Uncategorised

Uncategorised

चन्देल वंश के आरम्भिक शासक(Early rulers of the Chandela dynasty)

भारतीय इतिहास की कड़ियाँ देशी और विदेशी विद्वानों के गहन अनुसन्धान और अध्यवसाय से बहुत कुछ जुड़ी हैं, लेकिन अभी भी इतिहास की कुछ पर्तें काल के गर्भ में समायी हुई हैं। जो कुछ ऐतिहासिक तथ्य उद्घाटित भी हुए हैं,  उनके सम्बन्ध में नवीन अध्येताओं के द्वारा अर्जित ऐतिहासिक संकेतों और निधियों के सापेक्ष पुनर्विचार की आवश्यकता है। ऐतिहासिक सामग्रियों के अध्येताओं की कल्पना और अनुमान के कारण कई भ्रामक तथ्य वर्षों तक विद्वानों के बीच प्रतिष्ठित रहे हैं, लेकिन नई व्याख्या और नये तथ्य परक अनुसन्धानों से पुरानी मान्यताएँ समाप्त हो रही हैं। इन विपुल सामग्रियों के आधार पर इतिहास निर्माण की प्रक्रिया को सक्रिय करना इतिहासज्ञों का कार्य है। भारतीय इतिहास के उन पक्षों पर, जिनके सम्बन्ध में ज्ञातव्य तथ्यों का अभाव रहा है. अब बहुत मात्रा में सामग्री प्रकाश में आई है। उन सबका परीक्षण और अध्ययन करके भारतीय इतिहास की श्रृंखला को जोड़ने का जो भी तटस्थ प्रयास होगा, उसका स्वागत ही किया जायगा। खजुराहो की चर्चा ज्यों-ज्यों विश्वव्यापी बनती गई, त्यों-त्यों इतिहासकारों और जिज्ञासुओं की दृष्टि चन्देल राजवंश और उसकी परम्परा की ओर आकृष्ट हुई है। खजुराहो के शिल्प पर छायी हुई चन्देल संस्कृति की छाप के रहस्योद्घाटन का प्रयास देशी-विदेशी विद्वान् कर रहे हैं। उसके शिल्प की अंगभूत सामग्री और विषय-वस्तु का वैविध्य अध्येताओं की मान्यताओं को स्थिर ही नहीं होने देता। रहस्य से आवृत्त खजुराहो-शिल्प के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश को समझने का प्रयास कई मान्य विद्वानों ने किया है। चंदेल वंश का वह इतिहास अत्यंत महत्त्व का जो वंश के चौथे महाराज नन्नुक के राज्यारोहण से प्रारंभ होकर राहिल के शासनकाल के अंत तक विस्तृत है। चंदेलों ने यद्यपि इसी बीच अपनी एक सत्तात्मकता खो दी और कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों की सार्वभौम सत्ता के अधीन संरक्षित जीवन व्यतीत किया, फिर भी उन्हें इसी अवस्था में अपने को बलशाली बनाने एवं शक्तिसंचय करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। प्रतिहारों का अपने करद राज्यों पर बड़ा शिथिल नियंत्रण था, जिसके फलस्वरूप चंदेलों को किसी अन्य के आक्रमण से निश्चिंत रहते हुए अपनी शक्ति और व्यावहारिक रूप से एक सुदृढ़ सेना संगठित करने का अनायास सुयोग हाथ लगा। चंदेल शासकों ने सुगमता से अपने भविष्य की रचना की। हिंदुओं की मूर्तियों आदि को भंगकर उनके धर्म पर आघात करनेवाले और सिंघ जीतकर पूर्व की ओर अरब आक्रमणकारियों को परास्त कर प्रथम प्रतिहार शासक नागभट्ट ने बड़ी कीर्ति अर्जित कर ली थी परंतु यह अत्यंत खेद का विषय है कि इस वंश के इतिहास को विस्तार के साथ उपस्थित करने वाले अभिलेख भी कहीं इस प्रसंग की चर्चा नहीं करते कि नागभट्ट ने ही इस वंश की स्थापना की। डॉ स्मिथ इतना कहते हैं कि ‘ नागभट्ट भीनमल का राजा था ’ पर यह निश्चित नहीं करते कि प्रतिहार वंश के प्रथम उदीयमान शासक नागभट्ट ने ही इस वंश की स्थापना की। कुछ विश्वसनीय तथ्यों के आधार पर यह अवश्य प्रमाणित होता है कि नागभट्ट ने मंदोर पर अवश्य ही शासन किया होगा। उसका देश गुर्जरात्रा या मारवाड़ में था, यह