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गोविन्द तृतीय (793- 814 ई0)Rashtrakuta ruler Govind III (793-814 AD)

ध्रुव प्रथम के कई पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। स्तंभ रणावलोक, (कम्बरस), कर्कसुवर्ण, गोविन्द तृतीय तथा इन्द्र के नाम स्पष्टतः प्राप्त होते है। ये चारो ही पुत्र योग्य एवं महत्वाकांक्षी थे। पिता के जीवन काल में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे थे। स्तम्भ गंगों के पराजय के बाद गंगवाड़ी के शासक के रूप में शासन कर रहा था। कर्कसुवर्णवर्ष खानदेश के प्रशासन को संभाल रहा था। गोविन्द एवं इन्द्र अपने पिता के अभियानों में सहयोग कर रहे थे। बाद में गोविन्द उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ तथा इन्द्र को दक्षिणी गुजरात का प्रशासक बनाया। इन पुत्रों के मध्य सिंहासन के लिए संघर्ष अवश्यम्भावी था क्योंकि सभी अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं महत्वाकांक्षा से अवगत थे। इस स्थिति से बचने के लिए ध्रुव प्रथम ने अपने योग्यतम तृतीय पुत्र को युवराज नियुक्त कर दिया। युवराजत्व चिन्ह कण्ठिका से गोविन्द तृतीय को अलंकृत किया। यहाँ तक कि जब ध्रुव प्रथम इससे भी आश्वस्त न हुआ तो उसने गोविन्द के पक्ष में सिंहासन का परित्याग कर संन्यास ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा किन्तु गोविन्द तृतीय इससे सहमत न हुआ। पैठन दानपत्रों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय ने संस्कारगत रूप में पिता से राज्य प्राप्त किया था। कर्क के सूरतपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द ने अपने पिता से युवराज पद ही नहीं वरन् सम्राट पद भी प्राप्त किया था। “राज्याभिषेक कलशैरभिषिच्यदत्ताम्। राजाधिराजपरमेश्वरतां स्वपित्राः।। (कर्क का सूरत अभिलेख) उपर्युक्त विवरण से यह स्वयमेव संभावित है कि ध्रुव प्रथम ने समस्त उत्तराधिकार सम्बंधी आपत्तियों से गोविन्द तृतीय की सुरक्षा के लिए अपने जीवन काल में पूर्ण राजत्व प्रदान कर दिवंगत हुआ होगा। सिंहासनारोहण के बाद गोविन्द तृतीय ने प्रभूतवर्ष, जगत्तुंग, जनवल्लभ, कीर्तिनारायण तथा त्रिभुवन धवल जैसी उपाधियाँ धारण कीं। गृहयुद्ध- ध्रुव प्रथम की मृत्यु के उपरांत एक वर्ष के पूर्व ही प्रकाशित पैठन दानपत्र से ज्ञात होता है कि गोविन्द तृतीय का सिंहासनारोहण संस्कार एकदम शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पत्र हुआ। किन्तु स्तम्भ ने अपने अधिकारों से वंचित रह कर बड़ा अपमानित अनुभव किया। गोविन्द के विरुद्ध द्वादश राजाओं का एक संघ बनाकर विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि स्तंभ के समर्थक शासकों की सूची नहीं प्राप्त होती, किन्तु गोविन्द के अभियानों से ज्ञात होता है कि पड़ोसी शासकों ने स्तम्भ का साथ का साथ दिया होगा। संजन दानपत्रों के अनुसार अनेक उच्च पदाधिकारियों ने भी स्तंभ का पक्ष लिया था। गोविन्द को इन परिस्थितियों का पहले से ही संदेह था, इसलिए इनके प्रतिरोध के लिए वह दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण सन्नद्ध था। इन्द्र ने भी इस युद्ध में गोविन्द का सहयोग किया जिससे प्रसन्न होकर गोविन्द ने इसे दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया था। गोविन्द अपनी व्यक्तिगत योग्यता एवं कूटनीतिक कुशलता के कारण अपने उद्देश्य में सफल हुआ। स्तंभ तथा उसके सहयोगी पराजित हुए। सज्जन दानपत्रों के अनुसार गोविन्द ने अपने शत्रुओं के साथ पूर्ण नम्रता का व्यवहार किया तथा स्तंभ को पुनः गंगवाड़ी का शासक नियुक्त कर दिया। स्तंभ के विद्रोह का दमन करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने अपने उन समस्त पड़ोसियों को दण्डित करने के लिए अभियान प्रारंभ किया जो स्तंभ के साथ थे। गंगवाड़ी पर विजय- गंगवाड़ी उस अभियान का प्रथम शिकार हुआ। गंग नरेश शिवमार द्वितीय ध्रुव प्रथम के काल से राष्ट्रकूट बन्दीगृह में था। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंहासनारोहण के बाद जब स्तंभ से विद्रोह का संकेत प्राप्त हुआ तो गोविन्द ने गंगनरेश को मुक्त कर दिया। मुक्त होने के बाद उसने “कोंगुणि राजाधिराज परमेश्वर श्रीपुरुष’’ जैसी स्वाधीनता सूचक उपाधियाँ धारण की। संभवतः शिवमार ने गोविन्द के विरुद्ध स्तंभ का साथ भी दिया। इसलिए राधनपुर लेख में अहंकारी तथा सज्जन दानपत्रों में कृतघ्न कहा गया है। राधनपुर दानपत्र के अनुसार गोविन्द ने बड़ी सरलता से उसे पराजित किया। 798 ई. के लगभग शिवमार पुनः बन्दी बनाया गया तथा गंगवाड़ी पुनः राष्ट्रकूट सीमा में सम्मिलित कर ली गई जहाँ कम से कम 802 ई. तक स्तंभ ने गवर्नर के रूप में शासन किया। नोलम्बवाड़ी पर विजय- चित्तलदुर्ग से उपलब्ध कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि नोलम्बवाड़ी का शासक चारुपोन्नेर जगत्तुंग प्रभूतवर्ष गोविन्द का सामन्त था। संभवतः गोविन्द तृतीय से भयभीत होकर उसने स्वयमेव अधीनता स्वीकार कर ली। पल्लव विजय- तदुपरांत गोविन्द तृतीय ने काँची की ओर ध्यान दिया जहाँ पल्लव नरेश दन्तिवर्मन शासन कर रहा था। 803 ई. के ब्रिटिश संग्रहालय दानपत्र से गोविन्द तृतीय ने पल्लव नरेश दन्तिवर्मन को परास्त किया। ज्ञात होता है कि गोविन्द पल्लव विजय के पश्चात् रामेश्वरतीर्थ में शिविर डाले था। गोविन्द की यह विजय स्थायी न रही क्योकि शासनान्त में पुनः अभियान की आवश्यकता पड़ी थी। वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष- दक्षिणी सीमा को सुरक्षित करने के बाद गोविन्द ने पूर्वी सीमा पर चालुक्यों की शक्ति का दमन करना चाहा। इसके समकालीन चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ एवं विजयादित्य नरेन्द्रराज थे। विजयादित्य ही संभवतः इसका कोपभाजन बना। दोनों वंशों में वंशानुगत शत्रुता चल रही थी। विजयादित्य नवारूढ़ शासक था। जो बुरी तरह से अपमानित हुआ। राधनपुर दानपत्र के अनुसार वेंगी नरेश अश्वशाला में घास डालने के लिए तथा सज्जनपत्रों के अनुसार सैनिक शिविर का फर्श साफ करने के लिए बाध्य हुआ था। चालुक्यों के ईदर दानपत्र के अनुसार उस समय द्वादशवर्षीय संघर्ष प्रारंभ हुआ तथा 108 बार युद्ध हुए। गोविन्द के काल में राष्ट्रकूटों को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई किन्तु अमोघवर्ष प्रथम के काल में परिणाम विपरित हुआ। उत्तर भारतीय अभियान- नर्मदा के दक्षिण प्रायः सभी महत्वपूर्ण शासकों को पराजित करने के पश्चात् गोविन्द तृतीय ने उत्तर भारतीय अभियान की योजना बनाई। उत्तर भारत में ध्रुव प्रथम के प्रत्यावर्तन के बाद अनेक परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। वत्सराज की पराजय से प्रोत्साहित होकर धर्मपाल ने कन्नौज को अधिकृत कर लिया तथा इन्द्रायुद्ध को हटाकर अपने समर्थक चक्रायुद्ध को वहाँ का शासक नियुक्त किया। धर्मपाल के खालिमपुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवन्ति तथा गान्धार के शासकों ने इसका अनुमोदन किया। किन्तु धर्मपाल की यह स्थिति स्थायी न रह सकी। प्रतिहार नरेश वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने डॉ. आर. सी. मजूमदार के अनुसार एक संघ बनाकर धर्मपाल एवं चक्रायुद्ध को पराजित किया। इस प्रकार 806 ई0 एवं 807 ई0 तक नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत की सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थिर हो चुका था। गोविन्द तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान पूर्ण सुनियोजित

