे इटेलियन में प्रीइस्तोरिया(Preistoria), फ्रेंच भाषा में प्रीस्त्वायर(Prehistorie) कहा गया है। डेनियल विल्सन ने अपनी पुस्तक ‘ दी आकर्योलाजी एण्ड प्रीहिस्टारिक एनाल्स आफ स्काटलैण्ड‘ में सबसे पहले इसका प्रयोग किया। इसका शाब्दिक अर्थ इतिहास के पूर्व युग माना जाता है। प्रागैतिहासिक काल से तात्पर्य उस प्रारम्भिक काल से है, जब जीव तत्व अस्तित्व में आकर पशु-योनि एवं मानव-योनि में क्रमशः पर्दापण किया और अन्त लेखन कला के प्रारम्भिक परिचय के साथ स्वीकार किया। अतः स्पष्ट है कि प्रागैतिहासिक काल वह काल है जिससे सम्बन्धित लिखित साक्ष्यों का अभाव है। धीरेन्द्रनाथ मजूमदार महोदय अपनी पुस्तक ‘प्रागितिहास’ में लिखते हैं कि इस युग के प्रागैतिहासिक नामकरण का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि यह ऐतिहासिक काल से पहले की मानव कथा का अध्ययन प्रस्तुत करता है। प्रागैतिहासिक मानव पूर्णरूपेण असभ्य और निरक्षर था। प्रारम्भिक युग में मानव का प्रकृति के साथ संघर्ष एवं विषम परिस्थितियों पर विजय का ज्ञान हमें केवल प्रागैतिहास से ही प्राप्त होता है, क्योंकि इस काल में मानव लेखन कला से अनभिज्ञ था। ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक काल में मुख्य अन्तर के रूप में साक्षरता और लेखन कला को ही स्वीकार किया जाता है। ऐतिहासिक काल में लिपि या लेखन कला का विकास हो चुका था। प्रसिद्ध पुराविद् डा0 एच0 डी0 सांकलिया के अनुसार ‘‘ लिपि ज्ञान के पूर्व किसी क्षेत्र, देश या राष्ट्र, मानव का इतिहास ही प्रागैतिहासिक है। Prehistory means, the history of a region, a country or a nation, people or race, before it took to or knew writing. लेकिन डा0 सांकलिया महोदय का यह भी कहना है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सन्दर्भ में सर्वमान्य नहीं है। क्योंकि यदि इसे ध्यान में रखते हुए भारतीय इतिहास का काल विभाजन किया जाये तो छठीं शताब्दी ई0पू0 से पूर्व, जिसमें प्रारम्भ, जब मनुष्य अशिक्षित, बर्बर, असभ्य एवं जंगली था, से लेकर सैन्धव सभ्यता एवं वैदिक संस्कृति, तक का समय प्रागैतिहासिक काल में अन्तर्निहित हो जाता है। किन्तु यह मत समीचीन प्रतीत नहीं लगता क्योंकि विशाल वैदिक साहित्य, वेदों से लेकर उपनिषदों तक, निरक्षर व्यक्तिों की रचनायें नहीं हो सकतीं। वैदिक आर्य लेखन पद्धति से अवगत थे अथवा अनभिज्ञ, वर्तमान ज्ञान की अवस्था में इसका समुचित उत्तर देना कठिन है। वैदिक साहित्य के अन्तः साक्ष्य वैदिक काल में लेखन पद्धति की पुष्टि करते हैं, किन्तु पुरातात्विक साक्ष्यों के अभाव में स्पष्ट रूप से कुछ ज्ञात हो पाता। इसके विपरीत सैन्धव सभ्यता नगरीय सभ्यता एवं साक्षर सभ्यता  ज्ञात होती है। क्योंकि सैन्धव पुरास्थलों से प्राप्त मुहरों पर सैन्धव लिपि का अंकन स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। किन्तु अथक प्रयास के बाद भी अद्यतन पढ़ा नहीं जा सका है। ऐसी स्थिति में इस समय को प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल में रखकर आद्यैतिहासिक काल में रखा जाता है। लेकिन यदि भविष्य में होने वाले अनुसंधानों से यदि सैन्धव लिपि को पढ़ लिया जाता है तब इसे ऐतिहासिक काल में स्थान देना पडे़गा। आद्यैतिहासिक काल ऐतिहासिक काल के अति सन्निकट प्रतीत होती है। प्रागैतिहास एवं विज्ञान-    प्रागैतिहासिक काल  एवं आद्यैतिहासिक काल का मानव सभ्यता की उत्पत्ति एवं विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। क्यों कि इन्हीं कालों में मानव सभ्यता एवं संस्कृति की नींव पडी़। इसको जानने के लिए हमें विभिन्न आधुनिक विज्ञानों जैसे पुरातत्व (Archaeology) नृविज्ञान (Anthropology) भूगर्भशास्त्र (Geology) प्राणिविज्ञान (Zoology) जीवाश्मविज्ञान (Paleontology) भूगोल (Geography) आदि विषयों की मद्द लेनी पड़ती है। जिसके आधार पर ही हम पृथ्वी पर मानव के आविर्भाव एवं उसके विकास की प्रक्रिया के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। प्रागैतिहास एवं नृतत्व विज्ञान से सम्बन्ध-               नृतत्व आधुनिक विज्ञानों की श्रेणी में अपेक्षाकृत नवीन है, फिर भी इसका सम्बन्ध मानव के आकार- प्रकार आचार- विचार एवं क्रिया-कलापों के अध्ययन से है। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजुमदार के अनुसार वास्तव में प्रागैतिहास नृतत्व का वह अंग है जो उत्पत्ति के अध्ययन में रूचि रखता है। आदि मानव की कृतियों के अध्ययन द्वारा यह जैविक एवं सांस्कृतिक नृतत्व के अटूट सम्बन्ध एवं सम्बन्ध पार्थक्य को पूर्ण रूप से स्थापित करता है। साथ ही वह यह भी निश्चित करता है कि मानव जीवन श्रेणियों एवं विभागों में नहीं रहा करता है। समग्रता और बारम्बारता इसके मुख्य गुण हैं। इस प्रकार प्रागैतिहास नृतत्व की समन्विता को पुष्ट करता है।’  