Modern History

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महात्मा गांधी और सन्त कबीर के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन

भारत धर्मपरायण लोगों का देश है। देशवासी हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, जैन एवं बौद्ध, ईसाई, पारसी, यहूदी, बहाई, आदि सभी को सत्य, प्रेम एवं करूणा प्रिय हैं। हमारी संस्कृति अहिंसा और शान्ति की है। माँ की ममता, पिता का वात्सल्य, गुरू का अनुग्रह और मित्रों की मैत्री हमें सहज प्राप्त होती है। मैत्री भाव रखने वालों के प्रति विचार भेद होने के बावजूद हम आत्मीयता दिखाते हैं। समाज में सदाचार, सभ्यता में सद्व्यवहार, संस्कृति में, आदर्श, व्यवहार में सर्वाेदय, साहित्य में प्रेम और साधना में श्रेय का मूल अहिंसा है। महात्मा गांधी आधुनिक काल की एक अविस्मरणीय विभूति है। प्रमुख रूप से वे भारतीय जनता के समक्ष एक महान् राजनीतिक नेता के रूप में आये, परन्तु उनका सामज सुधारक रूप विशेष उल्लेखनीय सिद्ध हुआ। धर्म अध्यात्म, दर्शन तथा समाज के प्रत्येक पक्ष पर गंाधी ने चिन्तन किया और लोकहित को दृष्टि में रखते हुए धार्मिक मत-मतान्तर तथा समाज के जातिगत एवं वर्गवत वैषम्य का अन्त करके उन्होंने एक मानव धर्म की प्रतिष्ठापना का प्रयास किया। समाज और धर्म.सुधार के क्षेत्र में गांधी अधुनिक युग में कबीर के प्रतिरूप दृष्टिगत होते हैं। अपने समय में जिस प्रकार हिन्दू-मुस्लिम एक्य और ब्राह्मण-शूद्र की समानता का स्वर लेकर कबीर अविर्भूत हुए थे, आधुनिक युग में गांधी ने पुनः उसी स्वर में उद्घोषणा की। गांधी का कार्य कबीर जैसा ही था। दोनों की समानता के सम्बन्ध में डॉ० इन्द्रनाथ मदान ने लिखा है ‘‘यदि कबीर आज होते तो वही करते जो गांधी ने किया और गांधी जी यदि कबीर के युग में होते तो वही करते जो कबीर ने किया। गांधी मानों कबीर का आधुनिक संस्करण थे।’’ कबीर के दर्शन, धर्म व समाज सम्बन्धी सिद्धानतों को गांधी ने व्यवाहारिक रूप दिया। एक अंग्रेजी लेखक ने उस पर गीता, टॉलस्टाय और रस्किन का प्रभाव स्वीकार करते हुए यह निर्णय दिया है कि उनके असली पूर्व रूप कबीर थे। हिन्दू.मुस्लिम ऐक्य के महान् प्रयास से लगकर चरखा चलाते समय तक कबीर उनकी स्मृति में रहे हैं। उनकी आध्यात्मिक साधना निर्गुणोपासना, राम नाम, सत्यान्वेषण और आग्रह, अहिंसा, अन्तःकरण शुद्धि आचरण, प्रावणता, सर्व धर्म समन्वय अछूतोंद्धार और संक्षेप में मानवतावादी भावना सभी के मूल स्रोत कबीर में है। आज से 500 वर्ष पहले सत्य के योद्धा के जीवन में संघर्ष मयता पर कबीर ने जो प्रकाश डाला था, वह मानों गांधी में आकर प्रतिफलित हुआ है। गांधी मूलतः एक आध्यात्कि साधक थे। ईश्वर के अस्तित्व में अनन्त विश्वास रखते हुए वे राम की ओर अग्रसर हुए। रामायण के श्रवण और परिवारिक दाई रम्भा द्वारा उन्हें राम नाम का संदेश प्राप्त हुआ। किन्तु कबीर के समान ही उनका राम दशरथी राम न होकर सर्वव्यापी था। अपने ‘राम’ का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा. ‘मेरा राम हमारी प्रार्थना सभा के समय का राम, वह ऐतिहासिक राम नहीं है जो दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा। वह तो सनातन अजन्म और अद्वितीय राम है। मैं उसकी पूजा करता हूँ।’ उसका उपास्य कबीर के समान ही तर्क और वाणी से परे अनुभव की वस्तु है। कबीर ने उसे गूंगे का गुड़ और इन्द्रियातीत कहा है। मानों उसी वाणी में गांधी बोलते हुए कहते हैं. ‘‘एक अलक्षणीय रहस्यमय शक्ति है जो वस्तुमात्र में व्याप्त हैं। मै इसें देखता नहीं परन्तु इसे अनुभव करता हूँ। यह अदृष्य शक्ति अनुभव द्वारा गम्य है।’’ आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में गांधी ने भी कबीर का ही मार्ग अपनाया। एक ओर ज्ञान व विवेक की जागृति द्वारा अन्तःकरण शुद्धि पर बल दिया और दूसरी ओर आचरण प्रवणता प्रेम, दया, सहानुभूति, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के परित्याग और अनाशक्ति को आवश्यक माना। साधक का वास्तविक युद्ध तो अन्तः शत्रुओं से होता है। काम, क्रोधादि पर विजय प्राप्त करके ही साधना की और प्रवृत्त हुआ जा सकता है। साधना के सहायक हमारे मित्र हैं अन्तर्दृष्टि, आत्मसंयम, सत्य और शान्ति। इन्हें पाने के लिए सर्व प्रथम विवेक की जाग्रति आवश्यक है क्योंकि विवेक के जाग जाने पर सब भावनायें उसका अनुगमन करती हैं। विवेक को जगाने का अर्थ है बुद्धि को जगाना, अच्छे और बुरे का अन्तर करना और आत्मा की आवाज को सुनना और समझना। समस्त कर्मोंं की सफलता का रहस्य आत्म शुद्धि है। अपनी ‘आत्म कथा’ के अन्त में लिखते हैं- आत्म शुद्धि के बिना जीव मात्र के प्रति एकता नहीं संभव हो सकती। आत्म शुद्धि के बिना अहिंसा धर्म का पालन सर्वथा असम्भव है, अशुद्धात्मा परमात्मा के दर्शन करने में असमर्थ है। शुद्धि होने के लिये आवश्यक है कि मन वचन और काया से निर्विकार होना, राग द्वेषादिसे रहित होना। गांधी की यह साधना सत्य के लिए थी। कबीर का जीवन यदि सत्य की खोज था तो गंाधी का ‘सत्य का प्रयोग’ सत्य ही उनका परमाराध्य था। सत्य के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना भी वे नहीं करते। कबीर ने सत्य को एकान्तिक यौगिक साधना द्वारा भी प्राप्त किया था किन्तु गाँधी ने समाज के अन्दर रहते हुए आत्म साधना द्वारा ही उसे पाया था। परस्पर एकता, आत्मभाव की अनुभूति ही उनकी सत्यानुभूति थी। अहिंसा द्वारा वे इसी सत्य को पाना चाहते थे। सत्य की प्राप्ति के उपरान्त राग, द्वेषादि स्वतः नष्ट हो जाते हैं। वे लिखते हैं, ‘सत्य का अनुगमन करने से क्रोध, स्वार्थ, द्वेष् इत्यादि का सहज ही शमन हो जाता है। शुद्ध सत्य की खोज करना राग, द्वेषादि के द्वन्द्व से सर्वधा मुक्ति पाना है। गांधी ने सत्य को अनन्त प्रकाश के रूप में भी देखा- ‘मेरी सत्य की झाँकी हजारों सूर्याें के इकट्ठा होने पर भी जिस सत्य रूपी सूर्य के तेज को पूरा अनुमान नहीं हो सकता, उस सूर्य की एक किरण मात्र का दर्शन रूप ही है। यहाँ कबीर की ‘कबीर तेज अनन्त का ऊगते सूरज मणि नामक साख का स्मरण स्वाभाविक है। कबीर के समान ही गांधी ने भी समस्त धर्मों के मूल में एक ही सत्य की खोजकर सर्वधर्म-समत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। कबीर अपने को न हिन्दू, न मुसलमान माना है किन्तु गांधी ने स्वयं को कटृटर हिन्दू माना है। फिर भी इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि सभी धर्मों के लिए उनके मन में समान आदर भाव था। उनकी प्रार्थना सभायें और उनके प्रचलन इसके साक्षी हैं। हिन्दुत्व को उन्होंने व्यापक अर्थ में ग्रहण किया। उन्होंने यह भी कहा कि मैं सच्चा हिन्दू तभी हूँ