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राष्ट्रकूट शासक गोविन्द द्वितीय एवं ध्रुव प्रथम(Rashtrakuta ruler Govind II and Dhruva I)

कृष्ण प्रथम के उपरांत उसका ज्येष्ठ पुत्र गोविन्द द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ जिसे प्रभूतवर्ष, विक्रमावलोक अथवा प्रतापावलोक इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया गया है। एक युवराज के रूप में उसने वेंगी के चालुक्यों को पराजित कर अपने शौर्य का परिचय दिया था। 773 ई. के लगभग सिंहासनारोहण के बाद दौलताबाद दानपत्रों के अनुसार पारिजात नामक शासक को पराजित कर गोवर्धन की रक्षा की थी। किन्तु अभी तक यह निश्चितरूपेण स्थिर नहीं किया जा सका कि यह पारिजात कौन था तथा गोवर्धन की रक्षा की आवश्यकता क्यों पड़ी। चूँकि गोवर्धन नासिक जिले में है जहाँ उसका अनुज ध्रुव गर्वनर के रूप में शासन कर रहा था। संभव है कि ध्रुव ने किसी प्रकार विद्रोह किया हो जिसे अस्थायी रूप से इसने पराजित किया हो। गोविन्द द्वितीय का शासन काल सिंहासनार्थ संघर्षों से परिपूर्ण रहा। यह एक विलासप्रिय तथा अकर्मण्य शासक रहा। कर्हाद पत्रों के अनुसार गोविन्द ने सम्पूर्ण शासनाभार अपने अनुज ध्रुव पर छोड़ दिया तथा स्वयं आनन्द सागर में लिप्त हो गया। ध्रुव ने गोविन्द द्वितीय की अयोग्यता से लाभ उठा कर सिंहासन को हड़पने की योजना बनाई। कभी तो यह गोविन्द द्वितीय की अधीनता स्वीकार करता एवं कभी स्वतंत्र शासक के रूप में दानपत्रों को जारी करता। जैसे ही गोविन्द द्वितीय को यह आभास हुआ, उसने ध्रुव को प्रशासन से पृथक् कर दिया। इस आंतरिक कलह से उत्साहित होकर सामन्तों ने  अपनी स्वाधीनता घोषित करना प्रारंभ किया। दौलताबाद पत्रों के अनुसार ध्रुव ने राष्ट्रकूट राज्य-लक्ष्मी को प्रतिस्थापित करने के लिए गोविन्द द्वितीय को सिंहासन से पदच्युत करना चाहा। गोविन्द द्वितीय ने सिंहासन की लिप्सा से काँची, गंगवाडी, वेंगी तथा मालवा के शासक का एक संघ बना कर ध्रुव को नियंत्रित करने के लिए आगे बढ़ा। गोविन्द द्वितीय के मित्रराज्य समयानुकूल उपस्थित होने में असमर्थ रहे तथा ध्रुव संघ को विघटित कर राष्ट्रकूट सिंहासन को प्राप्त करने में सफल रहा। डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने ध्रुव के पिम्पेरी पत्रों के आधार पर इसका समय 775 ई. माना है। किन्तु अल्तेकर ने इस घटना की तिथि 780 ई. के लगभग माना है। गोविन्द द्वितीय के विषय में इसके बाद कोई सूचना नहीं प्राप्त होती। संभवतः इसी युद्ध में वह परलोकवासी हो गया। 780 ई. के लगभग ध्रुव निरापद सम्राट के रूप में राष्ट्रकूट राजपीठ पर आसीन हुआ। ध्रुव धारावर्ष ( 780-93 ई0) अपने अग्रज गोविन्द द्वितीय को अपदस्थ कर राष्ट्रकूट सिंहासन पर आसीन हुआ। धारावर्ष, निरुपम तथा कलिवल्लभ की उपाधियों को धारण किया। गोविन्द द्वितीय के धुलिया पत्रों तथा जिनसेन के हरिवंश पुराण के आधार पर अल्तेकर ने इसके सिंहासनारोहण की तिथि 780 ई. लगभग मानी है। हरिवंश पुराण के अनुसार कृष्ण का पुत्र क्षीरवल्लभ 783 ई. में दक्षिण में शासन कर रहा था।                                 शाकेष्वब्दशतेषु सप्तम् दिशां पंचोत्तरेषतरोम ।                             पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजेश्रीवल्लभे दक्षिणाम्।। गोविन्द द्वितीय तथा ध्रुव दोनों ने श्रीवल्लभ की उपाधि धारण की थी। चूँकि गोविन्द की मृत्यु 783 ई. के पहले ही हो गयी थी, इसलिए हरिवंश पुराण में सभवतः ध्रुव प्रथम का उल्लेख हुआ है। वेंगी नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ की पुत्री शील महादेवी इसकी राजमहिषी थी। गोविन्द द्वितीय एवं ध्रुव के गृहयुद्ध के कारण आन्तरिक स्थिति निर्बल हो चली थी। इसलिए सिंहासन प्राप्त कर उसने सर्वप्रथम उन राज्यों को सम्प्रभ्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जो इसके विरुद्ध अपना सिर उठा रहे थे तलकाड, वेंगी, काँची तथा मालवा के शासकों ने गोविन्द द्वितीय का साथ देकर स्वाभाविक शत्रुता मोल ली थी। गंगवाड़ी पर विजय- ध्रुव ने सर्वप्रथम अपने दक्षिणी पड़ोसी गंगवाड़ी की ओर ध्यान दिया जो कृष्ण प्रथम के काल में राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। समकालीन गंगशासक शिवमार द्वितीय कृष्ण प्रथम द्वारा पराजित श्रीपुरुष का पुत्र था। ध्रुव ने उसे दण्डित करने के लिए गंगवाड़ी को आक्रांत किया। गंग लेखों से ज्ञात होता है कि शिवमार ने राष्ट्रकूटों, चालुक्यों एवं हैहयों से युक्त बल्लभ सेना को पराजित किया था। किन्तु ध्रुव के समक्ष यह एकदम निर्बल था। राष्ट्रकूट लेखों में न मात्र शिवमार की पराजय वरन् उसे बन्दी बनाने का भी उल्लेख है। गंगों के मन्ने लेख से ज्ञात होता है कि शिवमार चतुर्दिक आपत्तियों से ग्रस्त था। ध्रुव का अभियान पूर्णतः सफल रहा। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्तंभ रणावलोक को गंगवाड़ी का शासक नियुक्त किया। पल्लव विजय- गंगों को पराजित करने के बाद ध्रुव ने काँची के पल्लवों की ओर ध्यान दिया जिसने राष्ट्रकूट गृहयुद्ध में गोविन्द द्वितीय का साथ दिया था। पल्लव नरेश दन्तिवर्मन पराजित हुआ राधनपुर अनुदान पत्र के अनुसार एक ओर समुद्र तथा दूसरी ओर राष्ट्रकूटों की अगणित सेनारूपी समुद्र से घिर जाने पर पल्लव शासक भयभीत हो गया और अपनी सेना के बहुत से हाथी ध्रुव को भेंट की तथा उपहार में ध्रुव को अनेक हाथी प्राप्त हुए। ध्रुव प्रथम दक्षिणी सीमा को सुरक्षित कर राजधानी वापस आया। इन युद्धों में ध्रुव को अपने श्वसुर वेंगीनरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ से सैनिक सहायता प्राप्त हुई थी। उत्तर भारत पर अभियान- अब ध्रुव उत्तर-भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए तत्पर हुआ। ध्रुव के कई उत्तराधिकारियों ने विन्ध्य पार कर उत्तर की शक्तियों को प्रभावित करने का प्रयास किया। उस अभियान के क्या कारण हो सकते हैं, इस सम्बंध में विद्वानों ने विभिन्न संभावनायें व्यक्त की है। कारण- पालवंशीय गौड़ नरेश धर्मपाल का विवाह एक राष्ट्रकूट राजकुमारी रण्णादेवी के साथ हुआ था जो परवल की पुत्री थी। यह परवल कौन था? फ्लीट महोदय ने गोविन्द तृतीय माना है। संभव है कि यह कोई राष्ट्रकूट सामन्त रहा हो। किंचित विद्वानों की यह धारणा है कि पालों के निमंत्रण पर उनके सहायक के रूप में ध्रुव ने वत्सराज पर आक्रमण किया था। अल्तेकर के अनुसार – ध्रुव द्वारा धर्मपाल की पराजय से यह धारणा मान्य नहीं हो सकती है। किन्तु यह विचार एकदम निराधार भी नहीं कहा जा सकता क्यांेकि उसी प्रकार की घटना जयचंद एवं मूहम्मद गोरी के काल में भी घटी थी। जयचंद द्वारा मुहम्मद गोरी समर्थित था किन्तु पृथ्वीराज तृतीय के बाद मुहम्मद गोरी ने जयचंद को भी पराजित। किया था। संभव है कि ध्रुव प्रथम ने भी इसी तरह का व्यवहार किया हो।  इस अभियान को प्रतिक्रियावादी नीति का परिणाम भी स्वीकार किया गया है। दक्षिण भारत प्रारंभ से ही उत्तर भारतीय शक्तियों द्वारा अभिभूत रहा। आर्यों के आगमन काल से यह क्रम प्रारंभ हुआ। नन्दों, मौर्यों

