Modern History

गांधी की हत्या का रोमांच (The Thrill Of Killing Gandhi)

डॉ0 एस एन वर्मा एसोसियेट प्रोफेसर. इतिहास इसी वर्ष 2019 में शहीद दिवस पर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में गांधी के चित्र पर किसी संगठन की महिला नेता द्वारा नकली रिवोल्वर से गोली मारने और चित्र के नीचे खून की तस्वीर के साथ गोड़से अमर रहें के नारे सोशल मीडिया पर वायरल हुएद्य सरकार ने घटना के लिये जिम्मेदार लोगों के ऊपर कार्यवाही कीद्य पांच लोग गिरफ्तार भी किये गएद्य लेकिन फिर यह खबर आई गयी हो गयीए जैसा आजकल अधिकतर ख़बरों के साथ होता है द्य कुछ स्थानों पर इस  घटना के खिलाफ प्रदर्शन और भाषणबाजी की गयी और इतने तक ही कर्तव्य की इतिश्री मान ली गईद्य यह प्रतीकात्मक घटना जनमानस में पल रहे गांधी विरोध का एक उदाहरण या नमूना भर हैद्य इसी तरह का एक उदाहरण पिछली सदी के अंतिम वर्षो में भी देखने को मिला था जब प्रदीप दलवी ने श्मी नाथूराम गोडसे बोलतोयश् नामक मराठी नाटक लिखा था। इसे लेखक ने  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  का नाम दिया था और पक्ष.विपक्ष में खूब बहसए चर्चा.परिचर्चा हुईए लेकिन मूलभूत प्रश्न वहीं बना रहा कि गांधी हिन्दू जनता के विरोधी थे या नहीं। आज प्रश्न यह उनकी हत्या के 70 वर्ष बाद भी हत्या का रोमांच क्यों बना हुआ है जबकि भारत की सनातन धारा को युगधर्म से जोड़कर राष्ट्रीय जन आन्दोलन और सत्याग्रही प्रक्रिया को अधिक गतिशील बनाने का श्रेय एक मात्र गांधी को दिया जाता है। क्योंकि  गतिशीलता  स्वयं एक प्रस्थिति होती है इसलिए वहां पूर्णता की खोज उचित नहीं। इस बात पर सभी एकमत हैं कि गांधी जन आंदोलन के पायनियर थेए देखा जाय तो भारत की भौगोलिक अस्मिता को एकीकृत राजनीतिक अस्मिता दिलाने वाले प्रथम व्यक्ति गाँधी ही थे। ये वही व्यक्ति हैं जो एक संस्था बनने का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत कर पाते हैं।           इधर कुछ वर्षों में घटित घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि मानों गांधी के वध को स्वीकृति मिल रही है। योगा.योग तो ऐसा बना है कि वध निष्ठा की अमानवीय राजनीति करने वाले राष्ट्र जीवन के अधिकारी विद्वान होने का दावा करने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश की परिणति को प्राप्त भारतीय जन.मानस क्या अतीत जीवी होना चाहेगा। यदि नहीं तो उसे ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत हो निशंक भाव से आगे बढ़ना चाहिए। देखा जाय तो इतिहास कभी भी अतीत के सुधार की अपील नहीं करता। मेरे ख़याल से राजनीति को भी यही करना चाहिये। गांधी के उपर अब हमले होंए यह उनके जीवित होने का प्रमाण नहीं तो क्या हैघ् गोडसे के अनुसार ष्वह एक धार्मिक कृत्य था। जिस प्रकार कंस का वधए शिशुपाल का वध एक धर्मानुरूप कृत्य थाए उसी प्रकार गांधी का वध भी धार्मिक कृत्य है।ष् प्रदीप दलवी के नाटक का भी यही कथ्य है। थोड़ा ध्यान देकर देखेंगे तो यह धार्मिक कृत्य आदिम व्यवस्था का उदाहरण भी है। कोई भी सभ्य समाज उस समाज और कानून की पुनरावृत्ति नहीं चाहेगा। किसी के बुरे कार्य के लिये दंड की व्यवस्था मनुष्य की चुनी हुई सरकारों ने बनाई हैं। शायद इसी तर्क से गांधी के समर्थक गोडसे से बदला लेने की बात नहीं करते। गांधी स्वयं भी क्षमादान के हिमायती थे। आज के गांधीवादी भी सर झुकाकर काम में विश्वास करते हैं। लोग इस मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैए लेकिन उन्हें विचार की विचार से लड़ाई में विश्वास करना चाहिए। गोडसे ने कोई वैचारिक लड़ाई कहाँ लड़ी थीघ्               कुछ लोगों को गोडसे द्वारा प्रस्तुत बचाव.नामा एक व्यवस्थित विचार उस समय भी लगता था और आज भी। गांधी की हत्या के बाद गोडसे के पास समय था। उसने इसका उपयोग किया और अपने कृत्य को उचित ठहराने की कोशिश की। कोई भी अपराधी यही करता हैए वह अपने बचाव की हर संभव कोशिश करता हैए गोडसे ने भी यही किया। उसने जो कारण बताए उसमें गांधी को देश विभाजन कराने और इसे स्वीकार करने को प्रमुख बताया है। पाकिस्तान जिसने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था उसे उसके हिस्से के 55 करोड़ भारत सरकार से दिलवाने को दूसरा महत्वपूर्ण कारण बताया। इसे सुनकर कोई भी गांधी के ऊपर भड़क सकता है। सर्वोदय आंदोलन के वरिष्ठ चिंतक चुनी भाई वैद्य ने गांधी की हत्या के संदर्भ में गढ़े इन तर्कों का जबाब गांधी की हत्या क्या सच क्या झूठ मे दृढ़ता से दिया है। वे लिखते हैं कि गांधी की हत्या के आठ प्रयास हुए थे। इन प्रयासों में चार उस समय हुए थे जब पाकिस्तान बनने और 55 करोड़ की बात स्वप्न में भी नहीं थी। पहला प्रयास 1934 में हुआ था जब गांधी पूना नगरपालिका द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया लेकिन वे बच गए। इस घटना में नगरपालिका के मुख्य अधिकारी समेत सात लोग घायल हुए थे। उस समय तक पाकिस्तान ज्यादा से ज्यादा कवि इकबाल और छात्र रहमत की कल्पना में ही था। अतः बहुप्रचारित पाक फैक्टर हमेशा हमले का कारण नहीं था। कुछ संगठनों के कार्यकर्ताओं को गांधी के कार्यक्रम अखरते थे। अंग्रेज़ तो उनके आंदोलनों के लक्ष्य थे ही इसलिए उनकी कूट रचना और बेवजह गिरफ्तारी पर कोई संशय नही था। गांधी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 की जुलाई में हुआ थाए उस समय भी पाकिस्तान की भूमिका स्पष्ट नहीं थी। नाथूराम छूरा लेकर सामने आ गया था। सतारा जिला बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष भिसारे ने उसके हथियार को छीन लिया था। गांधी ने तुरंत गोडसे को बातचीत के लिए बुलायाए पर वह नहीं गया। तीसरा प्रयास सितंबर 1944 में तब हुआ जब गांधीए जिन्ना से वार्ता करने बम्बई जाने वाले थे। पूना का एक समूह वर्धा गया था। इनमें एक व्यक्ति थत्ते के पास से पुलिस को छूरा मिला। थत्ते का कहना था कि उसने गांधी की गाड़ी को पंचर करने के लिये छूरा रखा था। गांधी के निजी सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि उस दिन डी सी पी का फोन आया था कि प्रदर्शन के समय अनहोनी हो सकती है। पुलिस ने गांधी के निकलने के पहले ही प्रदर्शनकारियों को पकड़ लिया। इस समय भी पाकिस्तान को स्वीकार करने और 55 करोड़ की बात नहीं थी। जून 1946 में एक और प्रयास किया गया थाद्य जिस

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प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोतः विदेशी यात्रियों के विवरण (Details Of Foriegn Travellers Sources Of Knowing Ancient Indian History)