भूवैज्ञानिक महाकल्प-           भूतत्व वैज्ञानिकों ने मानव की प्राकृतिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए पृथ्वी का काल विभाजन पांच कल्पों (Eras) में किया है। जो इस प्रकार हैं- 1.आदिकाल(Archaeozoic) 2.प्रादि कल्प(Proterozoic) 3.पुरा कल्प  (Palaeozoic) 4.मध्य कल्प(Mesozoic) 5.नूतन कल्प(Cenozoic) कल्प को काल या वर्ग तथा काल को युग या अवस्थाओं में बाँटा गया है। ये कल्प, काल एवं युग दीर्घकाल को व्यवस्थित करने तथा उसे सुरूचि पूर्ण बनाने का मानव का प्रयास है। प्राथमिक काल (Archaeozoic) जीवों की उत्पत्ति को आधार मान कर कल्पों का वर्गीकरण किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि लगभग 2,000 वर्ष पूर्व जीवों की उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई थी। इन्हें प्रायःकीटडिम्ब कहा जाता है। पुरा कल्प (Palaeozoic) पुरा कल्प अनुमानतः 300 से 320 सहस्त्र साल पहले हुआ था। भौतात्विक कल्प के कई वर्गीकरण किये गये हैं। इसका प्रथम वर्गीकरण त्रिखण्ड काल(Cambrian) और अन्तिम गिरि काल (Permain) के नाम से जाना जाता है। सम्भवतः इसी समय बिना मेरूदण्ड (Invertebrate life)वाले जीवों की उत्पत्ति हुई। मध्य कल्प Mesozoic) मध्य कल्प लगभग 130 से 140 सहस्त्र वर्ष पहले हुआ। इसे ट्रियासिक (Triassic) जुरासिक (Jurassic) और कराटसियस (Crataceaous) नामक तीन कालों में वर्गीकृत किया जाता है। मेरूदण्ड वाले सरीसृप जीवों (Vertebrate life) की उत्पत्ति सबसे पहले इसी कल्प में हुई। नूतन कल्प(Cenozoic) मध्य कल्प के बाद नूतन कल्प या नव जीवन युग आया। मानव सभ्यता के विकास में इस कल्प का विशेष महत्व है। क्यों कि इसी कल्प में मानव प्रजातियों की उत्पत्ति हुई। आधुनिक वनस्पति जीवन एवं

Accient History

Weaker Sections : Modes, Models and their Existence

When we think of the weaker sections and their way of living we have in mind such groups as backwards of low social standing, lower levels of income, lack of literacy and occupying inferior occupational status in society. The evidence as a result of agrarian tensions, rural indebtedness, practice of bonded labour, disabilities arising out of untouchability and lack of mobility on the part of poor agricultural labourers. The liberation of the weaker sections of the society is essentially linked with their freedom from bondage to the economic system of the villages over which monopolistic control of the dominant castes and maintained the exploitative relations between feudal lords and their slaves, e.g., share croppers, bonded labourers and landless labourers, etc., who were economically, socially and educationally too weak to protest and seek alternative livelihood. Classification of Society- Above situation regarding the product of weaker sections in the society did not come at a time. It is well known that our Indian society was classified primarily, on the basis of distribution of works to enrich the society as a whole from the early Regvedic age. The Vedic concept of four varnas was a sort of division of work, only to maintain the dignity and status of the varnas on equal basis. Regveda had proclaimed the character of equality “No one is superior or inferior, All are brothers, All should strive for the interest of all and should progress collectively.” Atharvaveda articulated the minute principals of substantive equality thus: “All have equal rights in articales of food and water”. Regvedic system of chaturvarna is further referred to in Ramayana, Mahabharata, Gita and Unisadas, etc. Whatsoever the sacred notions and ideal goals of lives have been behind this chaturvarna system which was based on division of labour, was ultimately divided the labourers recognition of birth and clan inspite of virtues, abilities and good deeds. This notion gradually took momentum day by day and the fundamental human rights of labouers of our Indian society was uprooted. The king’s danda was also to be applied for the observance of to follow the directive. In their own way the eics and puranas lent support to caste norms, whose essence lay in its institutionalized unequality. The Brahamanas, the Kshtriyas and all those who could by virtue of their power, resources and positions, join the elite groups and had no role in primary productive activities, benefited from the system.  