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प्राचीन भारत में आकाशचारी देव गंधर्व(praacheen bhaarat mein aakaashachaaree dev gandharv)

प्राचीन भारतीय देव मण्डल में देवताओं के साथ -साथ गणों का भी उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलता है। अथर्ववेद की तैत्तरीय संहिता में देवताओं के परिचारकों के रूप में गण देवताओं का भी उल्लेख मिलता है। ज्ञान का अथाह सागर वेद है। यह एक विशाल साहित्य का संग्रह है। महर्षि दयानन्द के अनुसार ‘‘विदन्ति- जाननित, विद्यन्ते- भवन्ति सर्वाः सत्य-विद्या यैः यत्र वस स वेदः।’’ अर्थात् जिसके अन्तर्गत सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है उसे वेद कहते हैं। प्राचीन भारतीय देवताओं का व्यापक वर्णन वैदिक साहित्य और संहिता गन्थ्रों में मिलता है। भारत की धार्मिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को इन्हीं देवताओं ने प्रभावित किया है। प्राचीन भारत के लोग विभिन्न प्रकार के तंत्र मंत्र, जप, यज्ञ, हवन, पूजन आदि क्रिया ओं में विश्वास करते थे। उन तंत्र-मंत्र, जप आदि के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने के लिए कुछ लोग समाज से दूर पर्वतीय क्षेत्रों में तथा नदियों के तटों पर अथवा जंगलों में निवास करते थे। सिद्धि के द्वारा अलौकिक शक्ति प्राप्त करने के कारण ही उन्हें अर्द्धदैवी -पुरुष कहा जाने लगा। उन अर्द्धदैवी -पुरुषों में गन्धर्वों का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण है। वे अलौकिक पुरुष माने जाते थे। अमरकोश में उन्हें गंधर्व, किन्नर, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध आदि दस देवताओं की श्रेणी में गिनाया गया है। ‘‘विद्याधरोप्सरो यक्षरक्षे गन्धर्व किन्नराः, पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः।’’  संभवतः सर्वप्रथम वे साधारण मानव थे, किन्तु कालान्तर में तंत्र-मंत्र तथा जादुई शक्ति प्राप्त कर लेने पर अर्द्धदैवी -पुरुष कहे जाने लगे। प्रमाणों से ज्ञात होता है कि गन्धर्व हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते थे तथा शिव की पूजा अर्चना किया करते थे। स्कन्द पुराण में गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर,अप्सरा, नाग आदि गण देवताओं का निवास स्थान देवताओं के साथ ही स्वर्ग में बताया गया है।गन्धर्व का पुरुषवाचक अर्थ वायु से उत्पन्न होने वाले उस समूह का नाम है जो शिव के अनुयायी (गण) के रूप में दिखाई देते हैं तथा जिनका आवास हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र माना जाता है। पेंजर ने कथासरित्सागर के आधार पर यह बताने का प्रयास किया है कि प्राचीन काल में कुछ लोग तंत्र-मंत्र अथवा जादुई शक्ति प्राप्त करने के लिए सन्यस्त जीवन व्यतीत करते थे और उस मंत्र शक्ति (ज्ञान) को उपलब्ध कर लेने के पश्चात उसका (ज्ञान का) उपयोग अपने सही अथवा गलत उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करते थे। कालान्तर में इस प्रकार की विद्याशक्ति (जिसे विज्ञान अथवा कला भी कहा जा सकता है) को अर्जित करने वाले लोग ही गन्धर्व या विद्याधर कहे जाने लगे। रामायण में भी इन्हें महाविद्याओं को ज्ञाता के रूप में उल्लिखित किया गया है। विद्या अथवा मंत्र शक्ति प्राप्त कर लेने पर उसी की सिद्धि आदि के उद्देश्य से ये लोग समाज से दूर जंगल अथवा पहाड़ियों पर निवास करने लगे। अप्सरायें, देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग, किन्नर, विद्याधर आदि। कुछ विद्वानों का मानना है कि पूर्व बौद्ध काल में देवताओं के शास्वत शत्रु असुर, दानव, राक्षस, गन्धर्व , किन्नर तथा विद्याधर आदि अदृश्य रूप से उड़ते थे तथा वे सभी प्रकार के मंत्र अथवा जादुई शक्ति के विशेषाधिकारी समझे जाते थे। ये दुष्टात्मा भी माने जाते थे, इन्होने (गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, विद्याधर, राक्षस आदि) तत्कालीन समाज के लोगों की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया था। बौद्ध ग्रंथों के आधार पर यहाँ मेहता ने विद्याधरों और गन्धर्वों को दुष्टाचरण करने वाला माना है। किन्तु इसके विपरीत प्रोफेसर ए0 एल0 बाशम का विचार है कि प्राचीन काल में विद्याधरों को अंतरिक्ष जादूगर तथा रहस्यपूर्ण (गूढ़) जीव माना जाता था जो हिमालय की पहाड़ियों में जादू-टोने वाली नगरी में निवास करते थे। बाशम के विचार में गन्धर्व, विद्याधर सर्व साधारण के हितैषी थे तथा वे ऊपर आकाश में उड़ सकते थे और स्वेच्छया अपना रूप बदल भी सकते थे। अलबरूनी ने विध्द्याधरों को आठ प्रकार की दैवी जातियों में से एक माना है। इससे पता पलता है कि राक्षस, गन्धर्व अथवा विद्याधर माया जाल फैलाते थे जो कि क्षणिक होता था। प्रोफेसर के ए. एन. शास्त्री का विचार है कि मोरियर ( जिसे हम मौर्य कहते हैं) चक्रवाल सम्राट अथवा विद्याधर और नाग कहे जाते हैं। चूँकि मौर्य लोग उत्तर भारत में हिमालय के आस पास ही रहते थे, अतः स्पष्ट होता है कि विद्याधरों या गन्धर्व का आवास भी हिंमालय के पहाही भागों में रहा होगा। महाभारत के वनपर्व में विद्याधरों को गंधमादन पर्वत के उच्च शिखर पर गन्धर्व, किन्नर और नागों के साथ निवास करते हुए उल्लिखित किया गया है। इसी पर्व के एक अन्य स्थान पर अर्षिषेण गंधमादन पर्वत की शोभा का वर्णन करते हुए युधिष्ठिर से कहते है कि यहाँ विद्याधरों के गण भी सुन्दर फूलों के हार पहने हुए अत्यन्त मनोहर दिखाई पड रहे हैं। कथासरित्सागर तथा समराइच्चकहा में विद्यापरो को पर्वतों पर अथवा पहाड़ी वालें एकांत स्थान में निवास करते हुए उल्लिखित किया गया है। वहाँ उनके नगर ( विद्याधरपुरम् ) तथा उनके नगर शासक (विद्याधराधिप) भी होते थे। अपने ही समाज अववा समूह में जो विद्याधर शक्तिशाली (मंत्र अथवा विद्या की सिद्धि द्वारा अर्जित शक्ति से) होता था वह आसानी से उनका अधिपति बन जाता था तथा उन पर अपना शासन करता था। हिमालय में कुमायँ-गढ़वाल क्षेत्र के पूर्व मध्यकालीन कुछ हिन्दू शासकों को उनके दान-पत्रों के आधार पर कुछ मुसलमान लेखको ने 11वीं शदी के चंदेल शासक विद्याधर से संबंधित बताया है। किन्तु रामायण के उल्लेख से पता चलता है कि हनुमान जी लंका प्रस्थान करने के पूर्व महेन्द्र पर्वत पर सिद्ध, विद्याधर, तथा किन्नरों को खेलकूद करते हुए देखा था। जिससे स्पष्ट होता है कि विद्याधर उत्तर भारत में ही नहीं वरन् दक्षिण भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में भी निवास करते थे। सर्वप्रथम ये समाज से विरक्त होकर एकान्त निर्जन पहाड़ियों पर निवास करते थे, किन्तु समय की गति एवं परिवर्तनों से प्रभावित होकर वे अपना सम्बन्ध सामाजिक लोगों से भी जोड़ने लगे। प्राचीन भारतीय चित्रकला में विद्याधरों को उड़ते हुए चित्रित किया गया है। वे माला पहने हुए पुष्प वर्षा करने वाले देव के रूप में उत्कीर्ण किये गये हैं। भरहुत, सांची और अमरावती से प्राप्त बहुत से प्राचीन बौद्ध अवशेषों में तथा उदयगिरि एवं भुवनेश्वर (उड़ीसा) के निकट खण्डगिरि की जैन गुफाओं में भी इस तरह के चित्र देखने को मिलते हैं। विद्याधरों के चित्र कलाकारों द्वारा