भारतीय इतिहास के निर्माण और संकलन में विदेशी विद्वानों, यात्रियों और राजदूतों का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत पर प्राचीन समय से ही भिन्न-भिन्न राजा और विदेशी आक्रमणकारी आते रहे हैं। इन विदेशी आक्रमणों के कारण भारत की राजनीति और इतिहास में समय-समय पर महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। भारत की धरती पर अनेक विदेशी यात्रियों ने अपना पाँव रखा है। इनमें से कुछ यात्री, विद्वान और दार्शनिक आक्रमणकारी सेना के साथ भारत में आये तो कुछ धार्मिक कारणों से। इतिहास लेखन में उनकी रूचि रही, इसलिए स्वाभाविक रूप से भारत का इतिहास भी लिखा गया।  स्वतन्त्र रूप से बाद के विदेशी विद्वानों ने भी अपने देश के भारत में आने वाले आक्रमणकारियों और शासकों के विषय में लिखा तो भारतीय इतिहास पुनः संग्रहीत हुआ। विदेशी दार्शनिक, सन्त और विद्वान भी स्वतन्त्र रूप से भारत आये और भ्रमण किया, यहाँ रहे तो उन्होंने भी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का रोचक इतिहास समय- समय पर लिखा। इन विदेशी यात्रियों के विवरणों से भारतीय इतिहास की अमूल्य जानकारी प्राप्त होती है। कई विदेशी यात्रियों एवं लेखकों ने स्वयं भारत की यात्रा करके या लोगों से सुनकर भारतीय संस्कृति से संबंधित ग्रंथों का प्रणयन किया है। विभिन्न राजाओं के भेजे हुए राजदूत भी यहाँ भारतीय शासकों के समय में आते रहे और कई वर्षों तक भारत में रह कर भारतीय इतिहास का संकलन किया। यद्यपि ये ग्रंथ पूर्णतया प्रमाणिक नहीं हैं, फिर भी इन ग्रंथों से भारतीय इतिहास-निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भारतीय इतिहास की जो जानकारी मिलती है, उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है-1. यूनानी-रोमन लेखक, 2. चीनी लेखक और 3. अरबी लेखक। यूनानी-रोमन लेखक: यूनानी-रोमन विद्वानों एवं लेखकों की भारतीय इतिहास लेखन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्राचीन काल से ही यूनानी लेखक यहाँ आते रहे और उन्होंने यहाँ के इतिहास लेखन में विशेष रूचि ली। बाद के यूनानी लेखकों ने भी पूर्ववर्ती लेखकों के उदाहरणों के आधार पर इतिहास लिखा, जो इतिहास की गुत्थियां सुलझाने में सहायक सिद्ध हुई। यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण सिकंदर के पूर्व, उसके समकालीन तथा उसके पश्चात् की परिस्थितियों से संबंधित हैं। इसलिए इनको तीन वर्गों में बांटा जा सकता है- सिकंदर के पूर्व के यूनानी लेखक, सिकंदर के समकालीन यूनानी लेखक, सिकंदर के बाद के लेखक।                 स्काइलेक्स पहला यूनानी सैनिक था जिसने सिंधु नदी का पता लगाने के लिए अपने स्वामी डेरियस प्रथम के आदेश से सर्वप्रथम भारत की भूमि पर कदम रखा था। इसके विवरण से पता चलता है कि भारतीय समाज में उच्चकुलीन जनों का काफी सम्मान था। इसके भौगोलिक ज्ञान को बाद के अन्य विद्वानों ने अपने विवरण में उल्लेख किया है। हेकेटिअस मिलेटस दूसरा यूनानी लेखक था जिसने भारत और विदेशों के बीच कायम हुए राजनीतिक संबंधों की चर्चा की है। छठीं शताब्दी ईसा के उत्तरार्द्ध में हिकेटिअस सिन्धु प्रदेश में आया। इसने पारसीकों के विवरणों के आधार पर और स्वयं के ज्ञान से सिन्धु प्रदेश के भूगोल के विषय में विस्तार से लिखा। ईरानी सम्राट जेरेक्सस के वैद्य टेसियस ने सिकंदर के पूर्व के भारतीय समाज के संगठन, रीति-रिवाज, रहन-सहन इत्यादि का वर्णन किया है। किंतु इसके विवरण अधिकांशतः कल्पना-प्रधान और असत्य हैं। हेरोडोटस, जिसे ‘इतिहास का जनक’ कहा जाता है, ने 5वीं शताब्दी ई.पू. में ‘हिस्टोरिका’ नामक पुस्तक की रचना की थी। भारत की उत्तर-पश्चिमी जातियों के विषय में हमें जानकारी प्राप्त होती है। हेराडोटस की पुस्तक से भारत और फारस के संबंधों का वर्णन है। यद्यपि हेरोडोटस भारत की यात्रा नहीं की थी। केसिअस पारसीक शासक अतरजरक्सीज का राजवैद्य था। भारतीय ज्ञान लिखने का इसका स्रोत वे व्यापारी थे जो फारस व्यापार करने के लिए जाते थे और पारसीक अधिकारियों से प्राप्त विवरण के आधार पर अपना विवरण लिखा। लेकिन इसके विवरण में अतिरंजना है।  सिकन्दर की सेना में अनेक विद्वान, लेखक, सैनिक अधिकारी और कर्मचारी थे। इन्होंने भौगालिक मार्गों, और सांस्कृतिक दशा पर अच्छा प्रकाश डाला है। भारत पर आक्रमण के समय सिकंदर के साथ आने वाले लेखकों ने भारत के संबंध में अनेक ग्रंथों की रचना की। इनमें नियार्कस, आनेसिक्रिटस, अरिस्टोबुलस, चारस, यूमेनीस आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लेखकों ने तत्कालीन भारतीय इतिहास का अपेक्षाकृत प्रमाणिक विवरण दिया है। अरिस्टोबुलस ने ‘युद्ध का इतिहास’ (हिस्ट्री आफ वार) और आनेसिक्रिटस ने ‘सिकन्दर की जीवनी’ नामक यात्रा वृतान्त लिखा है। इनके विवरण काल्पनिक अवश्य हैं परन्तु इनके विवरणों के आधार पर बाद के यूनानी लेखकों ने बहुत अधिक सहारा लिया है।  सिकन्दर के बाद से तीसरी शताब्दी ई0पू0 तक यूनानी लेखकों, विद्वानों और दार्शनिकों की एक लम्बी श्रृंखला है, जिन्होंने सिकन्दर से लेकर भारतीय इतिहास की जानकारी अपने समय तक की दी है। इससे मौर्य वंश के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है। चन्द्रगुप्त मौर्य का बहुत सा इतिहस तो हमें यूनानी विवरणों से ही प्राप्त हो जाता है। सिकंदर के बाद के यात्रियों और लेखकों में मेगस्थनीज, प्लिनी, टालमी, डायमेकस, डायोडोरस, प्लूटार्क, एरियन, कर्टियस, जस्टिन, स्ट्रैबो आदि उल्लेखनीय हैं। मेगस्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस की ओर से राजदूत के रूप में चंद्र्रगुप्त मौर्य के दरबार में करीब 14 वर्षों तक रहा। मेगस्थनीज ने भारत के सांस्कृतिक ज्ञान पर ‘इण्डिका’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यद्यपि इसकी रचना ‘इंडिका’ का मूलरूप प्राप्त नहीं है, फिर भी इसके उद्धरण अनेक यूनानी लेखकों के ग्रंथों में मिलते हैं। इन उद्धरणों को एकत्र कर डा0 स्वानवेक ने 1846ई0 में प्रकाशित करवाया, और इसका अंग्रेजी अनुवाद 1891ई0 में मैक क्रिण्डल ने किया। मेगस्थनीज ने भारत के बारे में बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी दी है। मेगस्थनीज के विवरण के अनुसार भरत वर्ष का आकार समचतुर्भुज की तरह है। उसने भारत की कुल 56 नदियों का उल्लेख किया है, जिनमें से गंगा सबसे पवित्र नदी मानी जाती है। उसके अनुसार पाटलिपुत्र नगर भारत का सबसे बड़ा नगर था। जिसकी लम्बाई और चैड़ाई क्रमशः 80 स्टेडिया (16किमी.) और 15 स्टेडिया (3किमी.) थी। उसके अनुसार भारतीय साहसी, वीर और सत्यवादी होते हैं। पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 6 समितियों द्वारा संचालित होता था।  उसने अपने विवरण में पाण्डय देश का भी उल्लेख करता है जहाँ पर पाण्डया नामक एक स्त्री शासन चलाती है। मेगस्थनीज गन्ने और कपास (सिण्डन) की खेती का भी वर्णन करता है। उसके अनुसार भारतीय समाज में

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जैन धर्मः एक अध्ययन (Jainism: A Study)

