गांधी की हत्या का रोमांच (The Thrill Of Killing Gandhi)
डॉ0 एस एन वर्मा एसोसियेट प्रोफेसर. इतिहास इसी वर्ष 2019 में शहीद दिवस पर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में गांधी के चित्र पर किसी संगठन की महिला नेता द्वारा नकली रिवोल्वर से गोली मारने और चित्र के नीचे खून की तस्वीर के साथ गोड़से अमर रहें के नारे सोशल मीडिया पर वायरल हुएद्य सरकार ने घटना के लिये जिम्मेदार लोगों के ऊपर कार्यवाही कीद्य पांच लोग गिरफ्तार भी किये गएद्य लेकिन फिर यह खबर आई गयी हो गयीए जैसा आजकल अधिकतर ख़बरों के साथ होता है द्य कुछ स्थानों पर इस घटना के खिलाफ प्रदर्शन और भाषणबाजी की गयी और इतने तक ही कर्तव्य की इतिश्री मान ली गईद्य यह प्रतीकात्मक घटना जनमानस में पल रहे गांधी विरोध का एक उदाहरण या नमूना भर हैद्य इसी तरह का एक उदाहरण पिछली सदी के अंतिम वर्षो में भी देखने को मिला था जब प्रदीप दलवी ने श्मी नाथूराम गोडसे बोलतोयश् नामक मराठी नाटक लिखा था। इसे लेखक ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम दिया था और पक्ष.विपक्ष में खूब बहसए चर्चा.परिचर्चा हुईए लेकिन मूलभूत प्रश्न वहीं बना रहा कि गांधी हिन्दू जनता के विरोधी थे या नहीं। आज प्रश्न यह उनकी हत्या के 70 वर्ष बाद भी हत्या का रोमांच क्यों बना हुआ है जबकि भारत की सनातन धारा को युगधर्म से जोड़कर राष्ट्रीय जन आन्दोलन और सत्याग्रही प्रक्रिया को अधिक गतिशील बनाने का श्रेय एक मात्र गांधी को दिया जाता है। क्योंकि गतिशीलता स्वयं एक प्रस्थिति होती है इसलिए वहां पूर्णता की खोज उचित नहीं। इस बात पर सभी एकमत हैं कि गांधी जन आंदोलन के पायनियर थेए देखा जाय तो भारत की भौगोलिक अस्मिता को एकीकृत राजनीतिक अस्मिता दिलाने वाले प्रथम व्यक्ति गाँधी ही थे। ये वही व्यक्ति हैं जो एक संस्था बनने का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत कर पाते हैं। इधर कुछ वर्षों में घटित घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि मानों गांधी के वध को स्वीकृति मिल रही है। योगा.योग तो ऐसा बना है कि वध निष्ठा की अमानवीय राजनीति करने वाले राष्ट्र जीवन के अधिकारी विद्वान होने का दावा करने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश की परिणति को प्राप्त भारतीय जन.मानस क्या अतीत जीवी होना चाहेगा। यदि नहीं तो उसे ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत हो निशंक भाव से आगे बढ़ना चाहिए। देखा जाय तो इतिहास कभी भी अतीत के सुधार की अपील नहीं करता। मेरे ख़याल से राजनीति को भी यही करना चाहिये। गांधी के उपर अब हमले होंए यह उनके जीवित होने का प्रमाण नहीं तो क्या हैघ् गोडसे के अनुसार ष्वह एक धार्मिक कृत्य था। जिस प्रकार कंस का वधए शिशुपाल का वध एक धर्मानुरूप कृत्य थाए उसी प्रकार गांधी का वध भी धार्मिक कृत्य है।