गोविन्द तृतीय (793- 814 ई0)Rashtrakuta ruler Govind III (793-814 AD)
ध्रुव प्रथम के कई पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। स्तंभ रणावलोक, (कम्बरस), कर्कसुवर्ण, गोविन्द तृतीय तथा इन्द्र के नाम स्पष्टतः प्राप्त होते है। ये चारो ही पुत्र योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे। पिता के जीवन काल में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे थे। स्तम्भ गंगों के पराजय के बाद गंगवाड़ी के शासक के रूप में शासन कर रहा था। कर्कसुवर्णवर्ष खानदेश के प्रशासन को संभाल रहा था। गोविन्द एवं इन्द्र अपने पिता के अभियानों में सहयोग कर रहे थे। बाद में गोविन्द उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ तथा इन्द्र को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक बनाया। इन पुत्रों के मध्य सिंहासन के लिए संघर्ष अवश्यम्भावी था क्योंकि सभी अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं महत्वाकांक्षा से अवगत थे। इस स्थिति से बचने के लिए ध्रुव प्रथम ने अपने योग्यतम तृतीय पुत्र को युवराज नियुक्त कर दिया। युवराजत्व चिन्ह कण्ठिका से गोविन्द तृतीय को अलंकृत किया। यहाँ तक कि जब ध्रुव प्रथम इससे भी आश्वस्त न हुआ तो उसने गोविन्द के पक्ष में सिंहासन का परित्याग कर संन्यास ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा किन्तु गोविन्द तृतीय इससे सहमत न हुआ। पैठन दानपत्रों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय ने संस्कारगत रूप में पिता से राज्य प्राप्त किया था। कर्क के सूरतपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द ने अपने पिता से युवराज पद ही नहीं वरन् सम्राट पद भी प्राप्त किया था। “राज्याभिषेक कलशैरभिषिच्यदत्ताम्। राजाधिराजपरमेश्वरतां स्वपित्राः।। (कर्क का सूरत अभिलेख) उपर्युक्त विवरण से यह स्वयमेव संभावित है कि ध्रुव प्रथम ने समस्त उत्तराधिकार सम्बंधी आपत्तियों से गोविन्द तृतीय की सुरक्षा के लिए अपने जीवन काल में पूर्ण राजत्व प्रदान कर दिवंगत हुआ होगा। सिंहासनारोहण के बाद गोविन्द तृतीय ने प्रभूतवर्ष, जगत्तुंग, जनवल्लभ, कीर्तिनारायण तथा त्रिभुवन धवल जैसी उपाधियाँ धारण कीं। गृहयुद्ध- ध्रुव प्रथम की मृत्यु के उपरांत एक वर्ष के पूर्व ही प्रकाशित पैठन दानपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय का सिंहासनारोहण संस्कार एकदम शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पत्र हुआ। किन्तु स्तम्भ ने अपने अधिकारों से वंचित रह कर बड़ा अपमानित अनुभव किया। गोविन्द के विरुद्ध द्वादश राजाओं का एक संघ बनाकर विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि स्तंभ के समर्थक शासकों की सूची नहीं प्राप्त होती, किन्तु गोविन्द के अभियानों से ज्ञात होता है कि पड़ोसी शासकों ने स्तम्भ का साथ का साथ दिया होगा। संजन दानपत्रों के अनुसार अनेक उच्च पदाधिकारियों ने भी स्तंभ का पक्ष लिया था। गोविन्द को इन परिस्थितियों का पहले से ही संदेह था, इसलिए इनके प्रतिरोध के लिए वह दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण सन्नद्ध था। इन्द्र ने भी इस युद्ध में गोविन्द का सहयोग किया जिससे प्रसन्न होकर गोविन्द ने इसे दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया था। गोविन्द अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं कूटनीतिक कुशलता के कारण अपने उद्देश्य में सफल हुआ। स्तंभ तथा उसके सहयोगी पराजित हुए। सज्जन दानपत्रों के अनुसार गोविन्द ने अपने शत्रुओं के साथ पूर्ण नम्रता का व्यवहार किया तथा स्तंभ को पुनः गंगवाड़ी का शासक नियुक्त कर दिया। स्तंभ के विद्रोह का दमन करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने अपने उन समस्त पड़ोसियों को दण्डित करने के लिए अभियान प्रारंभ किया जो स्तंभ के साथ थे। गंगवाड़ी पर विजय- गंगवाड़ी उस अभियान का प्रथम शिकार हुआ। गंग नरेश शिवमार द्वितीय ध्रुव प्रथम के काल से राष्ट्रकूट बन्दीगृह में था। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंहासनारोहण के बाद जब स्तंभ से विद्रोह का संकेत प्राप्त हुआ तो गोविन्द ने गंगनरेश को मुक्त कर दिया। मुक्त होने के बाद उसने “कोंगुणि राजाधिराज परमेश्वर श्रीपुरुष’’ जैसी स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। संभवतः शिवमार ने गोविन्द के विरुद्ध स्तंभ का साथ भी दिया। इसलिए राधनपुर लेख में अहंकारी तथा सज्जन दानपत्रों में कृतघ्न कहा गया है। राधनपुर दानपत्र के अनुसार गोविन्द ने बड़ी सरलता से उसे पराजित किया। 798 ई. के लगभग शिवमार पुनः बन्दी बनाया गया तथा गंगवाड़ी पुनः राष्ट्रकूट सीमा में सम्मिलित कर ली गई जहाँ कम से कम 802 ई. तक स्तंभ ने गवर्नर के रूप में शासन किया। नोलम्बवाड़ी पर विजय- चित्तलदुर्ग से उपलब्ध कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि नोलम्बवाड़ी का शासक चारुपोन्नेर जगत्तुंग प्रभूतवर्ष गोविन्द का सामन्त था। संभवतः गोविन्द तृतीय से भयभीत होकर उसने स्वयमेव अधीनता स्वीकार कर ली। पल्लव विजय- तदुपरांत गोविन्द तृतीय ने काँची की ओर ध्यान दिया जहाँ पल्लव नरेश दन्तिवर्मन शासन कर रहा था। 803 ई. के ब्रिटिश संग्रहालय दानपत्र से गोविन्द तृतीय ने पल्लव नरेश दन्तिवर्मन को परास्त किया। ज्ञात होता है कि गोविन्द पल्लव विजय के पश्चात् रामेश्वरतीर्थ में शिविर डाले था। गोविन्द की यह विजय स्थायी न रही क्योकि शासनान्त में पुनः अभियान की आवश्यकता पड़ी थी। वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष- दक्षिणी सीमा को सुरक्षित करने के बाद गोविन्द ने पूर्वी सीमा पर चालुक्यों की शक्ति का दमन करना चाहा। इसके समकालीन चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ एवं विजयादित्य नरेन्द्रराज थे। विजयादित्य ही संभवतः इसका कोपभाजन बना। दोनों वंशों में वंशानुगत शत्रुता चल रही थी। विजयादित्य नवारूढ़ शासक था। जो बुरी तरह से अपमानित हुआ। राधनपुर दानपत्र के अनुसार वेंगी नरेश अश्वशाला में घास डालने के लिए तथा सज्जनपत्रों के अनुसार सैनिक शिविर का फर्श साफ करने के लिए बाध्य हुआ था। चालुक्यों के ईदर दानपत्र के अनुसार उस समय द्वादशवर्षीय संघर्ष प्रारंभ हुआ तथा 108 बार युद्ध हुए। गोविन्द के काल में राष्ट्रकूटों को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई किन्तु अमोघवर्ष प्रथम के काल में परिणाम विपरित हुआ। उत्तर भारतीय अभियान- नर्मदा के दक्षिण प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासकों को पराजित करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने उत्तर भारतीय अभियान की योजना बनाई। उत्तर भारत में ध्रुव प्रथम के प्रत्यावर्तन के बाद अनेक परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। वत्सराज की पराजय से प्रोत्साहित होकर धर्मपाल ने कन्नौज को अधिकृत कर लिया तथा इन्द्रायुद्ध को हटाकर अपने समर्थक चक्रायुद्ध को वहाँ का शासक नियुक्त किया। धर्मपाल के खालिमपुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवन्ति तथा गान्धार के शासकों ने इसका अनुमोदन किया। किन्तु धर्मपाल की यह स्थिति स्थायी न रह सकी। प्रतिहार नरेश वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार एक संघ बनाकर धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध को पराजित किया। इस प्रकार 806 ई0 एवं 807 ई0 तक नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत की सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थिर हो चुका था। गोविन्द तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान पूर्ण सुनियोजित