जैन धर्म भारत का प्राचीनतम् धर्म है। ‘जिन’ से जैन शब्द बना है। ‘जिन’ का शाब्दिक अर्थ है जीतने वाला, अर्थात् विजय होता है। जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर ले, राग-द्वेष, इच्छा, मानसिक विकारों, वासनाओं आदि को जीतता है, उसे ‘जिन’ कहते हैं। जैन धर्म को प्रारम्भ में निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाता था। सम्राट अशोक के लेखों में निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) शब्द प्रयुक्त मिलता है। ऋग्वेद में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि नामक दो तीर्थंकरों का वर्णन मिलता है। आदिनाथ या ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक माने जाते हैं और पहले तीर्थंकर आदिनाथ थे। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए थे। जैन तीर्थंकर को अर्हत भी कहा जाता है। तीर्थंकर का अर्थ उस निमित्त से है जो मानव को संसार रूपी भव सागर से पार उतारे। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी थे, जो जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। जैन धर्म को मानने वालों का मत है कि मोहनजोदडों से प्राप्त योगी वाली मुहर पर आदिनाथ को ही  कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित किया गया है। तीर्थंकर आदिनाथ या ऋषभनाथ का प्रतीक चिन्ह बृषभ और वृक्ष न्यग्रोध था। आदिनाथ का जन्म अयोध्या के  इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। इन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक तीन वर्णों की स्थापना कर्म के आधार पर किया था। जैन धर्म में आदिनाथ से पहले कुल 14 कुलकर हुए, ऐसी मान्यता है। जिन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में तत्कालीन समस्याओं का निदानकर समाज को एक नवीन व्यवस्था प्रदान किया। इन्हें ही मानव सभ्यता का सूत्रधार माना जाता है। इन कुलकरों को वैदिक परम्परा में ‘मनु’, जो 14 थे, के समकक्ष माना जाता है। जैन धर्म में कुल 63 महान पुरूषों की मान्यता है। इन्हें ही शलाका पुरूष भी कहा जाता है। शलाका पुरूष का तात्पर्य ऐसे पुरूषों से है, जो सभी तरह की सामाजिक व्यवस्था और वैयक्तिक जीवन उत्थान में योगदान देते हैं। इसमें 24तीर्थंकर, 12चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9नारायण, एवं 9प्रतिनारायण सम्मिलित हैं। हेमचन्द्र की रचना त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित में इनका विवरण मिलता है। 14वें कुलकर नाभिराज और मरूदेवी से आदिनाथ का जन्म हुआ। आदिनाथ की दो पत्नियों के नाम- सुनन्दा और नन्दा मिलता है। सुनन्दा से भरत और नन्दा से बाहुबली (गोम्मट या गोमतेश्वर) तथा पुत्री बम्भी (सुन्दरी) पैदा हुए। तीर्थंकर न होते हुए भी बाहुबली (गोम्मट या गोमतेश्वर) अपनी अथक त्याग और तपस्या के लिए जैनियों में तीर्थंकर की तरह मान्य हैं। आदिनाथ ने ही अहिंसा और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का प्रवर्तन किया था। जैन मान्यता के अनुसार आदिनाथ को लिपि का आविष्कार कत्र्ता माना जाता है। उन्होंने अपनी पुत्री बम्भी के नाम पर लिपि का नाम ब्राह्मी रखा था। सुन्दरी अंक विद्या में निपुण थी। जैन परत्परा के अनुसार नीलांजना नामक नर्तकी की नृत्य करते हुए जब मृत्यु हो गयी थी, इस आकस्मिक घटना से आदिनाथ को वैराग्य हो गया। आदिनाथ अपने पुत्र भरत को राजसिंहासन सौंपकर दिगम्बर रूप में कठोर तपस्या करते हुए कैलाश पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। अर्हत शब्द जैन धर्म में सामान्य रूप में होता है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। आदिनाथ के अनुसार आत्मा में ही परमात्मा का अधिष्ठान है महाभारत के शान्तिपर्व में आदिनाथ का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में आदिनाथ को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक एवं दुःखों का उन्मूलनकत्र्ता कहा गया है। बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में आदिनाथ को ‘निग्र्रन्थ तीर्थंकर’ एवं ‘आप्तदेव’ कहा गया है। बौद्धग्रन्थ धम्मपद में आदिनाथ के लिए ‘प्रवरवीर’ विरूद का प्रयोग किया गया है। मूर्तिकला में आदिनाथ का अंकन केशीरूप अर्थात् कुटिल बालों के रूप में किया गया है। इसलिए इनको ‘केशरियानाथ’ भी कहा जाता है। जैन धर्म के दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म अयोध्या में ही हुआ था। यजुर्वेद में इनका उल्लेख मिलता है। इनका प्रतीक गज माना जाता है। 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ हुए। इनका प्रतीक कलश था। श्वेताम्बरों की मान्यता थी कि मल्लिनाथ स्त्री परिव्राजिका थी। जबकि दिगम्बरों का मत था कि महिला तीर्थंकर नहीं हो सकती, इसलिए वे पुरूष थे। 21वें तीर्थंकर नेमिनाथ थे। इनका प्रतीक नीलोत्पल था। ये राजा जनक के पूर्वज बताये जाते हैं। निष्काम एवं अनासक्तिभाव का सिद्धान्त जैन धर्म में इन्हीं की देन माना जाता है। अरिष्टनेमि जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर माने जाते हैं। इनका प्रतीक शंख था। महाभारत के अनुसार ये वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे। इनका जन्म संभवतः सौराष्ट्र (गुजरात) में हुआ था। अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल मानकर उसे सैद्धान्तिक रूप देना इनकी देन है। पाश्र्वनाथ- जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ थे। पाश्र्वनाथ का जन्म महावीर स्वामी से 250वर्ष पूर्व अर्थात् 850ई0पू0 में हुआ था। इनका प्रतीक सर्प था। इनके पिता का नाम अश्वसेन था, जो बनारस के राजा थे। इनकी माता का नाम वामा था। पाश्र्वनाथ का विवाह कुशस्थल की राजकुमारी प्रभावती के साथ हुआ था।  पाश्र्वनाथ ने 30वर्ष की आयु में गृह त्याग किया था और सम्मेय या सम्मेद पर्वत पर 84दिन तक कठोर तपस्या के बाद कैवल्य या ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। सम्मेय या सम्मेद पर्वत का समीकरण पारसनाथ (बंगाल) से किया जाता है। सांसारिक माया मोह से अलग होकर उनके निर्देशों पर जो चलते थे, वे अनुयायी ‘निग्र्रन्थ’ कहलाते थे। पाश्र्वनाथ के मत को चार प्रतिज्ञायें या चार व्रत अथवा चातुर्याम कहा जाता है। चार व्रत इस प्रकार हैं-1. अहिंसा, 2. अमृषा (असत्य या झूठ न बोलना), 3. अस्तेय (चोरी न करना), 4. अपरिग्रह (सम्पत्ति का संग्रह न करना)। महावीर स्वामी ने इसमें पाँचवाँ सिद्धान्त ब्रह्मचर्य जोड़ा। जैन धर्म में इसे पंचसिक्खन कहा जाता है। जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ ने निग्रंथ सम्प्रदाय को चार संघों में बाँटा था। पाश्र्वनाथ को निर्वाण या मृत्यु सम्मेय या सम्मेद पर्वत पर हुआ था। जैन ग्रंथों में निग्रंथों को ‘पुरिसादानीय’ (महान पुरूष), ‘तीर्थंकर’ तथा ‘जिन’(विजेता) कहा गया है। महावीर स्वामी- महावीर के माता- पिता भी पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे। महावीर स्वामी का जन्म बिहार राज्य के वैशाली (बसाढ़) के समीप कुण्डग्राम में लगभग 598-99ई0पू0 चैत्र शुक्ल त्रयादशी को हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ, ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के मुखिया थे, जो वज्जि संघ का एक प्रमुख सदस्य था। इनकी माता का नाम त्रिशला था। इन्हें विदेहदत्ता और प्रियकारिणीदेवी भी कहा गया है, जो वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी। महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था। वर्धमान महावीर स्वामी के बड़े भाई का नाम नन्दिवर्द्धन और बहन का नाम सुदर्शना मिलता

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प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत(Literary Sources Of Ancient Indian History)

भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का आधार बहुत प्राचीन है। देश की सामाजिक संस्थाएँ इसी प्राचीनता के सहयोग से पल्लवित एवं पुष्पित हुई हैं। इसके विकास क्रम का इतिहास हजारों वर्षों का है जिसमें कई सामाजिक तत्वों का योगदान रहा है। अनेक बाह्य आक्रमणकारियों के अभियान के फलस्वरूप तथा विभिन्न शताब्दियों में होने वाले परिवर्तन और परिवर्द्धन भारतीय संस्कृति का अंग बन गया, लेकिन भारतीय समाज और संस्कृति का मूल आधार तत्व वही बना रहा जो प्राचीन काल में था। धार्मिक प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति का मूल आधार है जिससे मानव का सारा जीवन प्रभावित होता रहा है। मानव में प्रकृति प्रदत्त सौन्दर्य की शोभा बनाये रखने की प्रवृत्ति का विकास हुआ। भारतीय मनुष्य में सभ्य जीवन के प्रारम्भ के साथ ही ज्ञान की बात को भी मान ली गयी। इतिहास जानना मानव के लिए आवश्यक था और समाज की आवश्यकता भी इसमें सन्निहित थी। लेकिन इस महान और महत्वपूर्ण विषय को संग्रहित करने में हमारी रूचि प्राचीन काल के प्रारम्भिक काल खण्डों में बिल्कुल ही नहीं थी। यही मूल कारण है कि विशाल भारत के इतिहास को जानने के लिए ऐतिहासिक साहित्य का अभाव है। भारतवर्ष संसार के प्राचीनतम् एवं महानतम् देशों में अग्रगण्य है। ऐतिहासिक स्रोतों की दृष्टि से इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास को तीन भागों में विभाजित किया है। जिस काल के लिए कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है, जिसमें मानव का जीवन अपेक्षाकृत असभ्य था, ‘प्रागैतिहासिक काल’ कहलाता है। उस काल को इतिहासकारों ने ‘ऐतिहासिक काल’ कहा है जिसके लिए लिखित साधन उपलब्ध हैं और जिसमें मानव सभ्य बन गया था। प्राचीन भारत में एक ऐसा भी काल था जिसके लिए लेखन कला के प्रमाण तो हैं, किंतु या तो वे अपुष्ट हैं या फिर इनकी गूढ़ लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। इस काल को ‘आद्य इतिहास’ कहा गया है। हड़प्पा की संस्कृति और वैदिककालीन संस्कृति की गणना ‘आद्य इतिहास’ में ही की जाती है। इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के पूर्व का भारत का इतिहास ‘प्रागैतिहास’ और लगभग 600 ई.पू. के बाद का इतिहास ‘इतिहास’ कहलाता है। इतिहासकार एक वैज्ञानिक की तरह उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री का अध्ययन एवं समीक्षा कर अतीत का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए शुद्ध ऐतिहासिक सामग्री अन्य देशों की तुलना में बहुत कम उपलब्ध है। भारत में यूनान के हेरोडोटस या रोम के लिवी जैसे इतिहास-लेखक नहीं हुए, इसलिए पाश्चात्य मनीषियों ने यह प्रवाद फैलाया कि भारतवर्ष में वहाँ के जन-जीवन की झांकी प्रस्तुत करने वाले इतिहास का पूर्णतया अभाव है क्योंकि प्राचीन भारतीयों की इतिहास की संकल्पना ठीक नहीं थी। फलीट की मान्यता है कि -‘प्रश्न उठता है कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास रचना की शक्ति थी भी अथवा नहीं।’ निःसंदेह, प्राचीन भारतीयों की इतिहास की संकल्पना आधुनिक इतिहासकारों की इतिहास से भिन्न थी। आधुनिक इतिहासकार जहाँ घटनाओं में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने का प्रयास करता है, वहीं भारतीय इतिहासकारों ने केवल उन्हीं घटनाओं का वर्णन किया है जिनसे जन-साधारण को कुछ शिक्षा मिल सके। महाभारत में भारतीयों की इतिहास-विषयक संकल्पना पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि ‘ऐसी प्राचीन रूचिकर कथा जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा मिल सके, ‘इतिहास’ कहलाती है।’ यही कारण है कि प्राचीन भारत का इतिहास राजनीतिक कम और सांस्कृतिक अधिक है। यद्यपि भारतीय समाज के निर्माण में धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, किंतु अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारण भी थे जिन्होंने भारत में अनेक आंदोलनों, संस्थाओं और विचारधाराओं को जन्म दिया। प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों को मुख्यतया दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैं- 1. साहित्यिक स्रोत 2. पुरातात्त्विक स्रोत 1. साहित्यिक स्रोतः                 साहित्यिक स्रोत के अंतर्गत साहित्यिक ग्रंथों से प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों की समीक्षा की जाती है। ब्राह्मण और बौद्ध-जैन ग्रंथों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक बुद्धि पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थी। कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि ‘योग्य और सराहनीय इतिहासकार वही है जिसका अतीत कालीन घटनाओं का वर्णन न्यायाधीश के समान आवेश, पूर्वाग्रह व पक्षपात से मुक्त है।’ चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि भारत के प्रत्येक प्रदेश में राजकीय अधिकारी प्रमुख घटनाओं को लिखते थे। भारत के प्राचीन साहित्यिक ग्रंथों से प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में पर्याप्त ज्ञान होता है। इन साहित्यिक स्रोतों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-                 (क) धार्मिक साहित्य                 (ख) धर्मेत्तर (लौकिक) साहित्य                 (ग) विदेशी यात्रियों के विवरण (क) धार्मिक साहित्य                 धार्मिक साहित्य को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- 1. ब्राह्मण साहित्य, 2. बौद्ध साहित्य और 3. जैन साहित्य। ब्राह्मण साहित्य वेद: वैदिक ग्रन्थ के अन्तर्गत चारों वेद, ब्राह्मण साहित्य, वेदांग, अरण्यक एवं उपनिषद आते हैं। वेद आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेद चार हैं-1.ऋग्वेद 2.सामवेद 3.यजुर्वेद 4.अथर्ववेद। वेद अपौरूषेय हैं। वेदों के संकलनकत्र्ता महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास को माना जाता है। वेद विद् धातु से बना है। जिसका अर्थ ज्ञान है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है क्योंकि इन्हें गुरू-शिष्य परम्परा के अनुसार कंठस्थ किया जाता था। वेदों को आर्यों का ज्ञानराशि कहा गया है। इन्हें संहिता भी कहा जाता है। वेदत्रयी के अन्तर्गत ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद आते हैं।          ब्राह्मण साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन व महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ऋग्वेद है। इस ग्रंथ से प्राचीन आर्यों के धार्मिक सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर अधिक और राजनीतिक जीवन पर अपेक्षाकृत कम प्रकाश पड़ता है। इसमें 10 मण्डल और 1028 सूक्त हैं। पहला एव अन्तिम मण्डल बाद में जोड़ा गया। दूसरा और सातवाँ मण्डल सबसे प्राचीन हैं। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरूष सूक्त में सर्वप्रथम चारों वर्णों का उल्लेख मिलता है।ऋग्वेद में केवल एक राजनीतिक घटना दासराज्ञ युद्ध को छोड़कर किसी अन्य का उल्लेख नहीं मिलता। उत्तरवैदिक कालीन (लगभग 1000-600 ई.पू.) आर्यों के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने के लिए यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद संहिताओं का उपयोग किया जाता है। यजुर्वेद और सामवेद के अधिकतर मंत्रा ऋग्वेद से ही लिये गये हैं, इसलिए अथर्ववेद अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद में आर्य-अनार्य संस्कृति के सम्मिश्रण का संकेत मिलता है। वैदिक परंपरा वेदों को अपौरुषेय अर्थात् दैवकृत मानती है जिसके संकलनकर्ता कृष्ण द्वैपायन माने जाते हैं। वेदों से आर्यों के प्रसार, पारस्परिक युद्ध, अनार्यों, दासों और दस्युओं से उनके निरंतर संघर्ष तथा

