प्राचीन भारतीय इतिहास जानने का पुरातात्त्विक स्रोतः (Archaeological Sources Of Knowing Ancient Indian History)
पुरातत्वीय स्रोत से तात्पर्य है पुरातन समय के अब तक अवशेष रूप में रहे विभिन्न साधन और राजाओं या अन्य सन्दर्भों में लगवाये गये अभिलेख। विभिन्न साधनों में भवन, मंदिर, गुफायें, पात्र, मुद्रायें, मुहरें, एवं मूर्तियां आदि अपना विशेष महत्व रखते हैं। विभिन्न पुरातात्विक महत्व के स्थलों के उत्खनन से प्राप्त प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त होते हैं और अभी भी प्राप्त होते रहते हैं। कभी-कभी सम्पूर्ण बस्ती और नगर के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं, जो कभी किन्हीं प्राकृतिक आपदाओं से जमीन में दब गये थे। इस रूप में भारतीस इतिहास की परम्परा में सन् 1920-22ई0 में पुरातत्ववेत्ताओं को खुदाई के बाद हड़प्पा और मोहनजोदड़ों से दो विशाल नगरों के ध्वंशावशेष मिले और ज्ञात हुआ कि प्राचीन भारत के पुरा इतिहास में सिन्धु घाटी में एक उच्च कोटि की नगरीय सभ्यता के निर्माता और निर्वाहक, भारतीय नागरिक निवास करते थे। सैन्धव सभ्यता से सम्बन्धित अवशेष पुरातत्वीय साधनों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रख्ते हैं। पुरातत्वीय सामग्री की एक विशाल श्रृंखला है। प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्त्विक सामग्री का विशेष महत्त्व है। पुरातात्त्विक स्र्रोत साहित्यिक स्रोतों की अपेक्षा अधिक प्रमाणिक और विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इनमें किसी प्रकार के हेर-फेर की सम्भावना नहीं रहती है। पुरातात्त्विक स्रोतों के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला, उत्खनित अवशेष आदि आते हैं। अभिलेख एवं शिलालेख: पुरातात्त्विक स्रोतों के अंतर्गत सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। अभिलेखों, शिलालेखों की बहुलता से प्राप्ति हुई है। अभिलोखों और शिलालेखों को उनकी निर्माण शैली और विभिन्न स्थानों से प्राप्ति के आधार पर अनेक वर्गों में बाँटा गया है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तंभों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं, पात्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। जिन अभिलेखों पर उनकी तिथि अंकित नहीं है, उनके अक्षरों की बनावट के आधार पर मोटे तौर पर उनका काल निर्धारित किया जाता है। प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी देने वाले समस्त अभिलेखों की जानकारी देना यहाँ असंभव है। अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्राफी) कहा जाता है। भारतीय अभिलेख विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है। प्रिंसेप को पता चला कि अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर ‘पियदस्सी’ नामक किसी राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम ‘अशोक’ भी लिखा मिला। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक सर्वाधिक प्रसिद्ध शासकों में से एक था। इस शोध से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली। भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया। 1877ई0 में कनिंघम महोदय ने ‘कापर्स इन्सक्रिप्शन इंडिकेरम’ नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया। इसमें मौर्य, मौर्योत्तर और गुप्तकाल के अभिलेखों का संग्रह है। हिन्दी में अभिलेखों का एक संस्करण डा0 राजवली पाण्डेय महोदय ने प्रकाशित किया है। अभी तक विभिन्न कालों और राजाओं के हजारों अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। यद्यपि भारत का सबसे प्राचीनतम अभिलेख हडप्पाकालीन हैं, लेकिन अभी तक सैन्धव लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। अतः भारत का प्राचीनतम् प्राप्त अभिलेख प्राग्मौर्ययुगीन पिपरहवा कलश लेख या पिपरहवा धातु-मंजूषा अभिलेख (सिद्धार्थनगर), बड़ली (अजमेर) से प्राप्त अभिलेख एवं बंगाल से प्राप्त महास्थान अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं। महास्थान शिलालेख एवं सोहगौरा ताम्रलेख प्राचीन भारत में अकाल से निपटने के लिए खाद्य आपूर्ति व्यवस्था (राशनिंग) पर प्रकाश डालता है। भगवान बुद्ध के अस्थि-अवशेष के सम्बन्ध में जानकारी देने वाला पिपरहवा कलश लेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में निर्गत यह अभिलेख सुकृति बंधुओं द्वारा स्थापित करवाया गया था। अपने यथार्थ रूप में अभिलेख सर्वप्रथम अशोक के शासनकाल के ही मिलते हैं। मौर्य सम्राट अशोक के इतिहास की संपूूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। माना जाता है कि अशोक को अभिलेखों की प्रेरणा ईरान के शासक डेरियस से मिली थी। प्राचीन भारतीय इतिहास की परम्परा में अभिलेख और शिलालेखों की परम्परा अति प्राचीन रही है, इसके अंकुरण और उषाकाल को बताना असंभव है। सम्राट अशोक ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में अपने धर्म, अपनी प्रशासनिक नीतियों, प्रशासनिक कर्मचारियों आदि को निर्देशित करने की व्याख्या करते हुए बड़े वैज्ञानिक ढ़ग से अपने अभिलेखों का स्थापित करवाया। अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- शिलालेख, स्तंभलेख और गुहालेख। शिलालेखों और स्तंभलेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। चैदह शिलालेख सिलसिलेवार हैं, जिनको ‘चतुर्दश शिलालेख’ कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असंबद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं। शायद इसीलिए उन्हें ‘लघु शिलालेख’ कहा जाता है। इस प्रकार के शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जटिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं। लघुशिलालेख में अशोक संघ शरण की महत्ता पर प्रकाश डालता है। अशोक ने अपने स्तम्भ लेखों में धर्म, धम्मघोष और लोकोपकारी कार्यों का वर्णन मिलता है। पंचम स्तम्भलेख (दिल्ली-टोपरा) में अहिंसा व्रत के अन्तर्गत सभी जीवों को अबध्य माना गया है। गिरनार के षष्ठम स्तम्भलेख में अशोक के प्रजा हित चिंतन के दायित्व के निर्वाह के विषय में लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि ‘ सब समय, चाहे मैं भोजन कर रहा हूँ, अन्तःपुर में रहूँ, शयनकक्ष में रहूँ, पशुशाला या पालकी में रहूँ, उद्यान में रहूँ, सर्वत्र प्रतिवेदक स्थित रह कर जनता के कष्टों से मुझे प्रत्यावेदना करें’। एक अभिलेख, जो हैदराबाद में मास्की नामक स्थान पर स्थित है, में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त गुजर्रा तथा पानगुड्इया (मध्य प्रदेश) से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उसको देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा कहा गया है। अशोक के अधिकांश अभिलेख मुख्यतः ब्राह्यी में हैं, जिससे भारत की हिंदी, पंजाबी, बंगाली, गुजराती और मराठी, तमिल, तेलगु, कन्नड़ आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पाये गये अशोक के कुछ अभिलेख खरोष्ठी तथा आरमेइक लिपि में हैं। ‘खरोष्ठी लिपि’ फारसी की भाँति दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी। मौर्यवंश से संबन्धित सात गुफायें अबतक प्राप्त हुई हैं।








