महात्मा गांधी और सन्त कबीर के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन
भारत धर्मपरायण लोगों का देश है। देशवासी हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, जैन एवं बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, बहाई, आदि सभी को सत्य, प्रेम एवं करूणा प्रिय हैं। हमारी संस्कृति अहिंसा और शान्ति की है। माँ की ममता, पिता का वात्सल्य, गुरू का अनुग्रह और मित्रों की मैत्री हमें सहज प्राप्त होती है। मैत्री भाव रखने वालों के प्रति विचार भेद होने के बावजूद हम आत्मीयता दिखाते हैं। समाज में सदाचार, सभ्यता में सद्व्यवहार, संस्कृति में, आदर्श, व्यवहार में सर्वाेदय, साहित्य में प्रेम और साधना में श्रेय का मूल अहिंसा है। महात्मा गांधी आधुनिक काल की एक अविस्मरणीय विभूति है। प्रमुख रूप से वे भारतीय जनता के समक्ष एक महान् राजनीतिक नेता के रूप में आये, परन्तु उनका सामज सुधारक रूप विशेष उल्लेखनीय सिद्ध हुआ। धर्म अध्यात्म, दर्शन तथा समाज के प्रत्येक पक्ष पर गंाधी ने चिन्तन किया और लोकहित को दृष्टि में रखते हुए धार्मिक मत-मतान्तर तथा समाज के जातिगत एवं वर्गवत वैषम्य का अन्त करके उन्होंने एक मानव धर्म की प्रतिष्ठापना का प्रयास किया। समाज और धर्म.सुधार के क्षेत्र में गांधी अधुनिक युग में कबीर के प्रतिरूप दृष्टिगत होते हैं। अपने समय में जिस प्रकार हिन्दू-मुस्लिम एक्य और ब्राह्मण-शूद्र की समानता का स्वर लेकर कबीर अविर्भूत हुए थे, आधुनिक युग में गांधी ने पुनः उसी स्वर में उद्घोषणा की। गांधी का कार्य कबीर जैसा ही था। दोनों की समानता के सम्बन्ध में डॉ० इन्द्रनाथ मदान ने लिखा है ‘‘यदि कबीर आज होते तो वही करते जो गांधी ने किया और गांधी जी यदि कबीर के युग में होते तो वही करते जो कबीर ने किया। गांधी मानों कबीर का आधुनिक संस्करण थे।’’ कबीर के दर्शन, धर्म व समाज सम्बन्धी सिद्धानतों को गांधी ने व्यवाहारिक रूप दिया। एक अंग्रेजी लेखक ने उस पर गीता, टॉलस्टाय और रस्किन का प्रभाव स्वीकार करते हुए यह निर्णय दिया है कि उनके असली पूर्व रूप कबीर थे। हिन्दू.मुस्लिम ऐक्य के महान् प्रयास से लगकर चरखा चलाते समय तक कबीर उनकी स्मृति में रहे हैं। उनकी आध्यात्मिक साधना निर्गुणोपासना, राम नाम, सत्यान्वेषण और आग्रह, अहिंसा, अन्तःकरण शुद्धि आचरण, प्रावणता, सर्व धर्म समन्वय अछूतोंद्धार और संक्षेप में मानवतावादी भावना सभी के मूल स्रोत कबीर में है। आज से 500 वर्ष पहले सत्य के योद्धा के जीवन में संघर्ष मयता पर कबीर ने जो प्रकाश डाला था, वह मानों गांधी में आकर प्रतिफलित हुआ है। गांधी मूलतः एक आध्यात्कि साधक थे। ईश्वर के अस्तित्व में अनन्त विश्वास रखते हुए वे राम की ओर अग्रसर हुए। रामायण के श्रवण और परिवारिक दाई रम्भा द्वारा उन्हें राम नाम का संदेश प्राप्त हुआ। किन्तु कबीर के समान ही उनका राम दशरथी राम न होकर सर्वव्यापी था। अपने ‘राम’ का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा. ‘मेरा राम हमारी प्रार्थना सभा के समय का राम, वह ऐतिहासिक राम नहीं है जो दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा। वह तो सनातन अजन्म और अद्वितीय राम है। मैं उसकी पूजा करता हूँ।’ उसका उपास्य कबीर के समान ही तर्क और वाणी से परे अनुभव की वस्तु है। कबीर ने उसे गूंगे का गुड़ और इन्द्रियातीत कहा है। मानों उसी वाणी में गांधी बोलते हुए कहते हैं. ‘‘एक अलक्षणीय रहस्यमय शक्ति है जो वस्तुमात्र में व्याप्त हैं। मै इसें देखता नहीं परन्तु इसे अनुभव करता हूँ। यह अदृष्य शक्ति अनुभव द्वारा गम्य है।’’ आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में गांधी ने भी कबीर का ही मार्ग अपनाया। एक ओर ज्ञान व विवेक की जागृति द्वारा अन्तःकरण शुद्धि पर बल दिया और दूसरी ओर आचरण प्रवणता प्रेम, दया, सहानुभूति, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के परित्याग और अनाशक्ति को आवश्यक माना। साधक का वास्तविक युद्ध तो अन्तः शत्रुओं से होता है। काम, क्रोधादि पर विजय प्राप्त करके ही साधना की और प्रवृत्त हुआ जा सकता है। साधना के सहायक हमारे मित्र हैं अन्तर्दृष्टि, आत्मसंयम, सत्य और शान्ति। इन्हें पाने के लिए सर्व प्रथम विवेक की जाग्रति आवश्यक है क्योंकि विवेक के जाग जाने पर सब भावनायें उसका अनुगमन करती हैं। विवेक को जगाने का अर्थ है बुद्धि को जगाना, अच्छे और बुरे का अन्तर करना और आत्मा की आवाज को सुनना और समझना। समस्त कर्मोंं की सफलता का रहस्य आत्म शुद्धि है। अपनी ‘आत्म कथा’ के अन्त में लिखते हैं- आत्म शुद्धि के बिना जीव मात्र के प्रति एकता नहीं संभव हो सकती। आत्म शुद्धि के बिना अहिंसा धर्म का पालन सर्वथा असम्भव है, अशुद्धात्मा परमात्मा के दर्शन करने में असमर्थ है। शुद्धि होने के लिये आवश्यक है कि मन वचन और काया से निर्विकार होना, राग द्वेषादिसे रहित होना। गांधी की यह साधना सत्य के लिए थी। कबीर का जीवन यदि सत्य की खोज था तो गंाधी का ‘सत्य का प्रयोग’ सत्य ही उनका परमाराध्य था। सत्य के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना भी वे नहीं करते। कबीर ने सत्य को एकान्तिक यौगिक साधना द्वारा भी प्राप्त किया था किन्तु गाँधी ने समाज के अन्दर रहते हुए आत्म साधना द्वारा ही उसे पाया था। परस्पर एकता, आत्मभाव की अनुभूति ही उनकी सत्यानुभूति थी। अहिंसा द्वारा वे इसी सत्य को पाना चाहते थे। सत्य की प्राप्ति के उपरान्त राग, द्वेषादि स्वतः नष्ट हो जाते हैं। वे लिखते हैं, ‘सत्य का अनुगमन करने से क्रोध, स्वार्थ, द्वेष् इत्यादि का सहज ही शमन हो जाता है। शुद्ध सत्य की खोज करना राग, द्वेषादि के द्वन्द्व से सर्वधा मुक्ति पाना है। गांधी ने सत्य को अनन्त प्रकाश के रूप में भी देखा- ‘मेरी सत्य की झाँकी हजारों सूर्याें के इकट्ठा होने पर भी जिस सत्य रूपी सूर्य के तेज को पूरा अनुमान नहीं हो सकता, उस सूर्य की एक किरण मात्र का दर्शन रूप ही है। यहाँ कबीर की ‘कबीर तेज अनन्त का ऊगते सूरज मणि नामक साख का स्मरण स्वाभाविक है। कबीर के समान ही गांधी ने भी समस्त धर्मों के मूल में एक ही सत्य की खोजकर सर्वधर्म-समत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। कबीर अपने को न हिन्दू, न मुसलमान माना है किन्तु गांधी ने स्वयं को कटृटर हिन्दू माना है। फिर भी इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि सभी धर्मों के लिए उनके मन में समान आदर भाव था। उनकी प्रार्थना सभायें और उनके प्रचलन इसके साक्षी हैं। हिन्दुत्व को उन्होंने व्यापक अर्थ में ग्रहण किया। उन्होंने यह भी कहा कि मैं सच्चा हिन्दू तभी हूँ