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The Environmental Awareness in Vedic Literature

Human beings find expression, fulfillment and meaning of life, in relation to the environment in which they live. With the advent of modern civilization, development and industrial growth, man has developed a rivalry with nature. The oldest and simplest form of nature-worship and environmental awareness finds expression in Vedic texts. The Vedas are the oldest monumental scriptures and represent fountain of wisdom and knowledge. “The Vedas, in fact, is the oldest book in which we can study the first beginning of our language and of everything which is imbodied in all the languages under the sun.” These are four in number –Rigveda, Samaveda, Yajurveda and Atharvaveda. The other ancient scriptures include – Brahmans, Upanishads, Smritis, Samhitas, Aranyaks, Purans, etc. The Environment (Protection) Act, 1986 defines “Environment includes water air and land and the inter-relationship which exists among and between water, air and land and human being, other living creatures, plants, micro organisms and property.” Every living and non-living body is made up five basic, gross elements of Nature, called ‘Panchamahabhuta.’ The substance capacity in the five basic elements (Bhutas) manifests in the following order – Ether or Space or Firmament (Akash), Air (Vayu), Energy or Fire(Tej or Agni), Water (Aapah) and Earth (Prithivi). The nature has maintained a status of balance between and among these constituents or elements and living creatures. Any change or disturbance in the natural balance causes lots of problems to the living creatures in the universe.       The Indian saints, sages and seers of ancient times were great visionaries who perceived the creation of universe in a scientific manner and revealed the mysteries of cosmic evolution with profound wisdom and theories which were, perhaps, too advanced at that time for the world to understand. The ancient scriptures present in great detail, inter alia, the evolution of earth, the science of rainfall, its measurement and forecast, climatology, meteorology, hydrology, water use and management, environmental protection and agricultural planning etc.       It is interesting to know that the utmost reverences for the entities of nature were regarded as deities (Devata). All those forces that were facilitators of rains like Sun (also known as Aditya), wind, etc. were prayed as gods. A deity was also assigned to each of the main cosmic element. Indra is most powerful God who kills Vritra, the symbol of cloud to free water. Maruts are considered Gods of winds and Aryaman, Mitra, Varuna and Soma are the facilitators of water. Aditi is praised as Devamata, the mother of all natural energies and she symbolizes the nature. Fire (Agni) was also regarded as a God. Vedic cosmology:       In Vedic cosmology, the earth (Prithivi) symbolises material base and the upper sky or heaven (Dyaus) symbolizes the unmanifested immortal source which together and between them, provide the environment (paryavaran). Heaven and Earth (Dyavaprithivi) are referred to as mother and father providing water and food to all living beings. The seer praises the Heaven and Earth (Dyavaprithivi) by saying “You are surrounded,  Heaven and Earth, by water, you are the asylum for water; imbued with water, the augmenters of water, vast and manifold; you are the first propitiated in the sacrifice, the pious (people) pray to you for happiness, that the sacrifice (may be celebrated). May Heaven and Earth, the effusers of water, the milkers of water, dischargers of the functions of water, divinities, the promoters of sacrifice, the bestowers of wealth, of renown, of food, of male posterity, combine together”. Bhumisukta or Prithivisukta indicates the environmental consciousness of Vedic seers. She is called Vasudha, Hiranyavaksha, Jagato Neveshani and Visvambhara. “If atmosphere, earth, and sky and if father and mother we have injured, may this house-holder’s Fire lead us from that to the world of their perfectly restored state. May mother earth, Aditi our birthplace, brother atmosphere (save) us from imprecation; may our father heaven be weal to us from paternal (guilt); having gone to my relatives, let me not fall down from their world.” Water in the Vedic literature:       Water has been highly respected and treated with great reverences in the Vedic literature and has been prayed to grant men procreative power. Water is a part of human environment which occurs in five forms: Rain water (Divyah), Natural spring (Sravanti) Wells and canals (Khanitrimah), Lakes (Svayamjah) and Rivers (Samudrarthah). There are some other classifications as Drinking water; medicinal water and stable water are also in Vedic literatures. It mentions- “All creatures are born from the waters.” Waters have been considered as mostly “motherless, and the producers of all that is stationary and all that moves”. They are also hailed as mothers of all beings. “It is the waters which pervade everything, big or small, the earth, the atmosphere, the heaven, the mountains, gods, men, animals, birds, grass, plants, dogs, worms, insects, ants. All these (worldly manifestations) are waters indeed.” “They are the foundations of all in the universe.” “They are a place of abode for all the gods.” Taittariya Upanishad says: “From the Self, verily, space arose, from space air, from air fire, from fire water, from water the earth, from the earth herbs, from herbs food, from food semen, from semen the person.” Importance Of Water To Living Being:       The importance of water to living being was always understood and has been stated by the Vedic seers as: “Water is like a mother to this world. It is the sovereign of the world. It holds divine wealth, immorality, pious deeds in its possession for the welfare of the living beings.” “Water is the basis of all that is good in life. The most beautiful things happen to us because water provides us with vigor.” The same mantra is in Atharvaveda and is repeated in our rituals performed even today. “Water exercises maximum control over the living beings on earth.” The rivers, worshipped like goddesses, were considered to be holy and the waters in them were described as life sustaining, medicinal, as ambrosia, cleanser of sins and were regarded as divine, protectors and

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अभिव्यक्ति का सम्यक् माध्यम स्याद्वाद: एक विश्लेषण(An Analysis Of The Right Medium Of Expression)