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राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग (735ई0 या 745-755 या 758ई0) (भाग- दो)Rashtrakuta ruler Dantidurga (735 AD or 745-755 or 758 AD) (Part-II)

इन्द्र प्रथम के बाद उसका पुत्र दन्तिदुर्ग उत्तराधिकारी हुआ। इसके सिंहासनारोहण की तिथि मूलतः 735 एवं 745 ई0 के मध्य निर्धारित कर सकते हैं। दन्तिदुर्ग ने उस राजवंश को एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में परिवर्तित किया। उसके सिंहासनारोहण के समय उत्तर में अरबों के आक्रमण से कच्छ, काठियावाड़ एवं गुजरात की कमर टूट चुकी थी। मैत्रक शासक शीलादित्य पंचम तथा गुर्जर नरेश जयभट्ट तृतीय ने उनके अभियान को अवरुद्ध करने का सफल प्रयास किया किन्तु स्थायी सफलता अर्जित करने में असमर्थ रहे। गुजरात के चालुक्य नरेश पुलकेशिन् ने जुनैद के आक्रमण को अवरुद्ध कर चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा नव उपाधियों से विभूषित किया गया। चालुक्यों की स्थिति एकदम निर्बल हो चुकी थी। पल्लवों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष से चालुक्यों की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी। दन्तिदुर्ग ने एक सफल राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ के रूप में उन परिस्थितियों से लाभ उठाकर राष्ट्रकूट शक्ति-स्तम्भ को सुदृढ़ किया। दन्तिदुर्ग के शासनकाल की घटनाओं का विस्तृत विवरण ७५४ ई. के समनगद अनुदान पत्रों तथा एलोरा के खण्डित दशावतार गुहालेख में प्राप्त होती है। एलोरा, समनगद तथा इन्द्र तृतीय के वेगुभरा लेखों से यह ज्ञात होता है कि उसने काँची, कलिंग, श्रीशैल, कोसल, मालव, लाट, टंक तथा सिन्ध के शासकों को पराजित किया था। किन्तु इन साक्ष्यों से यह विदित नहीं होता कि उसने चालुक्यों को उपर्युक्त शासकों को पराजित करने के पूर्व या पश्चात् पराजित किया था। दन्तिदुर्ग के 742 ई0 के एलोरा पत्रों में ’पृथ्वीवल्लभ’ तथा ‘खड़गावलोक’ उपाधियों से विभूषित किया गया है जबकि इसी लेख में इसके पूर्ववर्ती शासकों को मात्र ‘समधिगत पञ्चमहाशब्द’ तथा ‘सामन्ताधिपति’ जैसी उपाधियाँ प्रदान की गई है। इससे यह अनुमान होता है कि 742 ई0 के लगभग ही इसने किसी युद्ध में विशिष्ट ख्याति अर्जित की थी। सम्भव हैं कि इसने चालुक्य विक्रमादित्य के सामन्त के रूप में अरबों से संघर्ष किया हो और उन्हें आगे बढ़ने से अवरुद्ध किया हो। प्रारम्भिक विजयें- सम्भवतः 747ई0 में विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु तक यह चालुक्यो के आज्ञाकारी सामन्त के रूप में उनकी सहायता करता रहा। युवराज कीर्तिवर्मन के साथ 743 ई0 में ही इसने काँची पर आक्रमण कर सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। काँची विजय से प्रत्यावर्तन  के बाद कर्नूल जिले में श्रीशैल के शासक को पराजित किया। अल्तेकर महोदय का अनुमान है उस समय सम्पूर्ण कर्णाटक कीर्तिवर्मन द्वितीय के अधीन था तथा उसके सामन्त के रूप में ही दन्तिदुर्ग ने कॉँची एवं शैल पर आक्रमण किया होगा। दुन्तिदुर्ग की इन सफलताओं ने उसे समीपवती शासकों को आक्रान्त करने के लिए प्रेरित किया। उसकी माँ चालुक्य राजकुमारी थी जिसमें सामाजिक महत्वाकांक्षा जन्म से ही विद्यमान थी। कर्णाटक पर चालुक्यों का शक्तिशाली शासन था। यह मात्र बरार एवं पश्चिमी मध्य प्रदेश का ही स्वामी था। इसलिए उसने सर्वप्रथम पूरब-पश्चिम की ओर अभियान प्रारम्भ किया। पूर्व में इसने कोसल, रायपुर के समीप सिरपुर के उदयन तथा रामटेक के समीप श्रीवर्धन के शासक जयवर्धन जो सम्भवतः पृथ्वीवल्लभ नाम से भी अभिहित है, को आक्रान्त किया। समनगद लेख के अनुसार दन्तिदुगर्ग की हस्तिसेना ने माही तथा महानदी में अवगाहन किया जिससे महाकोसल अर्थात मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र पर विजय का संकेत प्राप्त होता है। उस समय कोशल नरेश कौन था? निश्चितरूपेण ज्ञात नहीं होता। सम्भवतः प्रत्यावर्तन के समय कलिंग को भी इसने पराजित किया। पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के उदयेन्दिरम लेख में उसे उदयन एवं व्याघ्रराज का विजेता कहा गया है। सम्भव है कि चालुक्यों के स्वाभाविक शत्रु पल्लव शासक नन्दिवर्मन द्वितीय के साथ दन्तिदुर्ग ने संघ का निर्माण किया हो और दोनों सम्मिलित रूप से सिरपुर एवं श्रीवर्धन पर आक्रमण किया हो। दुव्रिया महोदय ने बहूर लेख के आधार पर प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि दन्तिदुर्ग ने अपनी पुत्री शंखा का विवाह नन्दिवर्मन के साथ किया था किन्तु इस मत में सबसे बडी आपत्ति यह है कि बहूर लेख में शंखा को राष्ट्रकुट राजकुमारी तो कहा गया है किन्तु उसके पिता का नाम नहीं दिया गया है। दशावतार गुहालेख में काँची विजय का उल्लेख है, साथ ही कोसल राज्य के विजय में पल्लव नरेश के साथ संघ की भी कल्पना की जाती है। चूंकि नन्दिवर्मन परमेश्वरवर्मन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी न था। इसलिए सम्भव है कि नन्दिवर्मन ने का्ँची के सिंहासन को हड़पने के लिए दन्तिदुर्ग से मैत्री की हो तथा उसे काँची का सिंहासन दिलाने के लिए काँची पर आक्रमण भी करना पड़ा हो। पूर्व में अपनी शक्ति सुदृढ़ करने के बाद दन्तिदुर्ग ने नन्दीपुरी के गुर्जरों तथा नौसारी के चालुक्यों की ओर ध्यान दिया। अरब आक्रमण के फलस्वरूप ये राज्य पहले से ही अस्त-व्यस्त थे। दन्तिदुर्ग को सरलतापूर्वक सफलता प्राप्त हुई। गुजरात के चालुक्य शासक पुलकेशिन तथा गुर्जर नरेश रट्ट तृतीय के किसी उत्तराधिकारी का ज्ञान नहीं प्राप्त होता। दन्तिदुर्ग ने चचेरे भाई गोविन्द को दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया तथा नन्दीपुरी को भी राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित किया। चालुक्यों पर विजय- दन्तिदुर्ग की इस बढ़ती हुई शक्ति से चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय भयभीत हुआ।  उसने नौसारी की चालुक्य शाखा को पुनसर््थापित करने का अवश्य ही प्रयास भी किया होगा। जिससे दन्तिदुर्ग के साथ संघर्ष अपरिहार्य हो गया। दोनों के मध्य कहाँ संघर्ष हुआ? अनिश्चित है। सम्भवतः मध्य महाराष्ट्र में कहीं दोनों के बीच निर्णायक संघर्ष हुआ। दन्तिदुर्ग अपनी योजना में सफल हुआ। 754 ई0 में दन्तिदुर्ग द्वारा दिये गये एक गाँव के दान का विवरण उपलब्ध होता है। उसके बाद भी कीर्तिवर्मन पूर्णतः पराजित नहीं हुआ क्योंकि सितम्बर, 757 ई0 में भीमा नदी के तट पर उसकी विजयवाहिनी के शिविर का उल्लेख प्राप्त होता है। चालुक्यों के विनाश का कार्य कृष्ण प्रथम ने पूर्ण किया। इसीलिए वानिडिन्डोरी, राधनपुर तथा बड़ौदा इत्यादि दानपत्रों में चालुक्यों के उन्मूलन का श्रेय कृष्ण प्रथम को दिया गया है। इनके विपरीत कृष्ण प्रथम के ही काल के भारत इतिहास संशोधक मण्डल, तेलगाँव, तथा भाण्डुक लेखों में चालुक्य विजय का श्रेय दन्तिदुर्ग को ही दिया गया है। डॉ. अल्तेकर महोदय का यह अनुमान है कि कृष्ण प्रथम के बाद उसके पुत्र-पौत्र उत्तराधिकारी हुए, जिनकी वंशावली में दन्तिदुर्ग का नाम ही कम प्राप्त होता है। साथ ही कार्य की पूर्णता कृष्ण प्रथम द्वारा हुई। इसीलिए कृष्ण प्रथम को भी यह श्रेय दिया गया है जबकि वास्तव में दन्तिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन द्वितीय को शक्तिहीन बना दिया था। उपर्युक्त