ष् प्रदीप दलवी के नाटक का भी यही कथ्य है। थोड़ा ध्यान देकर देखेंगे तो यह धार्मिक कृत्य आदिम व्यवस्था का उदाहरण भी है। कोई भी सभ्य समाज उस समाज और कानून की पुनरावृत्ति नहीं चाहेगा। किसी के बुरे कार्य के लिये दंड की व्यवस्था मनुष्य की चुनी हुई सरकारों ने बनाई हैं। शायद इसी तर्क से गांधी के समर्थक गोडसे से बदला लेने की बात नहीं करते। गांधी स्वयं भी क्षमादान के हिमायती थे। आज के गांधीवादी भी सर झुकाकर काम में विश्वास करते हैं। लोग इस मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैए लेकिन उन्हें विचार की विचार से लड़ाई में विश्वास करना चाहिए। गोडसे ने कोई वैचारिक लड़ाई कहाँ लड़ी थीघ् कुछ लोगों को गोडसे द्वारा प्रस्तुत बचाव.नामा एक व्यवस्थित विचार उस समय भी लगता था और आज भी। गांधी की हत्या के बाद गोडसे के पास समय था। उसने इसका उपयोग किया और अपने कृत्य को उचित ठहराने की कोशिश की। कोई भी अपराधी यही करता हैए वह अपने बचाव की हर संभव कोशिश करता हैए गोडसे ने भी यही किया। उसने जो कारण बताए उसमें गांधी को देश विभाजन कराने और इसे स्वीकार करने को प्रमुख बताया है। पाकिस्तान जिसने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था उसे उसके हिस्से के 55 करोड़ भारत सरकार से दिलवाने को दूसरा महत्वपूर्ण कारण बताया। इसे सुनकर कोई भी गांधी के ऊपर भड़क सकता है। सर्वोदय आंदोलन के वरिष्ठ चिंतक चुनी भाई वैद्य ने गांधी की हत्या के संदर्भ में गढ़े इन तर्कों का जबाब गांधी की हत्या क्या सच क्या झूठ मे दृढ़ता से दिया है। वे लिखते हैं कि गांधी की हत्या के आठ प्रयास हुए थे। इन प्रयासों में चार उस समय हुए थे जब पाकिस्तान बनने और 55 करोड़ की बात स्वप्न में भी नहीं थी। पहला प्रयास 1934 में हुआ था जब गांधी पूना नगरपालिका द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया लेकिन वे बच गए। इस घटना में नगरपालिका के मुख्य अधिकारी समेत सात लोग घायल हुए थे। उस समय तक पाकिस्तान ज्यादा से ज्यादा कवि इकबाल और छात्र रहमत की कल्पना में ही था। अतः बहुप्रचारित पाक फैक्टर हमेशा हमले का कारण नहीं था। कुछ संगठनों के कार्यकर्ताओं को गांधी के कार्यक्रम अखरते थे। अंग्रेज़ तो उनके आंदोलनों के लक्ष्य थे ही इसलिए उनकी कूट रचना और बेवजह गिरफ्तारी पर कोई संशय नही था। गांधी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 की जुलाई में हुआ थाए उस समय भी पाकिस्तान की भूमिका स्पष्ट नहीं थी। नाथूराम छूरा लेकर सामने आ गया था। सतारा जिला बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष भिसारे ने उसके हथियार को छीन लिया था। गांधी ने तुरंत गोडसे को बातचीत के लिए बुलायाए पर वह नहीं गया। तीसरा प्रयास सितंबर 1944 में तब हुआ जब गांधीए जिन्ना से वार्ता करने बम्बई जाने वाले थे। पूना का एक समूह वर्धा गया था। इनमें एक व्यक्ति थत्ते के पास से पुलिस को छूरा मिला। थत्ते का कहना था कि उसने गांधी की गाड़ी को पंचर करने के लिये छूरा रखा था। गांधी के निजी सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि उस दिन डी सी पी का फोन आया था कि प्रदर्शन के समय अनहोनी हो सकती है। पुलिस ने गांधी के निकलने के पहले ही प्रदर्शनकारियों को पकड़ लिया। इस समय भी पाकिस्तान को स्वीकार करने और 55 करोड़ की बात नहीं थी। जून 1946 में एक और प्रयास किया गया थाद्य जिस