सृजन शक्ति मानव का सबसे बड़ा गुण है। प्राचीन भारत में सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने मानव के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयास किया । आध्यात्मिक उन्नति के लिए सभी का प्रयास आदर योग्य रहा। जैन आचार्यों और मुनियों ने अपनी सृजन की साधना से मनुष्य की सृजनात्मकता को समृद्ध किया। ‘जिन धर्म’ अर्थात् जैन धर्म का आगमन भारत की पवित्र भूमि पर समस्त विश्व के मानव का कल्याण करने के लिए हुआ था। इस धर्म को जैन दर्शन में अनादि एवं अनन्त माना गया है। जैन धर्म किसी व्यक्ति या तीर्थंकर अथवा अवतार या किसी विशेष विचार या सिद्धान्त के नाम पर संकीर्ण और सम्प्रदायवादी नहीं है। जैन धर्म बहु कल्याण करने वाला धर्म है। सप्तभंगी नय:                 जैन दर्शन में सात नय हैं, जिन्हें सप्तभंगी नय अथवा स्याद्वाद या अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। यह तीर्थंकर महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित एक महत्वपूर्ण दार्शनिक एवं तार्किक सिद्धान्त है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक हैं। अभिव्यक्ति के द्वारा हम वस्तु के किसी एक ही गुण का वर्णन  एक समय में कर सकते हैं। इसलिए यह एकांगी विचार हो सकता है। अतः हमें चाहिए कि जब हम अपने गुण या अंश का वर्णन करें तब हमें अन्य गुणों या विचारों के अस्तित्व की स्वीकृति जरूरी है। जैन दर्शन में इसे ही स्याद्वाद कहा गया है। यह दर्शन मानकर चलता हैकि दुनिया के अनेक रूप, पक्ष और गुण हैं और मनुष्य उसके किसी एक रूप, पक्ष और गुण को ही ग्रहण कर सकता है। अतः उसका दृष्टिकोण या नय आंशिक और एक पक्षीय होता है।    स्याद्वाद का अर्थ: स्याद्वाद दो शब्दों के योग से बना है-स्यात् एवं वाद। स्यात् का अर्थ है शायद अथार्त् पूर्व में कहा गया है, उस प्रकार का दृष्टिकोण और वाद का तात्पर्य सिद्धान्त। अतः स्याद्वाद वह सिद्धान्त है जो अपेक्षा को लेकर चलता है और भिन्न-भिन्न विचारों का समन्वय करता है। अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद या कदाचितवाद, स्याद्वाद सभी का एक ही अर्थ है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में अन्तर केवल इतना है कि अनेकान्तवाद एक विचार का माध्यम है जबकि स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का साधन है। इस कारण स्याद्वाद को संशयवाद मान लिया जाता है। किन्तु भगवान् महावीर ने जिस प्रकार इसका प्रतिपादन किया, वह संशय एवं सन्देह को दूर करने का माध्यम है। जैन दर्शन में ‘स्यात्’ किसी पदार्थ के समस्त सम्भावित सापेक्ष मूल्यों एवं धर्मों का एक-एक रूप में अपेक्षा से प्रतिपादन करना है। स्यात् का अर्थ है- अपेक्षा। स्याद्वाद का अर्थ है अपेक्षावाद। यह स्यात् अनेकान्त को व्यक्त करता है। अनेकान्त को व्यक्त करने वाली भाषा-अभिव्यक्ति के मार्ग का नाम है स्याद्वाद। इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से पद-पदार्थ का प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अनन्त गुण धर्म होते हैं। वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान मुक्त व्यक्ति (केवली) ही केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्त कर सकता है। अतः साधारण मनुष्य किसी वस्तु का एक समय में एक ही धर्म जान सकता है। अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन स्याद्वाद है- ‘अनेकान्तात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः’। अतः स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है। अनेकान्तवाद  और स्याद्वाद: अनेकान्तवाद ज्ञानरूप है, स्याद्वाद वचनरूप है। अनेकान्तवाद व्यापक विचार दृष्टि है, स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग है। अनेकान्त पदार्थ के ज्ञान का दर्शन है, स्याद्वाद उसके स्वरूप की विवेचना पद्धति है। स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन है वह अनेकान्तात्मक है। इसलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहते हैं। अनेकान्तवाद पदार्थ के एक-एक धर्म, एक-एक गुण को देखता है। स्याद्वाद पदार्थ के एक-एक धर्म, एक-एक गुण को मुख्य करके प्रतिपादन करने का माध्यम है। स्याद्वाद व्यक्ति को सचेत किए रहता है कि जो कथन है वह पूर्ण निरपेक्ष सत्य नहीं है। अपेक्षा दृष्टि से व्यक्त कथन आंशिक सत्य का उद्घाटन करता है। अनेकान्तवाद परस्पर प्रतीत्यमान विपरीत मूल्यों, धर्मों एवं लक्षणों को अंश-अंश रूप में जानकर समग्र एवं अनन्त को जान जाता है। स्याद्वाद दूसरे धर्म या लक्षणों का प्रतिरोध किए बिना धर्म-विशेष, लक्षण-विशेष का प्रतिपादन करता है। समस्त सम्भावित सापेक्ष गुणों एवं धर्मों को प्रतिपादित कर समग्र एवं अनन्त को अभिव्यक्त करने की वैज्ञानिक प्रविधि का नाम स्याद्वाद है। जैन दार्शनिक परम्परा में प्रत्येक द्रव्य अथवा सत् पदार्थ परिणामी होने के कारण एक धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करता रहता है। इसी स्वभाव के कारण प्रत्येक सत् का उत्पाद तथा व्यय (नाश) भी होता रहता है। फिर भी इस प्रकार का परिणामशील होने पर भी सत् पदार्थ का अपनापन कभी भी नष्ट नहीं होता। यह उत्पाद एवं व्यय भी सदैव विद्यमान रहता है जिसे ध्रौव्य कहा गया है। इस प्रकार के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्पाद और व्यय के साथ-साथ प्रत्येक सत् पदार्थ में ध्रौव्य नामक तीसरा धर्म भी है। ऐसी स्थिति में जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित घट के नाश हो जाने पर भी दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का तद्भाव अर्थात् अपनापन विद्यमान रहता है। उसी प्रकार किसी तत्व के सही स्वरूप् की जानकारी के लिए उसके अनेक धर्मों पर विचार करना चाहिए। इस अनन्त अथवा अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्त धर्मात्मक अथ्वा अनेकांतात्मक कही जाती है। इस अनेकातात्मक वस्तु का विश्लेषण करने के लिए ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ कदाचित् हातिा है। वस्तु एतद्रूप ही नहीं अपितु उसके अन्य रूप भी हैं। इस सत्य ही अभिव्यक्ति ही स्यादवाद है। इस प्रकार स्यात् पूर्वक जो वाद अर्थात् वचन अथवा कथन है वही स्यादवाद है। अतः अनेकातात्मक अर्थ के कथन को ही स्याद्वाद कहा गया है। यही कारण है कि कहीं-कहीं स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। क्योंकि स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है और अनेकान्तात्मक अर्थ का कथन ही अनेकान्तवाद है। अतः स्यात्  अर्थात् अव्वय अनेकान्त का द्योतक है। इसीलिए स्याद्वाद का अनेकान्तवाद कहा गया है। अन्य अनेक जैन चिन्तकों के अनुसार अनेकान्तवाद वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करने में सहायक होता है और इस अनेकान्त का प्रतिपादकवाद स्याद्वाद कहा जाता है। नय दृष्टि: साधारण मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आंशिक होता है तथा उस ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे भी नय कहते हैं। नय किसी वस्तु को समझने के लिए विभिन्न दृष्टिकोण हैं। किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में जो निर्णय होता है वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता। उसकी सत्यता उसके नय पर

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कल्याणी का चालुक्य राजवंश:भाग-3 (The Chalukyan Dynasty Of Kalyani)

सोमेश्वर द्वितीयः                 1068ई0 में सोमश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल कल्याणी के राजपीठ पर आसीन हुआ। इसने अपने छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ को गंगवाड़ी का शासक नियुक्त किया। इस नवारूढ़ शासक को चोल शासक वीर राजेन्द्र ने आक्रान्त किया तथा अनन्तपुर जिले के गूटी दुर्ग को घेर लिया। सोमेश्वर द्वितीय के लेखों से ज्ञात होता है कि वीर राजेन्द्र की योजनायें असफल सिद्ध हुई तथा चोल सेना प्रत्यावर्तन के बाध्य हुई। चालुक्य सेनापति दण्डनायक लक्ष्मण ने कल्याणी के सिंहासन को सुरक्षित रखने में विशेष योगदान दिया। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ युवराज के रूप में शासन कर रहा था, किन्तु इस संघर्ष में उसका कोई संकेत नहीं मिलता है। इससे यह प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ अन्दर से सोमेश्वर द्वितीय के राजा बनने के खिलाफ था। पिता की मृत्यु के समय वह दिग्विजय के निकला था। कल्याणी वापस आने पर उसने लूट की समस्त सम्पत्ति सोमेश्वर के चरणों में समर्पित कर दी। कुछ दिनों तक दोनों में मधुर सम्बन्ध रहा। विल्हण के विवरण के अनुसार सोमेश्वर द्वितीय शीघ्र ही गलत आदतों से ग्रसित हो गया। उसके सन्देहालु, निष्ठुर एवं विलासी प्रवृत्ति से सभी असंतुष्ट हो गये। विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया किन्तु जब सोमेश्वर द्वितीय विक्रमादित्य षष्ठ पर संदेह करने लगा तो विक्रमादित्य एवं उसके छोटे भाई जयसिंह ने राजधानी को त्याग कर तुंगभद्रा के तट पर एक उपनिवेश की स्थापना की।                 चोल लेखों से ज्ञात होता है कि चोल शासक वीर राजेन्द्र से इसकी मित्रता थी। दोनों में मिलकर कल्याणी पर आक्रमण किया तथा साम्राज्य विभाजन के लिए बाध्य किया। विल्हण के विक्रमांकदेवचरित के अनुसार सोमेश्वर द्वितीय ने विक्रमादित्य को अवरूद्ध करने के लिए एक सेना भेजी जो परास्त हुई। तुंगभद्रा तट पर विक्रमादित्य षष्ठ ने एक लघु राज्य की स्थापना की। कदम्ब शासक जयकेशी और आलूप नरेश ने विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार कर लिया। चोल शासक वीर राजेन्द्र ने मित्रता को और सुदृढ़ करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य के साथ कर दिया।                 1068-69ई0 में सोमेश्वर को विक्रमादित्य षष्ठ तथा उसके सम्बन्धी एवं सहायक चोलों से युद्ध करना पड़ा। सोमेश्वर को अपदस्थ कर उसके स्थान पर अपने जामाता विक्रमादित्य षष्ठ का प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से वीर राजेन्द्र ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर दिया और गुत्ति(गूटी) को घेर लिया। इसके बाद कम्पिल नगर को नष्ट कर चोल सेना ने करदिकल में अपना विजय स्तम्भ स्थापित किया। कर्नाटक प्रदेश को जीतकर वीर राजेन्द्र ने विक्रमादित्य को रट्टपाडि का राजा घोषित किया। लेकिन सोमेश्वर द्वितीय की शक्तिशाली अश्वसेना ने वीर राजेन्द्र को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया। चोलों की इस पराजय से विक्रमादित्य को झुकना पड़ा। 1074ई0 में विक्रमादित्य सोमेश्वर के अधीन बंकापुर में शासन कर रहा था।                 वीर राजेन्द के साथ विक्रमादित्य षष्ठ का सम्बन्ध पहले वरदान सिद्ध हुआ किन्तु बाद में उसके लिए एक दायित्व बन गया। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अधिराजेन्द्र पूर्वी चालुक्य शासक राजेन्द्र (कुलोतुंग प्रथम) के षडयन्त्र का शिकार बना। विक्रमादित्य कांची गया तथा वहाँ क्रान्ति का दमन किया। इसके बाद गंगैकोण्डचोलपुरम् जाकर अधिराजेन्द्र को चोल सिंहासन पर अधिष्ठित किया और फिर वापस तुंगभद्रा आ गया। कुछ दिनों के बाद उसे यह सूचना मिली कि अधिराजेन्द्र की हत्या कर कुलोतुंग प्रथम ने चोल सिंहासन हस्तगत कर लिया है। इस प्रकार कुलोतुंग प्रथम के चोल गद्दी पर आसीन होने से विक्रमादित्य एक ओर अपने अग्रज सोमेश्वर द्वितीय तथा दूसरी ओर कुलोतुंग प्रथम दो शत्रुओं से घिर गया।                   सोमेश्वर द्वितीय और कुलोतुंग प्रथम दोनों ने विक्रमादित्य षष्ठ के विरूद्ध एक संघ का निर्माण किया। विक्रमादित्य षष्ठ ने इसी समय त्रिभुवन मल्ल की उपाधि धारण किया जो उसकी स्वतंत्रता को दर्शाती है। अनेक चालुक्य सामन्तों ने विक्रमादित्य का साथ दिया। नोलम्बवाडी का गर्वनर जयसिंह ने विक्रमादित्य का समर्थन किया। सोमेश्वर द्वितीय के अत्याचारों से ऊब कर अनेक चालुक्य अधिकारियों ने भी विक्रमादित्य का समर्थन किया। सोमेश्वर द्वितीय तथा कुलोतुंग ने एक साथ आक्रमण करने की योजना बनायी। सोमेश्वर द्वितीय युद्ध में पराजित हुआ। विक्रमादित्य ने चालुक्य सिंहासन प्राप्त कर अपना राज्याभिषेक किया और इसके उपलक्ष्य में इसने चालुक्य संवत् प्रचलित किया।                 इस प्रकार सोमेश्वर द्वितीय का शासन काल 1076ई0 में समाप्त हुआ। लेखों में इसकी दो पत्नियों के नाम कचलदेवी और मैललदेवी मिलता है। उसकी एक बहन सुग्गलदेवी 1069 तथा 1075ई0 में किसुकाड में शासन कर रही थी। उसका सामन्त और सेनानायक लक्ष्मण दण्डनायक बनवासी का शासक था। विल्हण के विवरण से सोमेश्वर द्वितीय एक अत्याचारी एवं बिलासी शासक ज्ञात होता है किन्तु सोमेश्वर के लेखों में इसकी पूर्ण प्रशस्ति प्राप्त होती है। विक्रमादित्य षष्ठः                 सोमेश्वर द्वितीय के बाद कल्याणी के सिंहासन पर विक्रमादित्य षष्ठ आसीन हुआ। जिसके शासन काल में राजनीति की अपेक्षा सांस्कृतिक क्षेत्र में अधिक अभ्युत्थान हुआ। अभिलेखों एवं विल्हण के विक्रमांकदेवचरित से इसके शासन एवं जीवन चरित्र का विस्तृत ज्ञान उपलब्ध होता है। विल्हण के अनुसार सोमेश्वर प्रथम के तीनों पुत्रों में विक्रमादित्य षष्ठ सर्वाधिक योग्य था जो दैवी शक्ति से सम्पन्न था। इसका जन्म ही शिव के अवतार स्वरूप था। इसकी योग्यताओं से प्रसन्न होकर सोमेश्वर प्रथम इसे अपना युवराज बनाना चाहा किन्तु इसने अपने अग्रज सोमेश्वर द्वितीय के पक्ष में अस्वीकार कर दिया। सोमेश्वर द्वितीय से जब प्रजा संत्रस्त हो गयी तब इसने चालुक्य सिंहासन को हस्तगत कर लिया। हैदराबाद संग्रहालय के दो लेखों से ज्ञात होता है कि इसने अपने बाहुबल से सोमेश्वर द्वितीय से राज्य-लक्ष्मी प्राप्त किया था।                 हैदराबाद में वडपेरि लेख से ज्ञात होता है कि 1076ई0 में इसने अपना पट्ट बन्धनोत्सव सम्पन्न किया था। इसने एक संवत् का प्रचलन भी किया जिसे चालुक्य विक्रम संवत् कहा गया। विक्रमादित्य षष्ठ के समय दो घटनायें घटी -1. लंका के राजा विजयबाहु ने चोल शासन का अंत कर वहाँ से कुलोतुंग की सेना को भगा कर उसी समय श्रीलंका में विजयबाहु ने अपना अभिषेक किया और उपहार भेंट किया। इससे स्पष्ट है कि विक्रमादित्य षष्ठ उन सभी शक्तियों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया जो चोल शासक कुलोतुंग प्रथम के विरोधी थे तथा 2. वेंगी के शासक विजयादित्य की मृत्यु हो गयी जो विक्रमादित्य का मित्र था। कुलोतुंग ने अपना प्रतिनिधि भेजकर वहाँ का शासन अपना लिया। दिग्विजय-                 विल्हण ने अपने आश्रयदाता को