भी निश्चित नहीं है। नागभट्ट का उत्तराधिकारी उसका भतीजा काकुस्थ या काक्कुक था, जिसका राज्यकाल डॉ. स्मिथ के अनुसार सन् ७४०ई. से ७८५ई. तक था. उसका भाई और उत्तराधिकारी देवशक्ति था और पुत्र वत्सराज। वत्सराज इस वंश का दूसरा विख्यात राजा था। वत्सराज की सर्वोत्तम उज्ज्वल कीर्ति यह थी कि उसने प्रसिद्ध भण्डिवंश के हाथों से कन्नौज का केंद्रीय शासन हस्तगत कर लिया था। कन्नौज के वर्मा वंश का राज्य अवनति पर था और वत्सराज ने उसे पदच्युत कर दिया। अभिलेखों से यह तो स्पष्ट नहीं होता कि उसने उस वंश के किस व्यक्ति से राज्य छीना, परंतु संभावना इंद्रराज की है। विजय का अनुमानित काल सन् ७८० ई. ठहरता है। इतना तो स्पष्ट है कि इस विजय का प्रभाव यमुना नदी के दक्षिणी भाग पर बिलकल नहीं पड़ा जहाँ चंदेल राजा अपने छोटे राज्य को बढ़ाने में संर्घषरत थे। वत्सराज की कीर्ति तब और द्विगुणित हुई जब उसने बंगाल के शासक गोपाल को परास्त किया। किंतु उसकी इन गौरवपूर्ण विजयों पर दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने उसे हराकर पानी फेर दिया। ऐसी अवस्था में वत्सराज के लिए यह असंभव था कि वह पूर्व मध्य भारत को थोड़ा भी प्रभावित करता। वह किसी भी प्रकार चंदेलों के खजुराहो से महोबा तक के द्रुतगति-प्रसार में बाधा न पहुँचा सका। यह कार्य उसके पुत्र नागभट्ट द्वितीय द्वारा संपादित हुआ, जिसने सर्वप्रथम आंध्र,  कलिंग, विदर्भ और अन्य राज्यों को विजित किया। उस समय कन्नौज के चले आते हुए करद राज्य भी रहे होंगे जिन्हें उसने पुनर्विजित किया होगा। उसके इसी दिग्विजय प्रयाण में मध्यभारत के सरदार और छोटे शासक पराजित किये गये। परंतु स्मरण रखने की बात यह है कि यमुना के दक्षिण भाग पर उसका आधिपत्य तब हुआ जब उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बना लिया। अपनी शक्ति को इस प्रकार कन्नौज में प्रतिष्ठित कर लेने पर नागभट्ट द्वितीय ने निश्चित रूप से उन पड़ोसी राज्यों तो प्रभावित किया. जो अपनी छोटी सीमा में स्वतंत्रता भोग रहे थे। नन्नुक- बुन्देलखण्ड की राजनीति में नन्नुक के पर्दापण से बुन्देलखण्ड क्षेत्र में नन्नुक ने किस समय नये राजवंश की स्थापना की , इसका विवरण शिलालेखों में नहीं मिलता। बुन्देलखण्ड की राजनीति में नन्नुक के पर्दापण से राजपूत इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। कनिंघम महोदय की धारणा है कि धंगदेव 950 ई. के आसपास सिंहासनासीन हुआ। जो नन्नुक की छठवीं पीढ़ी में पैदा हुआ था। कनिंघम महोदय ने अनेक उदाहरणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भारतीय औसत पीढ़ी 20 से 30 वर्ष तक होती है। इस प्रकार नन्नुक लगभग 800 ई. के 30 वर्ष आगे या 30 वर्ष पीछे सिंहासनासीन हुआ होगा। नन्नुक प्रारम्भ में प्रतिहारों का सामन्त था। बाद में दूर तक अपनी राज्यसीमा फैलाने वाले और महोबा को राजधानी बनाने वाले गौरवशाली शासक नन्नुक को कन्नौज के प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय (सन् ८१५-३३) की शक्तिशाली सेना का सामना सन् ८३२ ई में करना पड़ा और अंत में वह अधिकृत बना लिया गया। महत्त्व की बात यह है कि प्रतिहारों का क्रमिक विकास अनुकूल परिस्थितियों के कारण चंदेलों से अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ था। अरब यात्री अल मसूदी ने सन् ८५१ ई में लिखा है कि प्रतिहार