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सांप्रदायिकता: राष्ट्रीय एकता का अवरोध(Communalism: A Barrier To National Unity)

डॉ0 एस एन वर्मा एसोसियेट प्रोफेसर. इतिहास भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में साम्प्रदायिकता बहुत बड़ी बाधा पैदा करती रही है।हाल में  राजधानी दिल्ली के उत्तर पूर्वी भाग में घटित दंगो ने सम्प्रदायिकता के दंश  को हरा कर दिया है। भारत मे अनेक विदेशी  आये लेकिन उनका मेल मिलाप भारतीय संस्कृति से हो गया। कुछ ऐसे भी रहे जिनका सामाजिक एवं धार्मिक अलगाव बना रहा। इन समूहों के साथ अनेक कारणों से तनाव बना रहा। जिससे साम्प्रदायिकता की भावना का विकास होना स्वाभाविक था। अतः एकता का  आवरण समय समय पर विदीर्ण होता दिखा। इस लेख में साम्प्रदायिकता के विभिन्न पहलुओं पर इतिहास  व समाज सम्मत विमर्श किया गया है। ‘ सामाजिक विघटन और भारत नामक ’ पुस्तक में प्रोफेसर के डी भट्ट ने सम्प्रदाय को परिभाषित करते हुए लिखा है कि मेरा सम्प्रदाय, मेरा पंथ, मेरा मत ही सबसे अच्छा है। उसी का महत्त्व सर्वोपरि होना चाहिए। मेरे सम्प्रदाय की ही तूती बोलनी चाहिए। उसी की सत्ता मानी जानी चाहिए। अन्य सम्प्रदाय हेय हैं। उन्हें या तो समाप्त  कर दिया जाना चाहिए, या यदि वे रहे भी तो मेरे मातहत होकर रहें। मेरे आदेशों का सतत पालन करें। मेरी मर्जी पर आश्रित रहें। वे आगे लिखते हैं कि अपने धार्मिक सम्प्रदाय से भिन्न अन्य सम्प्रदाय अथवा सम्प्रदायों के प्रति उदासीनता, उपेक्षा, दयादृष्टि, घृणा, विरोध और आक्रमण की भावना ही साम्प्रदायिकता है। इसका आधार वह वास्तविकता या काल्पनिक भय की आशंका है कि उक्त सम्प्रदाय हमारे अपने सम्प्रदाय और संस्कृति को नष्ट कर देने या हमारे जान माल की क्षति पहुंचाने के लिए कटिबद्ध है।जबकि ‘ रैंडम हाउस डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश लैंग्वेज ’ के अनुसार साम्प्रदायिकता अपने ही जातीय समूह के प्रति न कि समग्र समाज के प्रति तीव्र निष्ठा की भावना है। समाजशास्त्री स्मिथ कहते हैं कि  साम्प्रदायिक व्यक्ति या समूह वह है जो अपने धार्मिक या भाषा भाषी समूह को एक ऐसी राजनीतिक तथा सामाजिक इकाई के रूप में देखता है जिसके हित अन्य समूहों से पृथक होते हैं और जो अक्सर  उनके विरोधी भी हो सकते हैं। इन सभी परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि सम्प्रदायिकता का संबंध धार्मिक समूहों से है। सम्प्रदाय अपने श्रेष्ठ होने का भाव रखते हैं। साम्प्रदायिक तो दूसरे धर्म, भाषा, संस्कृति के प्रति विरोध भाव रखती है। एक सम्प्रदाय के लोंगो में दूसरे के प्रति वास्तविक या काल्पनिक भय होता है। इन सभी के समाहार से संकीर्ण मनोवृत्ति का जन्म होता है जब यह राजनीतिक संरक्षण पाने लगती है तो इसका रूप भयावह हो जाता है। साम्प्रदायिकता के कारणः साम्प्रदायिक  तनाव अनायास उत्पन्न नहीं होते हैं लेकिन कभी कारण से  भी परिपोषित नहीं होते। कभी गाय की हत्या की घटना या केवल खबर कि गाय की हत्या हो गयी है, तनाव को जन्म दे देती है। मस्जिद के आगे गाने और बैंड बजाने की घटना हो या, मुस्लिम को रंग लगाने के प्रयास से भी लोग समूह में हिंसा के लिए निकल पड़ते हैं। ताजिये के रास्ते या फिर प्रतिमा विसर्जन के मार्ग पर पथराव के कारण स्थिति  विगड़ जाती है। किसी समूह के देश विरोधी होने या फिर किसी देश विशेष के क्रिकेट मैच जीतने की खुशियां मनाने को लेकर भी तनाव फैल जाता है। अधिक संतान, आर्थिक संसाधन का दोहन, चोरी, देश के ऊपर बोझ जैसे कारण भी अनायास ही बना दिये जाते है। संकीर्णसोच, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, पक्षपात पूर्ण व्यवहार भी अनेक बार कारण बन जाते हैं। ध्यान से सोचकर सोचने से ज्ञात होता है कि ये सभी कारण  बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है।दंगो के सामाजिक और ऐतिहासिक अध्ययन  अलग ही तस्वीरें दिखाते हैं। गलत खबरें, घृणा फैलाने वाले भाषण, प्रशासन की लापरवाही ,समाचार पत्रों द्वारा उत्तेजना का प्रसार, राजनीतिक रंग आदि ही दंगे के लिए जिम्मेदार होते हैं। इनमे किसी सम्प्रदाय की निर्णायक विजय जैसा भी कुछ नहीं होता। अतः क्षणिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए खूनी तांडव के अतिरिक्त  कुछ भी हासिल नहीं होता है। जब भी सम्प्रदायिकता की जड़ों को इतिहास में खोजा जाता है तो यह कहा जाता है कि भारत मे सम्प्रदायिकता के उदय के कारण मुस्लिम आगमन से जुड़े हैं।पहले आने वाले सभी विदेशियों ने यहाँ की संस्कृति को अपना लिया लेकिन मुस्लिम नहीं अपना सके । उन्होंने जबरन शासन किया , धर्म परिवर्तन कराया। औरंगजेब आदि ने कठोर व्यवहार किया। अब अपना शासन आया है इसलिए हमें उनसे बदला लेना चाहिए। यह बात आम जनता को अपील करती है। लेकिन क्या यह बात इतनी सरल है कि  सब हिन्दू उस समय हार गए थे। मुस्लिम कितनी संख्या में आये थे और कितने लोग यहाँ के थे जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। क्या उस समय कथित हिन्दू संगठित थे या कोई संयुक्त प्रयास कर मुस्लिम आक्रमण रोक सकते थे। दिल्ली के सुल्तानों व  मुगल शासकों की लगभग 700 वर्ष की राज्य गाथा कितनी निरापद रही। किसी सामूहिक प्रतिरोध की बात अब तक ज्ञात नहीं हो सकी है। साम्प्रदायिकता की तनिक भावना रही होती तो राजपूत जिन्हें पारम्परिक रूप से सामाजिक शासक माना जाता था, वे मुस्लिम शासकों की तरफ से लड़ने न जाते। राणा प्रताप और शिवाजी जैसे हिन्दू प्रतीक मुस्लिम सेनापति न रखते। इनकी सेनाएं किसी मुस्लिम सैनिक को जगह न देतीं।  मुस्लिम सत्ताएं आपस मे ही संघर्ष न करती। इस वास्तविकता से परिचित हुए बिना इतिहास में हुए अन्याय का बदला लेने वाली मानसिकता का गुण दोष विवेचन नहीं किया जा सकता है।  भारत मे अंग्रेजी राज्य  तब स्थापित हुआ जब मुस्लिम सत्ता विखराव पर थी। इस समय भी कोई ऐसा प्रयास नहीं दिखता कि भारत की प्राचीन संस्कृति के ध्वज वाहक अपना राज्य स्थापित कर सकें। अंग्रेज , मुस्लिमो को हराकर सत्ता में आये इसलिये उन्हें प्रतिद्वंद्वी नम्बर एक मानते रहे। लगभग सौ वर्ष वाद अंग्रेजी सत्ता का विरोध भारत की जनता ने किया। इसमे कोई साम्प्रदायिक विभेद नहीं था। उस समय तक कोई सम्प्रदायिक दंगा जैसा प्रत्यय भी नहीं दिखता। मुस्लिम अपनी बदहाली को दूर करने की कोशिश कर रहे थे। अल्ताफ हुसैन की ‘ मुसद्दस ए हाली ’ इस पश्चाताप और पनुरुद्धार की अपील का प्रमाण है। हिन्दू जनता प्राचीन गौरव का गान , हम कौन थे, क्या हो गए कहकर  कर रही थी। राष्ट्रीय भावना की उर्वर पृष्ठभूमि में  साम्प्रदायिक बीज को लगा देना