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कल्याणी का चालुक्य राजवंश:भाग-2 (The chalukyan Dyansty Of Kalyani)

विक्रमादित्य पंचमः                 सत्याश्रय के बाद उसके भाई का पुत्र विक्रमादित्य पंचम 1008ई0 के लगभग उत्तारधिकारी हुआ। उसने मात्र छः या सात वर्ष ही शासन किया। कौथेम दानपत्र इसके शासनकाल का प्रथम लेख है। यह प्रशस्ति मात्र हैं फिर भी इसकी विशेषता यह है कि वह कल्याणी के चालुक्य वंश को बादामी के चालुक्य वंश से जोड़ते हुए दोनों की उत्पत्ति को एक समान हारितपुत्र, कौशितिकी गोत्र, सप्तमातृका परिरक्षित कार्तिकेय की पूजा करने वालों के रूप में जोड़ता है। इसकी बहन अक्का देवी 1010ई में कुन्सुकद (किंसुकाद) पर शासन करती थी। इसे लक्ष्मी का अवतार कहा गया है जिसने अनेक अवसरों पर ब्राहमणों को दान दिया था। विक्रमादित्य के सेनापति केसविजय ने पूरब में कोसल तक विजय अभियान किया था। अय्यण द्वितीयः                 विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के बाद 1015ई0 में उसका अनुज अय्यण द्वितीय चालुक्य राजपीठ पर बैठा। इसने मात्र कुछ दिनों तक ही शासन किया। इसका अब तक कोई लेख नहीं प्राप्त हुआ है। जयसिंह द्वितीय के लेखों में इसकी प्रारम्भिक तिथि 1015ई0 ही ज्ञात होती है। जयसिंह द्वितीयः                 अय्यण द्वितीय के बाद 1015ई0 में विक्रमादित्य पंचम का सबसे छोटा भाई जयसिंह द्वितीय चालुक्य सिंहासन पर आसीन हुआ। जिसे सिंगदेव, जगदेकमल्ल द्वितीय, त्रैलोक्यमल्ल, मल्लिकामोद एवं विक्रमसिंह आदि उपाधियों से विभूषित किया गया है। इसका शासन काल निरन्तर संघषों में बीता। 1019ई0 के पूर्व ही परमार भोज, कलचुरि गांगेयदेव, एवं चोल शासक राजेन्द्र प्रथम ने एक संघ बनाकर जयसिंह के साम्राज्य पर विभिन्न सीमाओं से अभियान शुरू किया। परमारों से युद्धः                 जयसिंह द्वितीय का समकालीन परमार शासक भोज ने मुंज की हार का बदला लेने के लिए जयसिंह से युद्ध किया। 1020ई0 में राजा भोज ने उत्तरी कोंकण को जीत कर अधिकृत करने के उपलक्ष्य में दो उत्सव मनाया था। भोजचरित के अनुसार भोज ने मुंज की पराजय का बदला कर्णाटों से लिया। यशोवर्मन के कलवन पत्र के अनुसार भोज ने कर्णाट, लाट एवं कोंकण पर विजय किया था। यशोवर्मन भोज के सामन्त के रूप में नासिक पर शासन कर रहा था। 1020ई0 के लगभग भोज के लेखों  से पता चलता है कि उसने बादामी एवं मान्यखेट से आये ब्राहमणों को दान दिया था।  जबकि इसके विपरीत 1019ई0 के जयसिंह के बेलगाँव (बेलगाम्वे) दानपत्र से जयसिंह को भोज रूपी पंकज के लिए चन्द्र कहा गया है। 1024ई0 के मीरज पत्र के अनुसार यह कोंकण विजय के बाद कोल्हापुर में सैनिक शिविर डालकर उत्तरी क्षेत्रों पर विजय की योजना बना रहा था।                 उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि आरम्भ में जयसिंह को भोज से परास्त होना पड़ा किन्तु शीघ्र ही परमारों द्वारा विजित क्षेत्रों को मुक्त करने में भी वह सफल हुआ। चोलों से युद्धः                 चोल वंश का महानतम सम्राट राजेन्द्र प्रथम जयसिंह द्वितीय का दुश्मन था। राजराज प्रथम ने जिस चालुक्य भू-भाग को अधिकृत कर लिया था, जयसिंह ने उसे अधिगत करने का प्रयास किया। बेलगाँव और मीरज दानपत्रों के अनुसार जयसिंह ने चोल शासक को परास्त कर उन भु-भागों को अपने अधीन कर लिया। इसके विपरीत 1021ई0 के लगभग राजेन्द्र चोल के एक लेख में कहा गया है कि उसने मुशांगी (मास्की) के युद्ध में जयसिंह को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया और उसके साढ़े सात लाख के खजाने को अपहृत कर लिया। राजेन्द्र प्रथम ने रट्टपाडि पर भी अधिकार कर लिया। तिरूवालंगाडु लेख में भी राजेन्द्र प्रथम को तैल वंश का विनाशक कहा गया है। 1022ई0 में अनन्तपुर जिले के कोट्टशिवराम में अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। जिनमें से एक में वेंगी नरेश की पराजय का उल्लेख मिलता है। राजेन्द्र चोल ने अपने सेनापति चवनरस के साथ गंगवाडी़ तथा चेर राज्य तक पीछा भी किया। उसने द्वारसमुद्र तथा वलेयवतन को भी लूटा। शक्ति सन्तुलन के बाद दोनों के बीच संभवतः तुंगभद्रा नदी को विभाजक सीमा रेखा मान लिया गया। अन्य घटनायें:                 1024ई0 के बाद जयसिंह के शासनकाल में किसी भयानक संघर्ष का कोई संकेत प्राप्त नहीं होता, यत्र-तत्र सामन्तों के छिटपुट विद्रोह की जानकारी मिलती है।                 जयसिंह द्वितीय की दो पत्नियों की जानकरी मिलती है- 1-सुग्गल देवी और 2-नोलम्ब राजकुमारी देवल देवी। उसकी एक पुत्री हम्मा अथवा आवल्ल देवी का उल्लेख मिलता है। जिसका विवाह सेउण नरेश भिल्लम तृतीय के साथ हुआ था। उसकी एक बहन का नाम अक्का देवी मिलता है। जिसके बारे में कहा जाता है कि वह युद्ध में भैरवी के समान शौर्य प्रदर्शित करती थी।                 चालुक्यों की राजधानी अभी भी मान्यखेट ही थी। क्योंकि चोल लेखों में मान्यखेट का उल्लेख तो है किन्तु कल्याणी का कोई संकेत नहीं मिलता है। अतः यह निश्चित है कि जयसिंह द्वितीय के शासन के अन्त अर्थात् 1042ई0 तक मान्यखेट नगर ही चालुक्यों की राजधानी रही। एतगिरि, कोलियाके, होट्टलकेरे आदि अन्यमहत्वपूर्ण राजनीतिक केन्द्र थे। सोमेश्वर प्रथमः                 जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सामेश्वर प्रथम 1042-43ई0 में चालुक्य राजपीठ पर आसीन हुआ। इसका राज्यकाल चालुक्य राजवंश में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इसने त्रैलोक्यमल्ल, आहवमल्ल, वीरमार्तण्ड तथा राजनारायण की उपाधि धारण की। विल्हण के अनुसार इसने कल्याणी नगर को विभिन्न भवनों एवं मंदिरों से अलंकृत कर विश्व में अप्रतिम नगर के रूप में परिणत कर दिया। इससे यह ज्ञात होता है कि सोमेश्वर प्रथम ने मान्यखेट के स्थान पर कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। अपने दीर्घकालीन शासन काल में सोमेश्वर प्रथम विभिन्न युद्ध  में व्यस्त रहा जिसका विकराल रूप चोलों के साथ संघर्ष में प्राप्त होता है। विभिन्न सीमाओं पर शत्रुओं से घिरे रहते हुए भी इसने जिस अदम्य उत्साह से साम्राज्य की सुरक्षा और सीमावर्ती भागों में जो विस्तार किया, वह उसकी निर्भीकता, आत्मबल, सैन्य गुण तथा प्रशासनिक योग्यताओं का परिचायक है।                 सोमेश्वर प्रथम के समय भी इसके पिता के परम्परागत शत्रु थे और उनके साथ पूर्वजों की तरह आक्रामक युद्ध की ही नीति अपनानी पड़ी। 1047ई0 के नान्देर (हैदराबाद) अभिलेख में उसकी विजयों का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार इसने मगध, कलिंग तथा अंग के शासकों का वध किया, इसके अभियान से भयाक्रान्त होकर कोंकण नरेश उसके चरणों में नतमस्तक हुआ, मालवेश्वर ने स्वयं अपनी राजधानी धारा में अंजलिबद्ध होकर उससे याचना की थी, उसने चोलों को युद्ध में पराजित किया तथा वेंगी और कलिंग के शासकों को अपने पक्ष में जीत लिया। इसी लेख में उसके ब्राहमण सेनापति नागवर्म का भी उल्लेख भी मिलता है