Uncategorised

उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार

प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के ज्ञान के साधन स्वरूप यहाँ की विभिन्न धार्मिक परम्पराओं का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। इन धार्मिक परम्पराओं में मूलतः ब्रlहाण, जैन, एवं बौद्ध परम्परायें प्रमुख हैं। जिनके अनुयायियों ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की जटिलताओं को सुगम बनाने के लिए अपने-अपने साहित्य में सच्चे आचारों एवं विचारों का प्रतिपादन किया है। यही प्राचीन परम्पराएं हमारे अतीत की थाती हैं। भारतीय जन-जीवन की भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के साधन स्वरूप इन धार्मिक परम्पराओं का ऐतिहासिक अध्ययन भी आवश्यक है। जैन परम्पराओं का सृजन अति प्राचीन रहा है। बौद्धग्रन्थ दीघनिकाय में निर्ग्रन्थ धर्म के चातुर्याम का उल्लेख है। इस चातुर्याम धर्म का उपदेश महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ ने ही दिया था। महावीर स्वामी ने इसी धर्म का अनुकरण किया था और इन चातुर्यामों अर्थात् सत्य, अहिंसा, अचौर्य एवं अपरिग्रह में एक और व्रत अर्थात् ब्रह्मचर्य जोड़कर इस धर्म के अन्तर्गत पांच महाव्रतों के पालन का उपदेश दिया। वैदिक काल में उल्लिखित व्रात्य श्रमण धर्म के प्रारम्भिक रूप थे और जैन धर्म के अनुरूप आचरण करते थे। स्पष्टतः महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म एवं जैन आचारावली का प्रारम्भ ऋग्वैदिक काल से ही हो गया था, जो वैदिक धर्म के विरोधी ऋषभदेव द्वारा चलाये हुए यति धर्म अथवा मुनिधर्म के रूप में उदित होकर एक के बाद एक करके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के काल तक उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय अथवा जैन धर्म के रूप में सामने आया। ‘जैन’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिनन्’ अराधना से हुई। ‘जिन्’ शब्द का अर्थ ‘जेता’ होता है जिसे अर्हत् अर्थात् तीर्थंकर कहा जाता है। उत्तर भारत के काशी एवं बिहार से उद्भूत यह धर्म धीरे-धीरे सम्पूर्ण उत्तर एवं दक्षिण भारत में फैल गया। मौर्यकाल में भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर श्रमणों के एक वर्ग के प्रस्थान कर जाने के बाद उत्तर भारत में वाराणसी एवं मथुरा से होते हुए राजस्थान एवं तदनन्तर गुजरात आदि प्रदेशों तक के भूभागों में तथा बिहार एवं बंगाल के मध्य से होते हुए उड़ीसा एवंत मिल देशों तक दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार हुआ। उत्तर एवं दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नगरों में इस धर्म के प्रचार के लिये राजाओं, महाराजाओं एवं धनिक वर्ग के लोगों ने जैन श्रमणों को अनेक दान दिये, चैत्यों एवं मठों का निर्माण कराया तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों एवं मंदिर निर्मित कराये। अत्यन्त प्राचीन काल से ही हम उड़ीसा को भी जैन धर्म के प्रचार का केन्द्र पाते हैं। संभवतः यह धर्म बिहार एवं बंगाल से होते हुए उड़ीसा में प्रविष्ट हुआ होगा। जैन आगम धर्म कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने जैन धर्म के प्रचार के निमित्त बंगाल के पणिय भूमि में अपना एक वर्ष व्यतीत किया था। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि महावीर स्वामी ने तोसलि एवं मौसली नामक स्थानों की यात्रा की थी। तोसलि की पहचान आधुनिक उड़ीसा में कटक के समीप स्थिति भू-भाग से की जाती है। इसका समर्थन आचारांगसूत्र’ से होता है जिसके अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने पश्चिमी बंगाल एवं दक्षिणी बंगाल वाले भू-भागों तक जाकर अपने धर्म का उपदेश दिया था। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से उड़ीसा में जैन धर्म का प्रवेश राजा नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था। व्यवहार भाष्य’ से पता चलता है कि उड़ीसा में तोसलिक नरेश ने जिन् मूर्ति सुरक्षित रखी थी। स्पष्टतया उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार कार्य महावीर स्वामी के काल से ही प्रारम्भ हो गया था। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल ने इस सम्बन्ध में कलिंग शासक खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख की 14वीं पंक्ति के आधार पर बताया है कि महावीर स्वामी ने स्वयं कलिंग में कुमारी नामक पहाड़ी पर जैन धर्म का उपदेश दिया था ऐतिहासिक दृष्टि से मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ही कलिंग एक महत्वपूर्ण राजनीतिक इकाई के रूप में उदित हुआ, इसका प्रमाण हाथीगुम्फा लेख है। इस लेख से ज्ञात होता है कि कलिंग की जिस जिन् मूर्ति को नन्दराजा तिवससत पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः अपने देश ले आया। यह अभिलेख अर्हतों एवं सिद्धों के नमस्कार से प्रारम्भ होता है। इससे वहाँ अर्हतों के स्मारक अवशेषों का भी पता चलता है। इस लेख से स्पष्ट होता कि नन्दराजा द्वारा मगध ले जाने वाली जिन् प्रतिमा लगभग चौथी शताब्दी ई०पू० में निर्मित हुई होगी। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपनी पत्नी के साथ कुमारी (उदयगिरि) स्थित अर्हतों के अवशेषों पर जैन साधुओं को निवास करने की सुविधा प्रदान की और अनेक स्तम्भों एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त इन्हीं पहाड़ियों पर स्थित अनन्तगुम्फा, रानीगुम्फा, एवं गणेशगुम्फा, लगभग 150 ई० पू० से 50 ई० पू० के मध्य निर्मित की गयी थी। अनन्तगुम्फा के प्रत्येक प्रवेशद्वार पर तीन फणों से युक्त दो सर्पों का चित्रण सम्भवत: जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से सम्बद्ध होने का सूचक है। इसी प्रकार रानीगुम्फा एवं गणेशगुम्फाओं में उत्कीर्ण चित्रों को भी पार्श्वनाथ से सम्बन्धित किया जा सकता है। किन्तु इस सम्बन्ध में डॉ० वी० यस० अग्रवाल ने इन दोनों दृश्यों की पहचान वासवदत्ता एवं शकुन्तला के जीवन दृश्यों से की है। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग के विवरणों से ज्ञात होता है कि उस समय कलिंग में जैन धर्म प्रचलित था। इसी प्रकार जैन ग्रन्थों में जैन धर्म के केन्द्र के रूप में पुरिय या पुरी का भी उल्लेख मिलता है। पुरी जिले में स्थित यह क्षेत्र जीवंत स्वामी की प्रतिमा के लिए विख्यात था जहाँ अनेक जैन श्रावक भी रहते थे। आवश्यक निर्युक्ति एवं आवश्यक चूर्णी से ज्ञात होता है कि जब वैर स्वामी पुरी पधारे थे, उस समय यहाँ का शासक बौद्ध धर्म का अनुयायी था। किन्तु छठी-सातवीं शताब्दी के बाणसुर लेख से ज्ञात होता है कि उसकी रानी कल्याण देवी ने धार्मिक कार्य के लिए जैन श्रमणों को भूमिदान दी थी। नौवीं दसवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक उद्योत केसरी के अतिरिक्त अन्य शासकों से संरक्षण न मिलने पर भी उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं में लोकप्रिय बना रहा। इसकी पुष्टि उड़ीसा के अन्य स्थानों से प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियों से होती है। ललाटेन्दु या सिन्धु राजा गुम्फा लेख से पता  चलता है कि उद्योत केसरी ने अपने शासन के पांचवें वर्ष में प्रसिद्ध कुमार पर्वत पर नष्ट तालाबों