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राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास (भाग- एक)History of Rashtrakuta Dynasty(part One)

राष्ट्रकूट राजवंश दक्षिण भारत की उन प्रमुख शक्तियों में विशिष्ट महत्व रखता है जिसने न मात्र दक्षिण वरन् अखिल भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है। आठवीं शताब्दी ई. के मध्य दन्तिदुर्ग ने उस वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा को स्थायित्व प्रदान किया, इसीलिए प्रमुख राष्ट्रकूट शाखा को सामान्यतः दन्तिदुर्ग शाखा के नाम से अभिहित किया गया है। दन्तिदुर्ग शाखा के अतिरिक्त अन्य राष्ट्रकूट परिवारों के भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं। छठीं एवं सातवीं शती में दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में ऐसे किंचित सामन्तों के ज्ञान प्राप्त होते हैं जो राष्ट्रकूटों से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं। मानपुर का अभिमन्यु प्राचीनतम राष्ट्रकूट शासक ज्ञात होता है जिसके दानपत्रों में इसे मानांक का प्रपौत्र, देवराज का पौत्र तथा भविष्य का पुत्र बतलाया गया है। यद्यपि दानपत्र तिथिविहीन है किन्तु लिपिगत विशेषताओं के आधार पर इसे ७वीं शती में निर्धारित कर सकते हैं। भगवानलाल इन्द्र जी ने मानपुर की समता मान्यखेत या मालखेद से की है किन्तु मानपुर तथा मान्यखेत की राजनीतिक प्रतिष्ठा तथा नामगत वैभिन्य के कारण इस मत में विश्वास नहीं किया जा सकता। यह मान्यपुर या मानपुर आधुनिक होशंगाबाद जिले में स्थित है। राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह सिंह था जबकि मान्यखेत के राष्ट्रकूटों ने गरुड़ या शिव को ग्रहण किया था। इसलिए दोनों शाखाओं को एकीकृत नहीं किया जा सकता। बादामी के चालुक्य साम्राज्य के मध्य में दक्षिण मराठा क्षेत्र से सेन्द्रक परिवार की सूचना प्राप्त होती है जो चालुक्यों से सम्बन्धित थे। सातवीं शताब्दी में ये अपने पड़ोसी राष्ट्रकूटों से सम्बद्ध तो अवश्य थे किन्तु प्रमुख राष्ट्रकूट शाखा से भिन्न थे। राष्ट्रकूटों के निश्चित उल्लेख तीवरखेद तथा मुल्ताई दानपत्रों से भी प्राप्त होते हैं। फ्लीट ने इन्हें जारी करने वाले शासक को नन्दराज पढ़ा है। किन्तु सूक्ष्म अध्ययन के फलस्वरूप अल्तेकर ने नन्दराज स्वीकार किया है। तीवरखेद पत्र का समय 631-32ई0 तथा मुल्ताई पत्र का समय 709-10ई है। इन पत्रों से राष्ट्रकूटों की निम्नलिखित वंशावली प्राप्त होती है- १. दुर्गराज २. गोविन्दराज (पुत्र) ३. स्वामिकराज (पुत्र) ४. नन्नराज युधासुर (पुत्र) दन्तिदुर्ग की वंशावली नन्नराज से प्रारम्भ होती है। तीवरखेद तथा मुल्ताई पत्रों के अन्य शासकों के नाम दन्तिदुर्ग शाखा के शासकों के अधिक समीप हैं। सम्भव है कि दन्तिदुर्ग शाखा के राष्ट्रकूटों तथा उपर्युक्त रष्ट्रकूट शासकों में कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रक्त सम्बन्ध रहा हो। दोनों के राजचिन्ह एवं शासित क्षेत्रों में भी तादात्म्य है। कर्कराज द्वितीय के 757 ई. के अंतरोली-छरोली पत्रों से एक राष्ट्रकूट परिवार की जानकारी प्राप्त होती है। इस लेख से निम्नलिखित शासकों का क्रमिक ज्ञान प्राप्त होता है- १. कर्कराज प्रथम 2. ध्रुव (पुत्र) 3. गोविन्द (पुत्र) 4. कर्क द्वितीय (पुत्र) 750-770ई0 अन्तरोली-छरोली का पुरातन नाम स्थावरपल्लिका है जो सूरत से 10 मील उत्तर-पूर्व स्थित है। दानग्रहण करने वाला भड़ौच जिले में जम्बुसार का निवासी बतलाया गया है। इससे कर्क द्वितीय को सूरत एवं भड़ौच का शासक मान सकते हैं। कर्क द्वितीय दन्तिदुर्ग का समकालीन है। दोनों परिवारों में निकटतम सम्बन्ध प्रतीत होता है। भगवानलाल इन्द्र जी ने तो ध्रुव को दन्तिदुर्ग के पिता इन्द्रप्रथम का भाई माना है जो अस्वाभाविक नहीं हो सकता। डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने अन्तरोली-छरोली लेख के कर्क एवं गोविन्द के दन्तिदुर्ग शाखा के इन्द्र प्रथम का पिता एवं पितामह माना है। किन्तु उस मत का स्वीकार करने में अनेक बाधाएँ हैं। प्रथम तो दन्तिदुर्ग तथा कर्क के पूर्वजों के नाम में साम्य नहीं है। द्वितीय आपत्ति दोनों वशांवलियों के शासकों के काल के सम्बन्ध में है। कर्क द्वितीय जब दन्तिदुर्ग का समकालीन सम्भावित है तो वह दन्तिदुर्ग के पिता इन्द्र का पिता कैसे हो सकता है? चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय के नरवन पत्रों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट शिवराज के पुत्र गोविन्दराज के अनुग्रह पर चालुक्य नरेश ने नरवन गाँव ब्राह्मणों को दान में दिया था। काल-निर्धारण के आधार पर गोविन्द की समता अन्तरोली-छरोली के गोविन्द से की जा सकती है किन्तु इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कठिनाई यह है कि अंतरोली-छरोली लेख में गोविन्द का पिता ध्रुव है जबकि नरवन पत्रों में शिवराज। इसी प्रकार आभिलेखिक विवरणों के आधार पर हुल्टश तथा फ्लीट प्रभृति विद्वानों ने राष्ट्रकूटों के अन्य परिवारों का संकेत दिया है जो अधिक सत्याधृत नहीं हैं। इस सम्बन्ध में कोई भी निर्णायक मत नहीं दिया जा सकता कि राष्ट्रकूटों की कितनी शाखाएं थीं। बादामी के चालुक्य शासकों के अधीन अनेक राष्ट्रकूट परिवार राजनीतिक अधिकारियों के रूप में कार्यरत थे जिनमें दन्तिदुर्ग शाखा विशेष शक्तिशाली रही। अंत में इसी शाखा ने बादामी के चालुक्यों का विनाश कर स्वतंत्र राष्ट्रकूट सत्ता की स्थापना की। उद्भव-  राष्ट्रकूटों की मुख्य शाखा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएँ तथा आभिलेखिक प्रमाण प्राप्त होते हैं, किन्तु किसी से भी संदेहरहित ज्ञान नहीं उपलब्ध होता है। इसीलिए विद्वानों ने इस विषय पर विभिन्र प्रकार की सम्भावनायें व्यक्त की हैं- 1. परवर्ती राष्ट्रकूट अभिलेखों में इस वंश को यदु से सम्बद्ध किया गया है। भगवानलाल इन्द्र जी का यह अनुमान है कि यह सिद्धान्त 930 ई0 से प्रारम्भ हुआ जबकि राष्ट्रकूटों ने सिंह के स्थान पर विष्णु के वाहन गरुड़ को राजचिन्ह के रूप में स्वीकार किया किन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सिंह मानपुर के राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह था न कि मालखेद के राष्ट्रकूटों का। राष्ट्रकूटों के प्रारम्भिक मुहरों एवं पत्रों-यथा युवराज गोविन्द के असल पत्रों तथा गोविन्द तृतीय के पैथन दानपत्रों में गरुड़ चिन्ह का प्रयोग है। किंचित परवर्ती लेखों में आसन शिव लांछन का भी प्रयोग प्राप्त होता है किन्तु सिंह का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। राष्ट्रकूटों के यदुवंशी होने का प्रथम उल्लेख 871 ई0. के संजन दानपत्रों में दृष्टिगत होता है। गोविन्द तृतीय के 808 ई0 के वनिडिन्डोरि अभिलेख में इसके जन्म के विषय में यह वर्णन है कि राष्ट्रकूट वंश-क्षितिज पर गोविन्द के उदय से यह वंश उसी प्रकार अजेय हो गया जिस प्रकार मुरारि के जन्म से यदुवंश। यह सम्भाव्य है कि इसी उपमा के आधार पर इन्हें यदुवंशी कहना संदेह से परे नहीं है। 2. सर आर. जी. भण्डारकार ने यह सुझाव दिया है कि सम्भवतः यह वंश तुंग परिवार से उद्भूत हो क्योंकि कृष्ण तृतीय के देवली तथा कर्हाद दानपत्रों में यह स्पष्ट विवरण है कि यह वंश तुंग नाम के शासक से उत्पन्न हुआ था। उन पत्रों में रट्ट को तुंग वशज का पुत्र कहा गया है जिसे राष्ट्रकूट नाम का आधार माना