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कल्याणी का चालुक्य राजवंश: भाग-1 (The Chalukyan Dynasty Of Kalyani)

परिचयः                 दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट सत्ता का विनाश कर चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने परवर्ती चालुक्य वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित की। चालुक्यों तथा समकालीन अन्य राजवंशों के लेखों में इन्हें राष्ट्रकूटों के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप् में चित्रित किया गया है। विल्हण के संस्कृत काव्य विक्रमांकदेवचरित एवं रन्न के कन्नड काव्य गदायुद्ध में इनकी ऐतिहासिक एव काव्यात्मक निधि निहित है।                 10वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में कल्याणी या कल्याण में चालुक्यों की एक शाखा का राजनीतिक उत्कर्ष हुआ। उस समय दक्षिणापथ की राजनैतिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। मालवा के परमार शासकों के निरन्तर आक्रमणों के कारण राष्ट्रकूट साम्राज्य कमजोर हो गया था और कृष्ण तृतीय के दुर्बल उत्तराधिकारी इसकी सुरक्षा करने में असफल रहे। अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय के समय उसका सामन्त चालुक्यवंशीय तैलप द्वितीय बहुत शक्तिशाली हो गया था। 973-74 ई0 में तैलप द्वितीय ने अपनी शक्ति और कूटनीति से राष्ट्रकूटों पर अघिकार कर लिया। इस प्रकार तैलप द्वितीय ने एक नये राजवंश की स्थापना की जो कल्याणी के चालुक्य राजवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उत्पत्तिः                 कल्याणी के चालुक्य राजवंश की उत्पत्ति विषयक साक्ष्य ग्यारहवीं शताब्दी तथा इसके बाद के वेंगी एवं कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों, रन्न कवि के कन्नड़ काव्य गदायुद्ध तथा बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित आदि साक्ष्यों में मिलते हैं। इन साक्ष्यों में इन्हें न केवल वातापी के चालुक्यों का वंशज बताया गया है, वरन् उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी अयोध्या का मूल निवासी भी बतलाया गया है। अभिलेखीय साक्ष्यों- होट्टूर अभिलेख, कौथेम ताम्रलेख, गडग लेख, मिरज ताम्रपत्र, तिरूवालंगाडु अभिलेख, चोल अभिलेखों आदि से हमें कल्याणी के चालुक्यों के इतिहास की जानकारी मिलती है। मूल निवासः                 वेंगी और कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों एवं उनके इतिहास के अन्य साक्ष्यों के विवरणों में काफी समानताओं के बावजूद प्रायः एकरूपता का अभाव है। वस्तुतः कई शताब्दियों के शासन के बाद जब चालुक्यों ने अपनी उत्पत्ति एवं मूल निवास आदि का विवरण लिखवाया उस समय तक वे अपना प्रारम्भिक इतिहास भूल चुके होंगे। इसलिए  उन्होंने कल्पना के आधार पर इसका निर्माण किया। जो भी हो समस्त साक्ष्यों की समीक्षा के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि चालुक्य कन्नड़ देश के मूल निवासी थे एवं कल्याणी के चालुक्य, वातापी के चालुक्यों के वंशज थें।                 कल्याणी के चालुक्य बादामी के चालुक्यों से अपना सम्बन्ध बतरते हैं। वे अपने को विक्रमादित्य द्वितीय का वंशज मानते हैं। इनका गोत्र, कार्तिकेय और अन्य कुछ देवताओं की उपासना, इनके प्रतीक और अन्य राजचिन्ह की प्राप्ति के सम्बन्ध में सभी वर्णन प्रायः वही हैं जो बादामी के चालुक्यों के थे।                 कल्याणी के अनेक चालुक्य शासकों के अभिलेखों में वातापी के अन्तिम चालुक्य नृपति कीर्तिवर्मन् द्वितीय तथा कल्याणी के चालुक्य राजवंश के संस्थापक तैलप द्वितीय के बीच राज्य करने वाले सात शासकों के नाम मिलते हैं। जिन्होंने 757 से 773 ई0 तक राज्य किया। इसकी पुष्टि गदायुद्ध ने भी किया है। इस बीच प्रथम तैल (तैलप) और उसके बाद के चालुक्य सरदार बीजापुर जिले में सम्भवतः राष्ट्रकूटों के अधीन रहे। उनके वैवाहिक सम्बन्ध राष्ट्रकूटों और चेदिदेश के हैहयवंशी (कलचुरि) कन्याओं से होते रहे। जो इस बात का प्रमाण है कि उनका राजवंशीय स्वत्व समाप्त नहीं हुआ था। तैलप द्वितीयः                 कलचुरि राजकुमारी बोन्थादेवी के गर्भ से उत्पन्न विक्रमादित्य चतुर्थ का पुत्र तैलप द्वितीय था। यह चालुक्य वंश का प्रथम शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी शासक था। प्रारम्भ में तैलप द्वितीय तर्डवाडी (कर्नाटक) में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के अधीन शासन कर रहा था। उसने राष्ट्रकूट वंश की कन्या, जो भामह की पुत्री थी, जाकव्वे, जाक्कलादेवी या जक्कलमहादेवी से अपना विवाह किया था। वह कृष्ण तृतीय के सामन्त के रूप में बीजापुर में 957ई0 और 965 ई0 में शासन कर रहा था। 965 ई0 के एक अभिलेख में उसके लिए ’महासामन्ताधिपति आहवमल्लतैलपरस’ कहा गया है। तैलप द्वितीय ने अपने अधिराज  राष्ट्रकूट शासक कर्ण द्वितीय के दुर्बल शासनकाल में अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर 973-74 ई0 में कर्ण द्वितीय को हराकर राष्ट्रकूट साम्राज्य का स्वामी बन बैठा। उपलब्धियाँ:                 तैलप द्वितीय अपनी शक्ति और साम्राज्य विस्तार हेतु सर्वप्रथम गंग वंश के शासक पांचलदेव से युद्ध करना पड़ा। प्रारम्भ में गंग वंश के अवयस्क शासक मारसिंह से तैलप द्वितीय का सामना हुआ। गंग नरेश मारसिंह तैलप का सामना न कर सका। इसके बाद गंग वंश के शासक पांचलदेव, जिसका साम्राज्य कृष्णा नदी तक फैला था, तैलप द्वितीय का कई बार सामना हुआ। किन्तु प्रारम्भिक युद्धों में तैलप पांचलदेव से परास्त होता रहा। किन्तु बेल्लारी के सामन्त भूतिगत की सहायता से तैलप ने गंग शासक पांचलदेव को अन्ततः परास्त करने में सफलता पायी। इस सहायता से प्रसनन होकर तैलप द्वितीय ने ‘पांचलमर्दनपंचानन’ की उपाधि ग्रहण की और भूतिगत को अपना सामन्त नियुक्त किया तथा उसे ‘आहवमल्ल’ की उपाधि प्रदान किया। इस विजय के फलस्वरूप इसका साम्राज्य विस्तार उत्तरी कर्नाटक तक हो गया। उत्तरी कर्नाटक पर अधिकार कर लेने के बाद उसने कर्क द्वितीय के सहायक रणस्तम्भ, जो दक्षिणी मैसूर पर शासन कर रहा था, को मारकर दक्षिणी मैसूर तक अपना साम्राज्य विस्तार किया।                 तैलप द्वितीय का समकालीन दूसरा पड़ोसी राज्य पश्चिमी कोंकण में शिलाहार वंश का शासन था। इस समय यहाँ शिलाहार शासक अवसर तृतीय या उसके पुत्र रट्टराज का शासन था। ये राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। इन्हें परास्त कर तैलप ने कोंकण को अपने साम्राज्य में मिला लिया। यादव शासक भिल्लम, जो दौलताबाद में शासन कर रहा था, ने बिना युद्ध किये ही तैलप की अधीनता मान ली। लाट प्रदेश, जो साबरमती एवं अम्बिका नदी के बीच का भू भाग, को जीत कर तैलप द्वितीय ने बाडप, जो उसका सेनानायक भी था, को अपना सामन्त बनाया। तैलप द्वितीय ने अपने पुत्र सत्याश्रय को अपना युवराज नियुक्त किया।                 इसके बाद तैलप ने मालवा के परमारों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया। इसका कारण यह था कि इसे तैलप अपने साम्राज्य का अंग मानता था, जबकि परमार शासक इसे अपना मानते थे। तैलप द्वितीय का समकालीन परमार शासक मुंज था। परमार शासक मुंज ने चालुक्यों पर आक्रमण किया। यह आक्रमण छः बार हुआ। इसमें पाँच बार तैलप परास्त हुआ ,किन्तु अन्तिम छठीं बार तैलप ने परमार शासक मुंज को परास्त करने में सफलता पायी। तैलप द्वितीय ने मुंज की हत्या कर मालवा के दक्षिणी भाग पर अपना आधिपत्य कायम