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आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश की महिला क्रांतिकारियों की भूमिका (Role Of Women Revolutioneries Of Uttar Pradesh In The Freedom Movement)

डॉ. एस एन वर्मा एसोसियेट प्रोफेसर- इतिहास भारत में  अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना  कई चरणों में हुई थी।1600 ई में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई।तब से 1740 ई तक अंग्रेज़ व्यापारियों ने अपने व्यापार में ध्यान लगाया। उत्तर मुग़ल काल मे केंद्रीय सत्ता के स्थान पर क्षेत्रीय सत्ताओं का उदय हुआ।इनके सार्वभौमिक स्वरूप ग्रहण करने से अंतर्देशीय व्यापार जटिल होने लगा। व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और ख़रीद फ़रोख़्त में कठिनाई महसूस करने लगें तो उनका ध्यान राजनीतिक मुद्दों की ओर आकृष्ट हुआ।दक्षिण में पहले हस्तक्षेप और पहली सफलता मिलने से उनकी महत्त्वाकांक्षा में भी बृद्धि हुई।यह वही समय था जब अंग्रेज़ अपने अमेरिकी उपनिवेश में विरोध का आंदोलन देखने लगे थे।यूरोप की दशा भी उनके अनुकूल नही रही।आस्ट्रिया ,फ्रांस ,प्रशा, इटली , तुर्की आदि नई राजनीतिक चेतना से रूबरू थे। इसमें साम्राज्य, स्वतन्त्रता आर्थिक प्रगति, बौद्धिक चेतना आदि सभी कुछ थे।अंग्रेज़ इस नई पृष्ठभूमि से अवगत थे इसलिये एशियाई देशो को केंद्र बनाकर उन्होंने अगली रणनीतिक तैयारी आरम्भ कर दी। प्लासी ,बक्सर  और दक्षिण के युद्धों ने उनके मनोबल को शीर्ष पर पहुंचा दिया।भारत में उनके लिये मैदान खुला था।जो सेना प्रमुख अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ी हितों की रक्षा नहीं कर सके थे उनके ही अनुभव पर  भारत में अंग्रेज़ी राज्य को प्रसासनिक आधार  दिया जाता है।  भारतीय राज्य विभिन्न नीतियों के शिकार होते हुए  ब्रिटिश साम्राज्य के अंग बन जाते हैं। जैसे अभी अमेरिका के लिये कहा जाता है कि राष्ट्रपति किसी भी राजनीतिक दल से हो उसके लिए अमेरिकी हित प्राथमिक होते हैं उसी तरह कभी अंग्रेज़ो ने भी विभिन्न पृष्ठभूमि के बाबजूद अपने साम्राज्य को तरजीह दी।1857 तक उनका लगभग  पूरे भारत पर राजनीतिक  नियंत्रण हो गया। मुगलो ने सल्तनत बक्श दी या मराठो ने | लेकिन यथार्थ यह कि भारत की जनता एक सर्वथा नवीन राजनीतिक पद्धति के अधीन हो गयी।इसका मूल उद्देश्य अन्य विदेशियों के समान नही था। अंतर के अनेक विन्दुओं में सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उन्होंने कभी भी भारत को अपना  देश नही माना मतलब की अपने लाभांश का निवेश भारत में नहीं किया।यह ऐसा अंतर था जिसने दूसरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अलगाव को जन्म दिया।यह बात जनता को जल्द और राजसत्ताओं को थोड़ी देर में ही समझ मे आने लगी। जल्द ही अंग्रेज़ शासन का विरोध भी आरम्भ हो गया लेकिन छिटपुट विरोध कुछ होना नहीं था और केंद्रीय सत्ता के नाम पर कुछ था तो अंग्रेज़ो के हाथ चला गया था। विखंडन की राजनीति में नई चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता था। समय का इन्तज़ार करना ही एक मात्र उपाय था।इस बीच अंग्रेज़ो ने अपने हितों की पूर्ति के लिए आधुनिकता के औजारों का प्रयोग आरम्भ किया जैसे रेल ,डाक ,कानून, प्रशासनिक संरचना का निर्माण आदि। इसका लाभ स्थानीय जनता को भावनात्मक रूप से मिला।