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प्राचीन भारत में वर्णो की उत्पत्ति:(Origin of varnas in ancient India)

प्रत्येक देश में सामाजिक संगठन, विभाजन एवं स्तरीकरण का स्वरूप उसकी अपनी भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन की आवश्यकताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया का परिणाम होता है। भारत की सामाजिक व्यवस्था की अपनी विशेषता है। भारतीय सामाजिक संरचना का प्राचीनतम् ज्ञात रूप वर्ण व्यवस्था है। भारतीय चिन्तकों ने इसे सदैव ही उच्च गौरव और महत्व दिया है। यह भारतीय समाज की आधारशिला है। यदि एक शब्द के द्वारा पूरी भारतीय व्यवस्था का बोध कराना हो तो वर्णाश्रम शब्द का उपयोग निरन्तर होता रहा है। वर्णो की दैवी उत्पत्ति की कल्पना वर्ण-व्यवस्था की श्रेष्ठता के साथ ही उसकी प्राचीनता की सूचक है। समाज का सदस्य होने पर भी मनुष्य की कुछ ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं जिनका उसके लिए विशेष महत्व होता है। समष्टि रूप में ये आवश्यकताएँ सामाजिक जीवन की मौलिक आवश्यकता बन जाती हैं। इसकी पूर्ति से ही समाज का उत्थान, कल्याण और विकास सुचारू रूप से हो सकता है। इसी के अनुरूप प्राचीन भारत की सामाजिक संस्थाओं में उन कार्यविधियों, उपकरणों, क्रियाओं और व्यवहारों का समावेश है जो समाज के विभाजन के स्वरूप को वैज्ञानिक, दार्शनिक और व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करते हैं। धर्मसूत्रों में वर्ण-व्यवस्था अपने विकसित और सुस्थिर रूप में मिलती है। इसका निर्वाह स्मृतियों में किया गया है। धर्मशास्त्रों के विविध विधानों में वर्ण-व्यवस्था ही प्रमुख आधार है। आश्रम और संस्कारों के अनुष्ठान में ही नहीं प्रशासनिक कार्यों, न्यायालयीय प्रक्रिया और विधि के नियमों में भी वर्ण के आधार पर अन्तर देखने को मिलता है। वास्तव में सामाजिक जीवन के विविध पहलू, जो धर्मशास्त्रीय कल्पना के व्यापक आयाम में समाहित हैं, पद-पद पर वर्णभेद के आधार पर अन्तर को परिलक्षित करते हैं। प्राचीन भारत में ऐसे शाश्वत मूल्यों का निर्धारण किया गया, जिनके आधार पर भौतिक और आघ्यात्मिक उपलब्धियाँ समान रूप से सुलभ हो सकें। जबकि पश्चिमी जगत की संस्कृति में धर्म और राज्य के बीच प्रायः संघर्ष होता रहा है। सामाजिक वर्ग भिन्नता एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। विश्व के प्रायः सभी देशों में इसका अस्तित्व बना रहा। परन्तु यह भिन्नता कहीं भी इतनी जटिल नहीं रही जितनी भारतीय समाज में। प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था का एक स्थायी आधार होते हुए भी इसकी धारणा निरन्तर परिवर्तनशील रही है। समाज को निरन्तर प्रगतिशील और समयानुकूल बनाने के लिए भारतीय सामाजिक चिन्तकों ने कतिपय शाश्वत मूल्यों का निर्धारण किया। वर्ण-व्यवस्था इन शाश्वत मूल्यों में से एक थी। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए वर्णो की व्यवस्था की गयी। व्यक्ति और समूह के अस्तित्व को मानव जगत् में ही नहीं, देवलोक में भी स्वीकार किया गया। ‘ताण्डय ब्राह्मण’ (6. 9. 2) में मनुष्य को देवताओं का ग्राम (समूह) कहा गया है (नरो वै देवानां ग्रामः)। मनुष्य को देवताओं का ग्राम इसलिए कहा गया है कि उसमें ऋषि, पितर, देव, असुर और गन्धर्व आदि के अंश विद्यमान होते हैं। इस प्रकार मनुष्य में स्वभावतः अपने अंशी या धर्मी की कुछ प्रवृत्तियों का समन्वय होता है। इसी समन्वय के कारण उसे सामाजिक प्राणी कहा गया है। मनुष्य के द्वारा ही जब समाज की रचना होती है, तो निश्चित ही समाज की उन्नति में मनुष्य की उन्नति भी अनुस्यूत है। समाज की सीमाएँ व्यापक हैं। परिवार, देश, राष्ट्र ये उसी के ही उत्तरोत्तर विकास के परिणाम हैं। सामान्य तौर पर वर्ण- व्यवस्था द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का वर्गीकरण किया जाता है और प्रायः यह समझा जाता है कि इस व्यवस्था द्वारा प्राचीन भारत में समाज को चार वर्णो में विभाजित किया हुआ था। ‘ वर्ण ’ का अर्थ –                 प्राचीन कालीन ‘ वर्ण ’ शब्द के अवधारणा की व्याख्या के लिए उसके अर्थ और व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालना आवश्यक है। वर्ण शब्द संस्कृत के ‘वृ’ धातु से निस्सृत हुआ है। ‘’ वर्ण शब्द तीन धातुओं से बन सकता है। जिनके अर्थ अलग-अलग हैं। ‘ वर्ण वर्णने ’ धातु से वर्ण शब्द वर्णन करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसे वर्ण के प्रमुख लाक्षणिक अर्थो, जैसे- व्यवसाय, गुण, सामाजिक परिस्थिति या कर्तव्यों के वर्णन करने के रूप में लिया जा सकता है। ‘ वर्ण प्रेरणे ’ धातु से वर्ण का अर्थ प्रेरित करना है अथवा विशिष्ट कर्तव्यों को भलीभाँति पूर्ण करने की प्रेरणा देना है। इसी तरह ‘ वृअ् वरणे ’ धातु से वर्ण शब्द निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है ‘ वरण करना ’ या चुनना। जिसे व्यवसाय चयन के सन्दर्भ में लिया जा सकता है। क्योंकि वर्ण शब्द का अर्थ सामाजिक वर्ग से लिया गया है। अतः उपर्युक्त सन्दर्भ में अन्तिम धातु से इस शब्द की व्युत्पत्ति उचित प्रतीत होती है। शब्दकोष में ‘ वर्ण ’ के अनेक अर्थ मिलते हैं। क्रिया के रूप में इसका अर्थ रंगना, वर्णन करना, लिखना, चित्रण करना, अंकित करना, प्रशंसा करना, स्वीकार करना है और संज्ञा के रूप में इसका अर्थ आभा, रंग, त्वचा का रंग, जाति, वर्ण, प्रजाति, एक अक्षर ध्वनि, एक शब्द ध्वनि, प्रतिष्ठा, बाह्य स्वरूप, शरीर आवरण और धार्मिक अनुष्ठान इत्यादि है। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ‘ वर्ण ’ शब्द का अर्थ रंग से लिया गया है। ( ऋग्वेद, 1. 65.5, 4. 5. 13, 9. 97 दृ 15 9. 105. 1, ) मूइर ने रंग-भेद को वर्ण-व्यवस्था के उद्भव का मूल स्रोत बताया है। ( मूइर, जे0 ओरिजनल संस्कृत टेक्स्ट, भाग 1, पृ0 140।) ऋग्वेद में ‘ वर्ण ’ शब्द का प्रयोग अनेकशः दो परस्पर विरोधी समुदायों यथा- आर्य और दास में क्रमशः श्वेत और अश्वेत रंग ( ऋ0,1. 179.6 उभौ वर्णावृषिरूग्रः ) के आधार पर भेद स्थापित करने के सम्बन्ध में इसी ग्रन्थ में दस्युओं का बध करके आर्य वर्ण के रक्षार्थ उसका उल्लेख किया गया है। (ऋ0 1. 130.8)। उल्लेखनीय है कि यहाँ के मूल आदिवासियों को आर्य वर्ग शत्रु समझते थे और उनके लिए ऋग्वेद में ‘ दास ’ ( दास तथा दस्यु शब्दों का सम्बन्ध दस् ( उपक्ष्ये ) धातु से है। जिसका अर्थ है- नुकसान पहुँचाना अथवा नाश करना। ‘ दास ’ की व्याख्या निरूक्त में ‘ दासो दस्यतेरूपदासयति कर्माणि ’ मिलती है। जिसकी व्याख्या करते हुए दुर्गाचार्य ने लिखा है ‘ उपदासयति उपक्षयति कृत्यादीनि कर्माणि। ’ ) या दस्यु ( ‘दस्यु’ की व्याख्या निरूक्त में इस प्रकार मिलती है ‘ दस्यतेः क्षयार्थात् उपदस्यन्ति अस्मिन् रसा, उपदासयति कर्माणि वा ’ नि0 7,23 ) अर्थात् जिसके कारण