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आयुर्वेद और आयुर्वेदिक आचार(Ayurveda And Ayurvedic Ethics)

वेदों में अनेक स्थलों में विज्ञान पर प्रकाश डाला गया है और जहाँ तहाँ अनेक प्रकार के वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध होते हैं। प्राचीन वैज्ञानिक विवेचकों में आचार्य यास्क अन्तिम थे। उनके बाद समय के प्रभाव से विज्ञान की ओर से दृष्टि हटकर यज्ञों को (वैधानिक) महत्व दिया जाने लगा और वैज्ञानिक तथ्य अर्थवाद की कोटि में विक्षिप्त होकर विस्मृति के गर्त में विलीन हो गयी। यही कारण है कि यास्क के परवर्ती वेद भाष्यकारों ने यज्ञपरक ही वेदों की व्याख्या की है। विज्ञान पक्ष सर्वथा उपेक्षित हो गया। वर्तमान युग में पश्चिम के विद्वानों ने जो आविष्कार किये उनके द्वारा भारतीय वेदज्ञों की दृष्टि भी वैदिक विज्ञानों की ओर आकृष्ट हुई और इस प्रकार वेदों की विज्ञान चर्चा का पुनरूद्धार प्रारम्भ प्रारम्भ हुआ। आयुर्वेदः भारतीय विज्ञानों में आयुर्वेद का अप्रतिम महत्व रहा है। जिस प्रकार ज्योतिष में अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, भूगोल आदि का अन्तर्भाव हुआ था, उसी प्रकार आयुर्वेद में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, खनिज-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्राणि- विज्ञान मनोंविज्ञान आदि का समावेश हुआ। सिन्धु-सभ्यता काल से श्रृंगचूर्ण, शिलाचूर्ण और गंड़ा-ताबीज़ आदि के प्रयोग द्वारा रोगों को शान्त करने की विधि सदा प्रचलित रही।                 वैदिक साहित्य के उल्लेखों द्वारा तत्कालीन आयुर्वेद-विज्ञान सम्बन्धी प्रगति का परिचय प्राप्त होता है। सभी महर्षि चिर जीवन की अभिलाषा करते थे। वैदिक युग में आयुर्वेद की अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। अश्विनीकुमार, वरूण, रूद्र आदि अनेक देवता वैद्य थे। अश्विनीकुमारों की नेत्र चिकित्सा और टूटी हड्डी को जोड़ना प्रसिद्ध कार्य थे। वरूण का एक विशाल औषधालय था, जिसमें सहस्रों वैद्य कार्य करते थे। ऋग्वैदिक काल में जल चिकित्सा आक्र सूर्यरश्मि- चिकित्सा का प्रचार था। उस समय अनेक प्रकार की औषधियों का ज्ञान था। यथा-                                 याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।                                 बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुंचन्त्वहंसः ।। अथर्ववेदः                              अथर्ववेद में अनेक रोगों के लक्षण, निदान और चिकित्सा का सूक्ष्म विवेचन मिलता है। विभिन्न रोगों के निवारण के लिए विविध द्रव्यों का उपयोग किया जाता था। जैसे-कुष्ठ के द्वारा तक्मज्वर नष्ट किया जाता था। इसी तरह नितत्नी के प्रयोग से केश बढ़ाये जाते थे। रजनी के प्रयोग से कुष्ठ का निदान होता था। सूर्यरश्मियों की कृमिनाशक शक्ति का ज्ञान उस समय था। वैद्य जानते थे कि शरीर के अनेक अंग और जंगली औषधियाँ कृमियों के आश्रय- स्थान हैं और कृमि अनेक प्रकार के होते हैं। वे बिषैले भी होते हैं। मच्छरों का नाश करने के लिए किसी वनस्पति का प्रयोग होता था। परवर्ती युग की प्रथम प्रसिद्ध संहिता चरक की है। सर विलियम हण्टर ने लिखा है कि ‘‘भारतीय आयुर्वेद में विज्ञान का सर्वांगीण अन्तर्भाव हुआ है। इसमें शरीर के अंग-प्रत्यंग का सूक्ष्म विवेचन मिलता है। चिकित्सा के औषधि- विज्ञान की परिधि में आयुर्वेद के अनुसार खनिज, वनस्पति,पशु आदि सभी उपयोगी हैं। औषधियों का निर्माण, उनका वर्गीकरण और प्रयोग अतिशय वैज्ञानिक पद्धति से निष्पन्न किया जाता है। स्वच्छता, पथ्यापथ्य-नियम और भोजन के विषय में पूरा ध्यान दिया गया है। चरक संहिताः                 सदाचार के द्वारा निरोग रहने की योजना चरक ने प्रस्तुत की है। चरक के अनुसार सदाचारी वह व्यक्ति है, जो सभी प्राणियों का बन्धु है, क्रुद्ध मनुष्यों का अनुनय करता है, डरे हुए को आश्वासन देता है, दीनों का सहारा है, अपनी प्रतिज्ञा को कार्यरूप में परिणत करता है, दूसरों की बात को सह लेता है, स्वयं दूसरों के दोषों को नहीं देखता, किसी के रहस्य को प्रकाशित नहीं करता और पतित, दुष्ट,नीच तथा पापियों का साथ छोड़ देता है।                 चरक ने आयुर्वेद की दृष्टि से आचार के कुछ अन्य ऊॅचे आदर्शों की प्रतिष्ठा की है-‘‘सदा सहानुभूतिमय रहना चाहिए। मनुष्य को समय और नियम को नहीं तोड़ना चाहिए। अधिक नहीं बोलना चाहिए। धैर्य नहीं खोना चाहिए। अकेले ही सुखी नहीं रहना चाहिए। सबके सुख में सुख मानना चाहिए। सदा विचारमग्न नहीं रहना चाहिए। निरलस होकर कार्य परायण बनना चाहिए। सफलता में हर्ष और विफलता में शोक नहीं करना चाहिए और ब्रह्मचर्य, ज्ञान, दान, मैत्री, करूणा, हर्ष, उपेक्षा ण्वं शान्ति को अपनाना चाहिए।’ यथा-                 मनसः इन्द्रियाणां च निग्रहे बुद्धिसापेक्ष्यम्                 तत्रेन्द्रियाणां  समनसकानामनुपतापाय  प्रकृतिभावे प्रयतिव्यमेभिर्हेतुभिः,  तद्यथा- सात्म्येन्द्रियार्थसंयोगेन, देशकालात्मगुणविपरीतोपसेनेन चेति। तस्मादात्महितं चिकीर्षता सर्वेण सर्वं सर्वदा स्मुतिमास्थाय सद्वृत्तमनुष्टेयम्।  तद्धयनुतिष्ठन् युगपत्सम्पादयत्यर्थ-द्वयमारोग्यमिन्द्रियविजयं चेति।                 उपर्युक्त आचार- विधान चरक के शब्दों में स्वस्थ-वृत्त है। ‘‘स्वस्थ-वृत्त के परिपालन मात्र से मनुष्य सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर सकता है।। यथा-                                 स्वस्थवृत्तं यथोद्दिष्टं यः सम्यगनुतिष्ठति।                                 स समाः शतमव्याधिरायुषा न वियुज्यते।।   चरक के अनुसार आरोग्य के अतिरिक्त यश, धर्म और अर्थ की प्राप्ति भी स्वस्थ-वृत्त से सम्भव होती है। इसका पालन करने वाला सबका भाई है। मरने के बाद भी उसकी उत्तम गति होती है।                 चरक के अनुसार वायु आदि की विगुणता का कारण अधर्म अथवा पहले के किए हुए असत्कर्म हैं। इनकी उत्पत्ति जान-बूझ कर किए हुए अपराधों से होती है। जब छोटे और बड़े शासक धर्मपूर्वक प्रजा-पालन नहीं करते तो अधर्म को अन्तर्हित कर देता है। अधर्म-परायण लोगों को देवता छोड़ देते हैं। ऐसी परिस्थिति में ऋतु बिगड़ जाती है। जल समय पर नहीं बरसता है। वायु ठीक से नहीं बहती है। जल सूख जाता है। पेड़-पौधे अपने स्वभाव को छोड़कर सूख जाते हैं। इस प्रकार राष्ट्र का विध्वंस हो जाता है।’चरक ने राष्ट्र के संबर्द्धन के लिए देश, नगर, निगम और जनपद के शासकों के सच्चरित्र और धर्मनिष्ठ होने की आवश्यकता बतलाई है। सुश्रुत संहिताः                 सुश्रुत ने वैद्यों का कत्र्तव्य-पथ निर्धारित करते हुए आदेश दिया है-‘रोगियों को अपने बन्धु-बान्धव जैसा मानकर चिकित्सा करनी चाहिए, चाहे वे सन्यासी, मित्र, पड़ोसी, विधवा, अनाथ, दीन-हीन या पथिक क्यों न हों। मृगया से जीविका चलाने वाले ब्याघ्र, जाति से बहिष्कृत अथवा पापियों की चिकित्सा नहीं करनी चाहिए।’ सुश्रुत की दृष्टि में केवल निःस्वार्थ भावना से प्रेरित होकर ही कोई मनुष्य सफल चिकित्सक हो सकता है। उसने लिखा है कि जो लोग धन के लिए चिकित्सा करते हैं, वे स्वर्ण-राशि को छोड़कर धूलि के लिए श्रम कर रहे हैं। वैद्यों को सम्बोधित करते हुए सुश्रुत ने लिखा है -‘‘तुम्हें सभी प्राणियों के कल्याण की भावना से प्रयत्नशील होना है। प्रतिदिन खड़े होकर या बैठकर सौहार्दपूर्वक रोगी का निदान करना चाहिए। अपनी जीविका के लिए रोगी से अधिक धन नहीं मांगना चाहिए। दूसरों के धन का लोभ नहीं करना चाहिए। तुम्हारे वस्त्रों से शान्ति और आचरण से मानवता टपकनी चाहिए। तुम्हारी वाणी में कोमलता, सत्य और विश्वसनीयता होनी चाहिए। कुशल वैद्य

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