डलहौजी का शासनकाल वह शीर्ष बिंदु था जो साम्राज्य और असन्तोष दोनों को रेखांकित करता था। फलतः 1857 भारत की आजाद चेतना का पहला उदाहरण प्रस्तुत करता है। शत प्रतिशत न भी हो तो भी अधिकांश भारत के नुमाईंदों ने अपनी अकुलाहट सशक्त रूप से दर्ज की। धर्म ,जाति, लिंग व स्थानभेद से ऊपर जो भावना मुखरित हुई वह अंग्रेज विरोध थी। संयोग वश उत्तरप्रदेश (आधुनिक) प्रमुख केंद्र बना। अधीनता की श्रेणी में यह राज्य देर से आया था लेकिन केन्द्रीय सत्ता स्थल दिल्ली से  निकट होने के कारण  विरोध का केंद्र पहले बना। जेंडर स्टडी की दृष्टि से भी यहाँ की महिलाओं ने  भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इस आलेख में  महिलाओं की भूमिका का संक्षिप्त लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है।  1857 से पूर्व में जो विद्रोह हुए उनमे बैरकपुर और बहाबी विद्रोह जैसे इक्का दुक्का उदाहरण हैं जहाँ महिलाओं की भूमिका प्रत्यक्ष नहीं है अन्यथा अधिकांश विद्रोहो में उन्होंने न केवल हिस्सा लिया वरन अनेक विद्रोहो का नेतृत्व किया।सन्यासी विद्रोह की  देवी चौधरानी, चुआड़ की रानी शिरोमणि ,कित्तूर की रानी चेनम्मा, शिवगंगा की बेलूनचियार को कौन भूल सकता है।महिलाओं ने न केवल पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर कार्य किया वरन आगे बढ़कर पुरुष वर्ग का मार्गदर्शन और सहायता की।सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि कम उम्र की महिलाओं ने भी ऐसे कारनामे किये जिसे सुनकर आज भी लोग दांतो तले अंगुली दबा लेते है।महिलाओं की भूमिका का स्वरूप विभिन्न रंग लिए है प्रत्यक्ष  युद्ध मे भागीदारी तो एक पहलू भर है।इस पहलू पर भी उनकी संख्या कम नहीं आंकी जाती।अकेले आज़ाद हिन्द फौज में उनकी भागीदारी 50000थी ब्रिगेड की मुखिया होने के साथ। यहाँ हमारा उद्देश्य वर्तमान उत्तर प्रदेश की महिला स्वतंत्रता  सेनानियों के योगदान का स्मरण दिलाना है।शीर्षक में अंकित क्रांतिकारी तत्त्वों के साथ अन्य तरह से सक्रिय महिलाओं की भूमिका को भी मद्देनजर रखा गया है। रानी लक्ष्मी बाई:  उत्तरप्रदेश की वीरांगनाओं का नाम आते ही पहला नाम लक्ष्मीबाई का उभरता है। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी सुनकर ही बचपन व्यतीत हुआ है।इस गीत से आज़ादी के संघर्ष का प्रत्यय देशवासियो के दिल मे उतरा है। लक्ष्मीबाई झांसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी थी।उनके बचपन की कहानी बनारस से जुड़ी है जहाँ के भदैनी मुहल्ले में उनका जन्म हुआ था। घुड़सवार मनु का विवाह मराठा क्षत्रप के साथ हुआ था लेकिन उन्हें कोई संतान नही थी।उत्तराधिकारी के अभाव में गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही दामोदर राव नामक बालक को गोंद ले लिया था।1853 में राजा की मृत्यु होगयी तो लार्ड डलहौजी ने उनके राज्य को कंपनी राज्य में मिलना चाहा।तर्क यह कि झांसी का राज्य अंग्रेजो ने निर्मित किया था 1817 के मराठा युद्ध के बाद। यह एक अनुचित तर्क था इस आधार पर सभी राज्य की कंपनी की कृपा से ही बने हुए थे।रानी ने इस निर्णय का विरोध किया,अपनी झांसी नहीं दूंगी कहकर उन्होने संघर्ष आरम्भ किया।अपने बच्चे को पीठ पर बांधकर घुडसवार रानी कालपी आईं और जनरल ह्यूरोज की सेना का मुकाबला किया।लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली   हर हर महादेव कहते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिये। अजीजन बाई: वारांगना से वीरांगना बनने का उदाहरण प्रस्तुत करने वाली अजीजन कानपुर की रहने वाली थीं उनका जीवन कोठे पर से आरम्भ हुआ था लेकिन वही समाप्त नहीं हुआ।नृत्य ,देह ,व्यापार, गायन आदि के अमूमन आलसी और विलासी जीवन व्यतीत करते हुए उसे 1857 में

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गांधी की हत्या का रोमांच (The Thrill Of Killing Gandhi)