Uncategorised

The Muslim Element in the Indian Population

Indo-Arab relations may be traced to the period earlier than the establishment of Islam. The merchants of both sides carried on business without any religious or political differences. But with the establishment of Muslims as a political force in Sindh in the beginning of the 8th century the relations of the two communities ceased to be friendly. The Muslims settled in large numbers in Sindh. Their outlook towards Indians was guided by their masters who acted on the behest of the Caliphs. Their hostile attitude made the Indian people change their outlook and the Muslims were regarded as ‘Mlecchas’. This term had, however, been used earlier for all those foreigners who did not share the Indian way of thinking and living. In this connection Al-Biruni remarks, “On the contrary, all their fanaticism is directed against those who do not belong to them-against all foreigners. They call then Mleccha, i.e., impure and forbid having any connection with them, be it by intermarriage, or any other kind of relationship or by sitting, eating and drinking with them because thereby they think they would be polluted.” At another place he says, “All other men except the Candal, as far as they are not Hindus. are called Mlechchha, i.e., unclean all those who kill men and slaughter animals and eat the flesh of cows.” The Candalas are mentioned in the ancient literature of India among the Mlecchas. They were the lowest among the low who were considered outside the social order. In the Chachnama the Muslims are called outcastes and coweaters. In the epigraphical records too the Muslims are mentioned as Mlecchas. The advance of the Muslims in the country was checked from time to time by the Indian rulers, though eventually they failed to stem its tide. In one of the Chauhana records their hatred towards them is recorded in connection with the victory of Vigraharaja IV, who claims to have “Once more made Aryavarta what its name signifies by repeatedly exterminating the Mlechchhas (who had rendered the name meaningless by the occupation of the country).”  However, the Hindus are not wholly to blame for the adoption of such a contemptuous attitude towards the Turks. Al-Biruni criticises the looting and plundering of the Hindu temples and the insult to their gods at the hands of the Muslims and their cruel treatment of the masses. To quote him, “Mahmud utterly ruined the prosperity of the country. This and other acts of Mahmud filled them with the most inveterate aversion toward all Muslims.” The Muslims could not be absorbed in the Hindu social order on account of their different way of life. Before the Muslims, many foreign races had come but lost their identities. Another term used for the Muslims is Turuşka in Hindu inscriptions. They had broken Hindu idols. This type of desecration is described in the Gahadavala Grant of Kumaradevi. Govinda Chandra is credited to have been commissioned by Lord Mahadeva to protect Väränasi from the wicked Turuşka warrior. The Pratihāras are generally described by the Muslim writers as the greatest enemies of the Arabs. However, they were successful in their attempts to conquer a large part of India and settled in the Gahaḍvāla dominion as well as in other parts of the country ruled by different dynasties. The settlement of the Muslims is also proved by the term ‘Turuşka Danda’ which was probably a kind of punitive tax levied on the Muslim settlers in the Gahadavala principality. They were not al- ways treated as enemies by the Hindus. Some of the Hindu rulers employed them in their armies. King Harşha of Kashmir employed the Turks in his army. We are also told that Dahir had a body of 500 Arab troops in his service. King Kalasa of Kashmir employed a Turkish architect to erect a golden parasal over the temple of Kalaseśvara.” The Muslim writers have recorded that the relations of the Rastrakūtas with the Arabs were always friendly unlike the Pratihāras of Kanauj. The Chalukyas of Gujarat contributed to the building of a mosque in their kingdom. Reclamation of the Hindus The victorious Muslims either carried a large number of Hindus as slaves to their country or forced them to accept their faith. Sometimes the alternatives placed before them were that either they should ‘go to hell’ or accept Islam. With the establishment of Muslim rule in Sindh, as the Muslim writers say, a large number of Hindus were converted to Islam by the victorious invaders. Some of the converted Hindus tried to escape to India. We have some references to the reclamation of Hindus who had been converted to Islam. Utbi says that “Nawasa Shah, formerly Sukhpal and one of the relations of Jaipal, who had been forcibly converted to Islam, gave up his new faith and was reconverted to Hinduism. Mahmud invaded Sukhpal, defeated him and took him imprisoner, but he did not give up his Hindu religion.” We are informed by Al-Baladuri that “Tanmim’s successor, Hakim found that the people of Hind apostatized and returned to idolatry excepting those of Kassa, and the Muslims had no place of security in which they could live.” This could have been possible if the Hindus accepted them to their old faith. It seems that the reclamation of the Hindus had become a regular feature by the time of Al-Biruni, who refers, for instance, to two different ways in which the Hindus behaved towards the Hindu slaves of war. On falling into Muslim hands they were sent to Muslim countries, but later on escaped to India and wished to return to their old religion. Al-Biruni says, “I have repeatedly been told that when Hindu slaves (in Muslim countries) escape and return to their country and religion, the Hindus order that they should fast by way of expiation, then they bury them in the dung, stale and milk of cows for a certain number of days, till they get into a state of fermentation. Then they drag them out of the dirt

Scroll to Top