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मध्य पाषाण काल:(Mesolithic Age)

मध्य पाषाणकाल का समय लगभग 10हजार से 5हजार ई0पू0 था। पुरा पाषाणकाल के अवसान के बाद पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणीय दशाओं में बदलाव आया। जलवायु में आर्दता आने के फलस्वरूप घने जंगलों एवं झाड़ियों का विकास हुआ तथा विशालकाय जीवों के स्थान पर छोटे- छोटे जीव-जन्तुओं का प्रादुर्भाव हुआ। मध्य पाषाणकाल को अंग्रेजी में मेसोलिथिक एज कहा जाता है। लेकिन यह मिडिल स्टोन एज अर्थात् जिसका शाब्दिक रूपान्तरण मध्य पाषाण काल है से नितान्त भिन्न है। मिडिल स्टोन एज शब्द दक्षिण अफ्रीका के प्रस्तर कालीन वर्गीकरण पर आधारित है। मध्य पाषण काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच की कड़ी है। प्रारम्भ में पुराविद् पुरापाषाण काल एवं नवपाषण काल के मध्य एक लम्बा अन्तराल होने के कारण मध्य पाषाण काल का अस्तित्व नहीं स्वीकार करते थे। कुछ समय पूर्व तक मध्यपाषाण काल की स्थिति, उत्पत्ति एवं विकास एक समस्या थी क्योंकि लघुपाषाणिक उपकरण स्तरित जमावों से नहीं प्राप्त हुए थे। ये उपकरण अनेक स्थानों पर पृथ्वी से प्रतिवेदित हैं, किन्तु इससे समस्या का निराकरण नहीं हो सका। यूरोप एवं भारत के लघुपाषाण उपकरणों के विकास क्रम में भिन्नता है। भारत में मध्यपाषण काल के बाद मध्यपाषाणिक उपकरणों का विकास हुआ। स्तर क्रम की दृष्टि से मध्य पाषाण काल उच्च पूर्वपाषाण काल का परवर्ती एवं नवपाषाण काल का पूर्ववर्ती माना जाता है। भारत में अब निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि उच्च पूर्वपाषाणिक संस्कृतियों से ही मध्यपाषाण काल का विकास हुआ।                 यह काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल दोनों संस्कृतियों की विशेषताओं को सहेजे हुए है। मध्यपाषाण काल को पुराविदों ने अनु-पुरापाषाण काल, आद्य-नव पाषाण काल एवं मध्यपाषाण काल, संक्रमण काल आदि विविध नामों से नामकरण किया। लेकिन यह काल मध्यपाषाण काल से अधिक प्रचलित हुआ। इस काल को ‘‘ मेसोलिथिक एज ’’ भी कहा जाता है। जो यूनानी शब्द  ‘‘ मेसोस ’’ एवं ‘‘ लिथाॅस ’’ से बना है। ‘ मेसोस ’ का अर्थ है-‘ मध्य ’ एवं ‘ लिथाॅस का अर्थ होता है ‘ पाषाण ’, अर्थात् मध्यपाषाण काल। इस काल के उपकरण अत्यन्त लघु हो जाते हैं। इन उपकरणों की लम्बाई लगभग 1-5 सेमी.माइक्रोलिथ होती है। इसलिए इन उपकरणों को लघुपाषाण उपकरण कहा गया। मध्यपाषाण काल का महत्व पूर्ववर्ती संस्कृतियों से अधिक है। मानव विकास के साथ ही यह धरती के विकास के इतिहास में भी एक नयी स्थिति का परिचायक है। उच्च पुरापाषाण काल तक अतिशीतल एवं अति वर्षा की स्थिति थी। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी का अधिकांश भू-क्षेत्र दलदली या जल प्लावित थे अथवा हिम आच्छादित थे। जिसके कारण जलवायु मानव एवं वनस्पतियों के विकास के अनुकूल नहीं थी। लेकिन उच्चपुरापाषाण काल के अन्तिम चरण तक लगभग सभी भू-भागों में समशीतोष्ण जलवायु का प्रारम्भ हुआ। हिमाच्छिादित क्षेत्रों में बर्फ की चादरें उठने लगी और दलदली मैदान सूखने लगे। इस युग को ‘ सर्वनूतन युग ’ कहा गया। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप पृथ्वी पर अनेक बदलाव हुए। जहाँ पहले बर्फ थी वहाँ अब घास के मैदान बन गया, अति वर्षा वाले भू-क्षेत्रों में घने जंगलों में परिवर्तित हाने लगा। जंगली घासों के उदय ने मानव को संभवतः अन्न उत्पादन के लिए प्रेरित किया होगा। अर्थात् इस काल को आधुनिक अनाजों का पूर्ववर्ती माना जा सकता है। इस जलवायु परिवर्तन के कारण धरती पर विचरण करने वाले जीव -जन्तुओं को भी प्रभावित किया। अपेक्षाकृत गर्म जलवायु के कारण विशालकाय मैमन एवं घने बालों वाले गैंडे धीरे-धीरे लुप्तप्राय होने लगे। और नवीन जीव-जन्तुओं का आर्विभाव इस धरातल पर हुआ, जैसे, बकरी, छोटे भेंड, हिरण आदि। इन परिवर्तनों से मानव अछूता नहीं रहा। क्योंकि कोई भी जीव विशेष कर मानव वातावरण से अलग नहीं रह सकता। उनका जीवन यापन एवं खानपान उन परिस्थितियों से प्रभावित होता है, जिनके बीच रहकर वह अपना जीवन यापन करता है। परिवर्तित जलवायु परिवर्तन से उसने सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसकी जीवन पद्धति में भी बदलाव होना आवश्यक था। उच्चपाषाण काल तक मानव जीवन मुख्यतः आखेट पर ही निर्भर रहा। आखेट के लिए धनुष-बाण व्यापक पैमाने पर उपयोग होने लगा था। इस काल का मानव पशुओं के शिकार के अलावा मछली, कछुआ आदि जलचरों का शिकार अपनी भूख मिटाने के लिए करता था। हालैण्ड के ‘ पेस ’ नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से लकड़ी की एक डोंगी मिली है जिसकी तिथि 6250 ई0पू0 है। अतः हम कह सकते हैं कि लकडी़ की डोंगी का सर्वप्रथम निर्माण का श्रेय मध्य पाषाणिक मानव ने किया था। लेकिन इस काल का मानव जंगली घास एवं वनस्पतियों के बीजों तथा फलों का संचय एवं प्रयोग करने लगा था। इसलिए उसे ‘ संचयक मानव ’ कहा जाता है। जो इस काल की विशेष उपलब्धि थी। इस समय खेती का प्रारम्भ एवं उद्योग के रूप में पशुपालन का शुभारम्भ नहीं हुआ था।                 उच्च पुरापाषाण काल के बाद विश्व में जलवायु परिवर्तन व्यापक पैमाने पर हुआ। मध्य पाषाण काल को काल की दृष्टि से नूतन काल के अन्तर्गत रख सकते हैं। नूतन कल्प के परिवर्तनों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसे अपने उपकरणों में बदलाव करना आवश्यक था। उच्च पाषाण काल से ही परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी, लेकिन इस काल के अन्तिम चरण तक यह पूर्णतः स्पष्ट हो गयी। इस काल के उपकरणों का निर्माण संकरे एवं छोटे-छोटे ब्लेड पर होने लगा, जिसे फ्लूटेड से निकाला गया था। प्रारम्भ में विद्वानों की धारणा थी कि मध्य पाषाणिक, लघुपाषाणिक उपकरण पतनोन्मुख समाज का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन यह समीचीन नहीं है। यह मानव की प्रगति एवं तकनीकी ज्ञान का परिचायक है। इस काल में कई उपकरणों को जोड़कर एक नया उपकरण बनाया जाता था, इस लिए इन्हें संयोजन उपकरण की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे उपकरणों का प्रयोग दूर से फेंक कर बाण की तरह प्रयोग किया जाता था।                  भारत के लगभग सभी भू-भागों से मध्य पाषाणिक पुरास्थल प्रकाश में आयें हैं। भारत में मध्य पाषाणिक उपकरणों की खोज ए0 सी0 एल0 कार्लाइल महोदय ने 1867ई0 में विन्ध्य क्षेत्र में किया था। तब से लेकर आज तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में आते रहे हैं। इस युग में जनसंख्या में बृद्धि हुई। इस जनसंख्या बृद्धि का कारण जीविका की सर्वसुलभता थी। जिसके फलस्वरूप प्रव्रजन एवं स्थानान्तरण हुआ होगा। आवागमन एवं परिभ्रमण से लोग परस्पर मिलते जुलते