डॉ0 एस एन वर्मा एसोसियेट प्रोफेसर. इतिहास इसी वर्ष 2019 में शहीद दिवस पर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में गांधी के चित्र पर किसी संगठन की महिला नेता द्वारा नकली रिवोल्वर से गोली मारने और चित्र के नीचे खून की तस्वीर के साथ गोड़से अमर रहें के नारे सोशल मीडिया पर वायरल हुएद्य सरकार ने घटना के लिये जिम्मेदार लोगों के ऊपर कार्यवाही कीद्य पांच लोग गिरफ्तार भी किये गएद्य लेकिन फिर यह खबर आई गयी हो गयीए जैसा आजकल अधिकतर ख़बरों के साथ होता है द्य कुछ स्थानों पर इस  घटना के खिलाफ प्रदर्शन और भाषणबाजी की गयी और इतने तक ही कर्तव्य की इतिश्री मान ली गईद्य यह प्रतीकात्मक घटना जनमानस में पल रहे गांधी विरोध का एक उदाहरण या नमूना भर हैद्य इसी तरह का एक उदाहरण पिछली सदी के अंतिम वर्षो में भी देखने को मिला था जब प्रदीप दलवी ने श्मी नाथूराम गोडसे बोलतोयश् नामक मराठी नाटक लिखा था। इसे लेखक ने  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  का नाम दिया था और पक्ष.विपक्ष में खूब बहसए चर्चा.परिचर्चा हुईए लेकिन मूलभूत प्रश्न वहीं बना रहा कि गांधी हिन्दू जनता के विरोधी थे या नहीं। आज प्रश्न यह उनकी हत्या के 70 वर्ष बाद भी हत्या का रोमांच क्यों बना हुआ है जबकि भारत की सनातन धारा को युगधर्म से जोड़कर राष्ट्रीय जन आन्दोलन और सत्याग्रही प्रक्रिया को अधिक गतिशील बनाने का श्रेय एक मात्र गांधी को दिया जाता है। क्योंकि  गतिशीलता  स्वयं एक प्रस्थिति होती है इसलिए वहां पूर्णता की खोज उचित नहीं। इस बात पर सभी एकमत हैं कि गांधी जन आंदोलन के पायनियर थेए देखा जाय तो भारत की भौगोलिक अस्मिता को एकीकृत राजनीतिक अस्मिता दिलाने वाले प्रथम व्यक्ति गाँधी ही थे। ये वही व्यक्ति हैं जो एक संस्था बनने का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत कर पाते हैं।           इधर कुछ वर्षों में घटित घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि मानों गांधी के वध को स्वीकृति मिल रही है। योगा.योग तो ऐसा बना है कि वध निष्ठा की अमानवीय राजनीति करने वाले राष्ट्र जीवन के अधिकारी विद्वान होने का दावा करने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश की परिणति को प्राप्त भारतीय जन.मानस क्या अतीत जीवी होना चाहेगा। यदि नहीं तो उसे ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत हो निशंक भाव से आगे बढ़ना चाहिए। देखा जाय तो इतिहास कभी भी अतीत के सुधार की अपील नहीं करता। मेरे ख़याल से राजनीति को भी यही करना चाहिये। गांधी के उपर अब हमले होंए यह उनके जीवित होने का प्रमाण नहीं तो क्या हैघ् गोडसे के अनुसार ष्वह एक धार्मिक कृत्य था। जिस प्रकार कंस का वधए शिशुपाल का वध एक धर्मानुरूप कृत्य थाए उसी प्रकार गांधी का वध भी धार्मिक कृत्य है।ष् प्रदीप दलवी के नाटक का भी यही कथ्य है। थोड़ा ध्यान देकर देखेंगे तो यह धार्मिक कृत्य आदिम व्यवस्था का उदाहरण भी है। कोई भी सभ्य समाज उस समाज और कानून की पुनरावृत्ति नहीं चाहेगा। किसी के बुरे कार्य के लिये दंड की व्यवस्था मनुष्य की चुनी हुई सरकारों ने बनाई हैं। शायद इसी तर्क से गांधी के समर्थक गोडसे से बदला लेने की बात नहीं करते। गांधी स्वयं भी क्षमादान के हिमायती थे। आज के गांधीवादी भी सर झुकाकर काम में विश्वास करते हैं। लोग इस मामले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैए लेकिन उन्हें विचार की विचार से लड़ाई में विश्वास करना चाहिए। गोडसे ने कोई वैचारिक लड़ाई कहाँ लड़ी थीघ्               कुछ लोगों को गोडसे द्वारा प्रस्तुत बचाव.नामा एक व्यवस्थित विचार उस समय भी लगता था और आज भी। गांधी की हत्या के बाद गोडसे के पास समय था। उसने इसका उपयोग किया और अपने कृत्य को उचित ठहराने की कोशिश की। कोई भी अपराधी यही करता हैए वह अपने बचाव की हर संभव कोशिश करता हैए गोडसे ने भी यही किया। उसने जो कारण बताए उसमें गांधी को देश विभाजन कराने और इसे स्वीकार करने को प्रमुख बताया है। पाकिस्तान जिसने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा था उसे उसके हिस्से के 55 करोड़ भारत सरकार से दिलवाने को दूसरा महत्वपूर्ण कारण बताया। इसे सुनकर कोई भी गांधी के ऊपर भड़क सकता है। सर्वोदय आंदोलन के वरिष्ठ चिंतक चुनी भाई वैद्य ने गांधी की हत्या के संदर्भ में गढ़े इन तर्कों का जबाब गांधी की हत्या क्या सच क्या झूठ मे दृढ़ता से दिया है। वे लिखते हैं कि गांधी की हत्या के आठ प्रयास हुए थे। इन प्रयासों में चार उस समय हुए थे जब पाकिस्तान बनने और 55 करोड़ की बात स्वप्न में भी नहीं थी। पहला प्रयास 1934 में हुआ था जब गांधी पूना नगरपालिका द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया लेकिन वे बच गए। इस घटना में नगरपालिका के मुख्य अधिकारी समेत सात लोग घायल हुए थे। उस समय तक पाकिस्तान ज्यादा से ज्यादा कवि इकबाल और छात्र रहमत की कल्पना में ही था। अतः बहुप्रचारित पाक फैक्टर हमेशा हमले का कारण नहीं था। कुछ संगठनों के कार्यकर्ताओं को गांधी के कार्यक्रम अखरते थे। अंग्रेज़ तो उनके आंदोलनों के लक्ष्य थे ही इसलिए उनकी कूट रचना और बेवजह गिरफ्तारी पर कोई संशय नही था। गांधी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 की जुलाई में हुआ थाए उस समय भी पाकिस्तान की भूमिका स्पष्ट नहीं थी। नाथूराम छूरा लेकर सामने आ गया था। सतारा जिला बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष भिसारे ने उसके हथियार को छीन लिया था। गांधी ने तुरंत गोडसे को बातचीत के लिए बुलायाए पर वह नहीं गया। तीसरा प्रयास सितंबर 1944 में तब हुआ जब गांधीए जिन्ना से वार्ता करने बम्बई जाने वाले थे। पूना का एक समूह वर्धा गया था। इनमें एक व्यक्ति थत्ते के पास से पुलिस को छूरा मिला। थत्ते का कहना था कि उसने गांधी की गाड़ी को पंचर करने के लिये छूरा रखा था। गांधी के निजी सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि उस दिन डी सी पी का फोन आया था कि प्रदर्शन के समय अनहोनी हो सकती है। पुलिस ने गांधी के निकलने के पहले ही प्रदर्शनकारियों को पकड़ लिया। इस समय भी पाकिस्तान को स्वीकार करने और 55 करोड़ की बात नहीं थी। जून 1946 में एक और प्रयास किया गया थाद्य जिस

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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की राष्ट्रवादी दृष्टि (Nationalist View of Bhartendu Harishchandra)