Privileged ruling elite groups were enjoying unequal wealth, power and prestige in relation to the mass of people. Literary Source- The idea of population, in relation to certain social groups, was first elaborated in Dharmasutras of Apastamba, Gautama, Baudhyana and Vasistha, then in the Smrtis of Manu, Visnu, Yajnavalkya, Narad, Brihaspati and Katyayana, etc.   Although they were the  backbone of the Indian economy and the burden of the whole society was on their shoulder but they could not get their reward to lead a happy and prosperous life equally to those of higher privileged class. Buddhist text Vinaya Pitaka   gives us clear information regarding the evolution of the caste system in Indian society. It relays the evidence that a man can criticize another man keeping in view of his caste, name, deeds, and crafts, etc. Here we find the two categories, i.e., Vena, Nisada, Rathakar and Pukkas, etc. are put in the category of lower caste and brahmanas and kshatriyas were put in the higher caste. Higher caste is supposed to be a privileged class who led a very hard life. In Apastamba Dharmasutra,  it is informed that lower varnas may get birth in higher varnas in next birth by following the principle of svadharma in previous life. Here, the team svadharma means to perform ones duty properly allotted to ones own caste. According to Arthashastra- Kautilya’s  Arthashastra also reveals that people will get heaven and everlasting happiness by following the principle of svadharma. Manusmriti states that the people will get salvation by following the svadharma (varna dharma), properly. But those who do not follow the principle of varna dharma are supposed to suffer a lot. In Apastamba Dharmasutra  it is stated that persons of higher varnas born in lower vernas in their rebirth, if they do not follow the principles  of  svadharma. In Manusmriti we find the description of the bad. Results regarding the non following of svadharma of chaturvarna. Dharmashastra’s have also given a directive to kings and monarchs to compel the people to follow their varna dharma. In Apastamba Dharmasutra, it is stated that kings had enough power to give order for punishments to their subjects who violated the principles of  svadharma. Gautama Dharmasutra also attests the same. Kautilya’s Arthashastra gives certain directives to kings and monarch to maintain the principles of svadharma amongst their subjects. Here, kings are supposed to control the traders, commerce, industries, mines,etc. and employed the blacksmiths, carpernter, potters,etc. in their deeds allotted to them. The report of the Megasthanese and Strabo also attest the same information. Keeping in view of the evidences revealed from Dharmashastras, Arthashastra and foreign records, etc.,it seems that from the beginning of the 6th century B.C. to the downfall of the Mauryan empire , large number of sudras and the weaker sections existed in the society. The number of craftsman during Mauryan period as mentioned in the Kautilya’s Arthashastra are as follows. Weavers, washerman, fisherman, ferrymen, farmers, cowherds, churner, watchman, snake catcher, magician, hunters, animal slaughterers, gold smiths, iron smiths, tailors, carpenters, tailors, chariot makers, rope makers, makers of articles of toilets, dancers, actors, singers, musicians, rope dancers, servants, female mendicants, maiden, female slaves of couresans, sweepers, dust washers, worhmen, dealers of perfumes, dealers of flowers, dealers of liquid, dealers of cooked food and grains, dealers of wine, dealers of meat, vinters, venders of cooked meat, professional story tellers, and cooks, waiters, bath-attendents, shampoors, bed preparers, toilet attendents or water server, etc. Economic Structure- The existence of occupational groups shows that the economic structure of the society was based on agriculture, arts, crafts and labour,etc. According

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