जिस समय भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, बड़ी ही विवशतापूर्वक अपना धर्म, अपनी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति तथा आघ्यात्मिक बल खोता जा रहा था, ठीक उसी समय भारत के साहित्यिक मंच पर एक ऐसे सितारे का अभ्युदय हुआ, जिसने भारत को धरातल से उठाकर आसमान की बुलन्दियों पर अवस्थित कर दिया। यह सितारा कोई और नहीं बल्कि बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे। आपका जन्म काशी में भाद्रपद शुक्ल विक्रम संवत् 1907(1850ई0)  9सितम्बर को हुआ था।                 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का सम्पूर्ण जीवन लेखन, समर्पण और संघर्ष की अनन्त गाथा है। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के द्वारा समाजोत्थान और राष्ट्रीय जन-जागरण का महनीय कार्य किया, उस कार्य के लिए उन्होंने शस्त्र के स्थान पर लेखनी को ही एक कारगर हथियार के रूप में प्रयुक्त किया। अपने क्रान्तिकारी विचारों से सरकारी नीतियों की आलोचना अविरल रूप से जारी रखने के लिए उन्होंने छद्म रूप से राज्यभक्ति का भी प्रदर्शन किया। उनके सामने सम्पूर्ण देश की तस्वीर थी इसीलिए उनका लेखन व्यष्टि के लिए नहीं, समष्टि के हितों के लिए था। राजसी वैभव में रहकर भी वे राजसी मानसिकता से दूर रहे, सामन्तवादी वातावरण से जुड़कर भी वे सामन्तवादी प्रभाव से अछूते रहे, महाजनवादी संस्कारों में पलकर भी उनका दृष्टिकोण जनवादी रहा। व्यक्ति और राष्ट्र की चिन्ता उनके जीवन और लेखन का केन्द्र बिन्दु बना। भारतेन्दु ने जन-सामान्य के दुःख-दर्द को, अन्धी परम्पराओं को, उसके अन्धविश्वासों और दासता की गर्हित मानसिकता को साहित्य का केन्द्रीय कथ्य माना और उसे जन के साथ जोड़ा। उन्होंने पत्रकारिता को जन की समस्याओं के लिए एक नश्तर की तरह इस्तेमाल किया और साहित्य से मरहम का काम किया, सामाजिक कुरीतियों से आदमी की मुक्ति के लिए उन्होंने आवाज उठायी। विदेशी दासता से देश को मुक्त करने के लिए उनहोंने देशवासियों में राष्ट्रीयता का प्राण फूँका और अंग्रेजों की भारत-विरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया। उन्होंने समाज और स्वदेश प्रेम का मंत्र दिया तथा स्वदेशी का उद्घोष किया, अंग्रेजों के अत्याचारी रवैये की निन्दा की और अपनी रचनाओं के द्वारा उन पर तीखा प्रहार किया-                 ‘‘मरी बुलाऊँ देश उजाडूँ, मँहगा करके अन्न                  सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धन्न                  मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानोजी।’’                 ‘‘अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी।                  पै धन विदेश चलि जात, यहै अति ख्वारी।।’’                 भारतेन्दु जी का अवतरण भारतीय सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास-फलक पर ऐसे समय हुआ जब देश 1857 ई0 की आजादी की पहली लड़ाई हार चुका था और जनमानस में एक घोर निराशा व्याप्त हो गयी थी। सामाजिक रूढ़ियों, कुरीतियों, धर्मान्धता और पुर्नजन्मवाद की मानसिकता के परिणामस्वरूप देश सम्पन्न और विपन्न, ऊँच और नीच, छूत और अछूत के बीच संकुचित दायरों में बँटा हुआ था। इतिहास की एक ऐसी विषम घड़ी में वक्त की जरूरत बनकर भारतेन्दु जी पैदा हुए थे।                 इतिहास की धारा से प्रभावित होने वाले व्यकित अनेक होते हैं किन्तु उस धारा को प्रभावित करने वाला कोई एक होता है। इतिहास की धारा का अनुसरण करने वाले अनेक हो सकते हैं पर धारा को प्रवाहित करने वाला, नया मोड़ और गति पैदा करने वाला कोई एक होता है। हिन्दी साहित्य और भारतीय नव-जागरण के इतिहास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का स्थान इतिहास की धारा को प्रभावित करने वाले, उसे नया मोड़ देने वाले, नयी जीवन शक्ति और ऊष्मा से अभिषिक्त करने वाले महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में ही है। उनके छोटे से जीवन की एक लम्बी कहानी है जो अतुलनीय और अकथनीय है। वे साहित्य-सेवी ही नहीं समाजसेवी भी थे, विद्यानुरागी ही नहीं कलानुरागी भी थे, वे धर्मात्मा ही नहीं धर्म और दर्शन के मीमांसक भी थे। वे समाज-सुधारक ही नहीं धार्मिक रूढ़ियों और अन्धविश्वासों के भी परिमार्जक थे। वे प्रेमी रसिक और कृष्णभक्त ही नहीं, राष्ट्रभक्त भी थे।

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‘हिन्द स्वराज’ एक विवेचन (Hind Swaraj : A Study)

महात्मा गांधी का ‘स्वराज‘ एक वैचारिक यात्रा का तार्किक निष्कर्ष था। जिस पृष्ठभूमि में भारत की आजादी की अवधारणा विकसित हो रही थी, उसका सरोकार मात्र सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं था ऐसा सोचने वालों में महात्मा गांधी पहले व्यक्ति नहीं तो अग्रणी व्यक्ति अवश्य थे। गांधी ने पाया था कि भारत के क्रान्तिकारी स्वराज के प्रति सीधी परन्तु अराजक सोच रखते हैं उनके इस चिन्तन का आधार साधन की पवित्रता था। उनके विचार से क्रान्तिकारी उस आलोचनात्मक विवेक का विकास नहीं कर सके थे जिससे औपनिवेशिक शासन से प्रभावित आधुनिक परिवेश का निर्माण हुआ था। क्रान्तिकारी कार्य और सोच की प्रकृष्टता का स्वरूप वैसा नहीं मानते थे जिसका भावात्मक आधार दादा भाई नौरोजी ने तैयार किया था। वे तो हिन्दुस्तान के पढ़े लिखे लोगों खासकर नौजवानों को तन्द्रा त्यागकर जागृत और सक्रिय होने का संदेश दे रहे थे। गोपाल कृष्ण गोखले, सर वेडरवर्न तथा तैय्यव जी हिन्दुस्तान का हित चिन्तन कर रहे थे। पश्चिम की यात्रा कर चुके भारतीय युवा इस अविश्वास भी भावना से कार्यरत थे कि उदारवादी नेता आन्दोलन की भ्रूण हत्या करना चाहते हैं उनका अविश्वास एनीबेसेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे राष्ट्रवादियों के प्रति भी हो चला था। कुछ अति उत्साही उन्हें ‘पूतना‘ कहने लगे थे जिसे अंग्रेज कंस के विष लगा स्तनपान कराकर ‘स्वराज‘ के बालकृष्ण की हत्या के लिए भेजा था। इस परिस्थिति में गांधी को हिंसा प्रेरित क्रान्तिकारिता के पक्षघरों की शंकाओं व गलत-फहमियों का निराकरण करना था। गांधी जी जब एक विद्यार्थी के रूप में लन्दन पहुँचे थे उस समय गुजरात के काठियाबाड़ क्षेत्र के प्राण जीवन मेहता लंदन में ही थे। प्राण जीवन मेहता बम्बई के ग्रांट मेडिकल कालेज से पढ़कर व्रसेल्स नगर में पर स्नातक शिक्षा के लिए गए थे। बाद में लंदन से बैरिस्टर की डिग्री लेकर गुजरात में चिकित्सा अधिकारी रह चुके थे। किसी कार्य से वे 1909 में लंदन में थे। गांधी से उनकी मुलाकात एक होटल में हुई फिर दोनों एक माह तक सम्पर्क में रहे। डा0 प्राणजीवन मेहता गांधी को मूर्ख और भावुक व्यक्ति मानते थे। कानून और चिकित्सा विज्ञान के जानकार डा0 मेहता प्रबल बुद्धिवादी थे उनका विचार तार्किक अराजकतावादी था इसलिए गांधी उन्हे क्रान्तिकारी अराजक मानते थे। दोनों के आपसी सम्पर्क, जो एक माह तक बना रहा, के दौरान गांधी ने मेहता को तर्क से पराजित कर दिया अन्ततः डा0 मेहता गांधी के विचारों से सहमत हो गए। उन्होंने आजीवन गांधी तथा उनके परिवार को आर्थिक सहायता पहुँचाई। गांधी के बड़े भाई के निधन पर गांधी परिवार में पांच विधवाएं बच रही थी इनके भरण पोषण का खर्च डा0 मेहता ने उठाया। गांधी ने जब साबरमती आश्रम की स्थापना कर संकल्प लिया था तो प्राण जीवन मेहता ने बिना मांगे 1) लाख रूपये भेज दिये थे। चम्पारन आन्दोलन के दौरान जब राजकुमार शुक्ल के आह्वान पर गांधी जी बिहार गए थे उस समय भी डा0 मेहता से सहायता लेना मुनासिब समझा था। इन्हीं प्राणजीवन दास जगजीवन दास मेहता से हुई गांधी की बातचीत का विवरण ‘हिन्द स्वराज  है। संवाद शैली में रचित इस पुस्तक में नाटकीय और रोमांच जगह-जगह पर दिखाई पड़ता है। पहले ही अध्याय में ‘ठहरिए आप तो बहुत आगे बढ़ गए हैं, ‘आप अधीर हो गए हैं, ‘मैं अधीरता बर्दास्त नहीं कर सकता, ‘गोल-मोल जवाब देकर आप मेरे सवालों को उड़ा देना चाहते हैं,‘ जैसे वाक्य दिखते हैं जो संवाद को निहायत दिलचस्प बना देते हैं। यह संवाद शैली भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीन है। अतः यह कहा जा सकता है कि गांधी इस शैली को पुस्तक रचना के समय से पहले से जानते थे। हिन्द स्वराज के लिए संवाद शैली के चयन करते समय सम्भवतः वे दो और चीजें ध्यान में रख रहे थे पहली तो प्लेटों के डायलाग और दूसरी एच.पी. ब्लावटस्की की क्रिश्चियन जिसमें विक्टोरिया कालीन नैतिक पाखण्ड और आधुनिक यूरोपीय सभ्यता की कठोर आलोचना की गई थी। जो भी सच हो लेकिन इतना तय लगता है कि यह उस समय के लिए अनोखी शैली थी। गांधी जी ने स्वयं 1940 में मलिकदां बैठक में स्वीकार किया था कि यह पुस्तक डा0 प्राण जीवन मेहता से हुई बातचीत की ‘जस की तस‘ प्रस्तुति है। 1940 तक वे अपने विचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का संकल्प भी व्यक्त करते हैं। स्वराज के बारे में गांधी जी इस पुस्तक के अतिरिक्त अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी अपना विचार प्रस्तुत करते हैं। मसलन हिन्द नवजीवन के 29 जनवरी 1925 के अंक में वे कहते हैं कि ‘‘स्वराज से मेरा अभिप्राय है कि लोकसम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन लोक सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी से बड़ी तादाद के मत के जरिये हो, फिर चाहे स्त्रियां हो या पुरूष इसी देश के हो या इस देश मं आकर बस गए हों, वे लोग ऐसे हो जिन्होंने अपने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की कुछ सेवा की हो और जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम लिखवा लिया हो। सच्चा लोकतंत्र थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता है, तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें हैं।‘‘ हरिजन के 1939 के 25 मार्च के अंक में वे कहते हैं कि ‘मेरे स्वराज की अवधारणा में अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे। उसमें ऐसा नहीं होना चाहिए कि चन्द अमीर तो रत्न जड़ित महलों में रहें और लाखों- करोड़ों ऐसी मनहूस झोपड़ियों में, जिनमें हवा और प्रकाश का प्रवेश न हो। सुसंगठित राज्य में किसी के न्याय अधिकार का किसी दूसरे के द्वारा अन्यायपूर्वक छीन लिया जाना असम्भव होना चाहिए। इसी प्रकार के राष्ट्र, मजदूर, किसान शिक्षा, भाषा स्त्रियों की दशा दलितों महिलाओं, डाक्टरों, वकीलों, विद्यार्थियों साम्प्रदायिकता, अपश्चता आदि के बारे में स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करते हैं। वे अपने पत्र ‘हरिजन बन्धु‘ के अंक (30/4/33) में कहते हैं कि ‘‘मेरे लेखो का मेहनत से अध्ययन करने वालों और उसमें दिलचस्पी लेने वालों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे एक ही

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आधुनिक भारत में जातिगत चेतना(Caste Consciousness in Modern India) (उत्तर भारत के विशेष सन्दर्भ में)(Special Reference of North India)

बीसवीं सदी के प्रारम्भिक चरण में पाश्चात्य नवजागरण से प्रभावित सामाजिक सुधारों के प्रति आस्थावन बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पनपने लगा था। राष्ट्रीय भावना के विस्तार के साथ नए आर्थिक स्रोतों की उपलब्धता और शिक्षा एवं अनुकरण की प्रवृत्ति ने सम्पन्न दलित और गैर-ब्राह्मण मध्यम वर्ग की जातियों Caste) में संस्कृतिकरण के भाव भर दिए। अपनी-अपनी जातीय(Caste) संस्कृति और इतिहास जानने की ललक उठी और समाज में स्थान पाने की व्याकुलता बढ़ी। विभिन्न जातियों ने, विशेषकर उत्तर भारत में जातीय सभाओं और संगठनों का निर्माण कर समाज में अपने दर्जे को ऊँचा करने के लिए आन्दोलन किए। ऐसे संगठन मुख्यतः मझोली (और कभी-कभी निम्न) जातियों (Caste) के पर्याप्त छोटे शिक्षित समूहों द्वारा संगठित किए जाते थे। व्यवसाय तथा नौकरियों की होड़ में देर से शामिल होने के कारण इन लोगों को लगता था कि इस क्षेत्र में पहले से स्थापित ब्राह्मणों एवं अन्य जातियों के विरुद्ध संघर्ष की दृष्टि से एकत्रित होने के लिए जाति एक उपयोगी साधन हो सकती है। इन जातिगत आन्दोलनों की उध्र्वगामी गतिशीलता को ‘संस्कृतिकरण’ कहा गया है। इनमें उत्तर भारत में पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन, आगरा में जाटव समुदाय का आन्दोलन, अछूतानन्द के आदि हिन्दू आन्दोलन की विशेष चर्चा की गई है। पंजाब का आदि-धर्म आन्दोलन–                 उत्तर भारत में विभाजनपूर्व के पंजाब की निचली और अछूत जातियों में 1926 में आदि-धर्म आन्दोलन चलाया गया। बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में आदि-धर्मी दलित-अछूत सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि से बहुत संगठित हुए। इस आन्दोलन ने दलित वर्ग को समाज में गौरव और आदरपूर्ण स्थान दिलाया जिसके परिणामस्वरूप दलित वर्ग संगठित होने को प्रेरित हुआ। नगरीय सम्भ्रान्त दलित वर्ग में यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया था।                 पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन के पहले 1924 ई. में मद्रास में आदि द्रविड़ महाजन सभा द्वारा आन्दोलन चलाया गया था। इसी तरह आन्ध्र प्रदेश में ‘आदि आन्ध्र आन्दोलन’ चलाया गया था। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत के अछूत वर्ग की स्थिति में काफी सुधार आया था। इसी से सीख लेकर पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन 1926 ई. में एक सुसंगठित रूप में सामने आया। इस आन्दोलन में दो अछूत जातियाँ- चमार (चर्मकार) और चूहड़ा (सफाई कर्मचारी) शामिल थीं जो पंजाब में बड़ी संख्या में थीं। पंजाब में पहले से चले आ रहे समाज सुधार आन्दोलनों से यह एकदम अलग था। आदि धर्म आन्दोलन चलाने वाले नेता आरम्भ में आर्यसमाजी थे, जो बाद में दक्षिण के रामास्वामी नायकर के आत्म-सम्मान आन्दोलन से प्रभावित होकर उन्हीं का अनुकरण करने लगे। आर्य समाज के संबंध में उनका मानना था कि वे केवल शुद्धि आन्दोलन द्वारा हिन्दुओं की संख्या बढ़ा रहे है। जो शुद्धि आन्दोलन द्वारा निम्न वर्गीय लोग हिन्दू बनते हैं, उन्हें वह यह अहसास दिलाते हैं कि वे उनसे छोटे हैं। आदि धर्म आन्दोलन के नेताओं ने दक्षिण के आदि-आन्दोलनों की तरह प्रचारित किया कि वे ही भारत के आदि मूलनिवासी हैं और उनकी अपनी धार्मिक मान्यताएं हैं, बाद में ब्राह्मणों ने उन पर हिन्दू धर्म बलात् थोप दिया है।                 पंजाब के आदि-धर्मियों ने सार्वजनिक कुओं से पानी भरने, हिन्दू जमींदारों की तरह भूमि अधिकार दिए जाने, सार्वजनिक सम्पत्तियों के उपयोग करने और ऊँची जातियों के अत्याचार से मुक्त करने की माँग की। आदि धर्म को मानने वाले लोगों का मानना था कि उन्हें समान अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना है। इस आन्दोलन के कार्यकर्ता प्रायः बैठकों के बाद एक साथ गाँव या नगर के तालाब पर जाते थे और स्नान करके उच्च हिन्दू जातियों (Caste) द्वारा उस परम्परागत प्रतिबन्ध को तोड़ते थे कि अछूत वहाँ पानी नहीं भर सकते। यह एक ठोस कार्रवाई थी जिससे न केवल अछूत जातियों में परस्पर अलगाव की प्रवृत्ति दूर हुई जो सवर्ण हिन्दुओं द्वारा उन पर लादी गई थी, बल्कि उनमें जातीय एकता भी बढ़ी।                 पंजाब का आदि-धर्म आन्दोलन आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों का बहुआयामी आन्दोलन था। आदि-धर्म के आन्दोलनकर्मियों ने माँग किया कि आगामी जनगणना (1931) में उन्हें हिन्दू की जगह आदि-धर्मी लिखा जाए। इन्होंने माँग की कि उन्हें सार्वजनिक , तालाबों से पानी का उपयोग करने दिया जाएं, हिन्दू जमींदारों की तरह समान भूमि अधिकार दिए जाएं, उन्हें सार्वजनिक जातीय सम्पत्तियों का उपयोग करने की छूट दी जाए, उन्हें ऊँची जातियों के अत्याचारों से बचाया जाए और साथ ही उनके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ और अधिकार दिए जाएं। इस समाज के लोग अपने आपको आदि धर्मी मानने लगे थे और जनगणना में भी उन्होंने अपने आप को आदि धर्मी लिखवाया जिससे पंजाब में अछूतों की संख्या में कमी आ गई।                 इसी दौरान जब डॉ. अम्बेडकर ‘लोथियन समिति’ के लिए जनसंख्या सम्बन्धी तथ्य एकत्र कर रहे थे, तो उन्होंने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि 1931 ई. में पंजाब के अछूतों की जनसंख्या में 1911 ई. के मुकाबले कमी आई है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि, ‘‘इसकी वजह आदि धर्म आन्दोलन है। 1931ई. की जनगणना में भाग लेने वाले आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने अपने लोगों और स्वयं को आदि धर्मी लिखवाया था हिन्दू नहीं जैसा कि पहले होता आया था। अम्बेडकर ने लिखा कि सरकार ने उनकी बात मान ली है और आदेश जारी कर दिए हैं कि जो जनगणना कर्मचारी हैं, वे उन लोगों को एक नए शीर्षक में ‘आदि धर्मी’ लिखें जो कि ऐसा लिखवाना चाहते हैं। इससे अछूत जाति पंजाब के कई हिस्सों में बंट गई। इस कारण सवर्ण हिन्दुओं और अछूतों में कई स्थानों पर संघर्ष हुए और कुछ स्थानों पर अछूतों पर दबाव डाला गया कि वे अपनी पुरानी जाति(Caste) पर आएं और उसे ही लिखवाएं। यद्यपि कई स्थानों पर उन्हें आदि धर्मी की लिखा गया और जाति नहीं लिखी। गई।                 इस प्रकार पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन से उत्तर पश्चिमी भारत के सभी अछूतों में जोश की एक लहर सी दौड़ गई और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए ये लोग सजग होने लगे। कालान्तर में आदि धर्मी लोगों ने काफी प्रगति की और इससे प्रेरणा लेकर कई अछूतों ने अपने सामाजिक और आर्थिक सतर में सुधार लाने के लिए प्रयास किए। आगरा का जाटव आन्दोलन-                 उत्तर भारत के दलित आन्दोलन में आगरा आन्दोलन का विशेष महत्त्व है। जातीय (Caste)आन्दोलन और संस्कृतिकरण से शुरू होकर इसने समाज में अपनी पहचान बनाई।

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