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पाषाण कालः (Stone Age)

मानव सभ्यता के विकास का इतिहास किसी आकस्मिक घटना क्रम का परिणाम नहीं वरन् हजारों वर्षों के उत्थान-पतन के क्रमिक विकास का परिणाम है। मानव सभ्यता के इस उत्थान-पतन के इतिहास को अध्ययन की सुविधा अनुसार तीन युगों में विभक्त किया जाता है-प्रागैतिहासिक, आद्यैतिहासिक, तथा ऐतिहासिक । पृथ्वी पर मानव सभ्यता का आरंभिक काल प्रागैतिहासिक काल के नाम से अभिहित किया जाता है जो मानव के सांस्कृतिक विकास के एक बड़े हिस्से को समेटता है। 1833 ई. में फ्रांसीसी पुरातत्त्ववेत्ता पाॅल टरनल ने ‘पीरियड एण्ड-हिस्टाॅरिक’ शब्द का प्रयोग किया था। आज यह शब्द सिमटकर अंग्रेजी में प्रीहिस्ट्री और हिंदी में प्रागैतिहासिक काल हो गया है। प्रागैतिहासिक युग का अभिप्राय उस प्रारम्भिक युग से है, जब जीव तत्व अस्तित्व में आकर क्रमशः पशु-योनि एवं मानव-योनि में पर्दापण किया और इसका अन्त लेखन कला के प्रथम परिचय के साथ स्वीकार किया। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रागैतिहासिक काल वह है जिससे सम्बन्धित लिखित साक्ष्य पूर्णतया अनुपलब्ध है। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार का मत है कि इस युग का प्रागैतिहासिक नामकरण का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि यह ऐतिहासिक युग से पूर्व की मानव-कथा का अध्ययन प्रस्तुत करता है। इस युग का मानव पूर्णरूपेण निरक्षर था। ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक काल के बीच विभाजक रेखा के रूप में साक्षरता को स्वीकार किया जा सकता है। डा0 श्रीराम गोयल का यह कथन तर्कसंगत लगता है कि प्रागैतिहासिक काल में मानव का साहित्य और मनोमय जगत अज्ञात ही रह जाता है यद्यपि कि अन्य प्रतीकों को उन्होंने खोज लिया था, ऐसा प्रतीत होता है। आरंभिक मानव के समक्ष दो कठिन समस्याएं थीं- एक तो भोजन की व्यवस्था करना और दूसरे जानवरों से स्वयं की रक्षा करना। मानव ने भोजन के लिए शिकार करने, जंगली फलों और कन्दों को तोड़ने-खोदने एवं जानवरों से अपनी रक्षा करने के लिए नदी उपत्यकाओं में सर्वसुलभ पाषाण-खण्डों को प्रयुक्त किया। सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में मानव ( होमो सेपियंस ) पत्थर का औजार बनाता था, क्योंकि पत्थर उसे सरलता से उपलब्ध था। प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने के लिए पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में पाषाण उपकरण ही सर्वाधिक मात्रा में प्राप्त हुए हैं। पाषाण-उपकरणों की प्रधानता और उन पर मानव की निर्भरता के कारण इस आरंभिक काल को ‘ पाषाण काल ’ कहा जाता है।  मानव सभयता के विकास का प्राथमिक चरण पूर्व पाषाण काल का है। इस काल का आरम्भ नृतत्व शास्त्र के साक्ष्यों के आधार पर आज से लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना गया। विभिन्न देशों से इस काल की जो सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं, उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रायः उन सभी देशों के आरम्भ्कि इतिहास का रूवरूप एक जैसा था। यूरोप, एशिया, अफ्रीका आदि सभी देशों में बेडौल एवं भद्दे उपकरण प्राप्त हुए हैं। भारत में पाषाणकालीन संस्कृति का अनुसंधान सर्वप्रथम 1863 ई. में प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम राबर्ट ब्रूस फुट नामक भारतीय जिओलाॅजिकल सर्वे के विद्वान ने, जो भारतीय प्रागैतिहास के पिता कहे जाते है, मद्रास के निकट पल्लवरम् नामक स्थान से पुरापाषाण काल के एक हस्त-कुठार की खोज की।  इसके बाद, इस प्रकार के उपकरणों की प्राप्ति का क्रम निरन्तर चलता रहा। किंग, ओन्डहम,  हैकेट, बीन ब्लैन्फर्ड आदि विद्वानों को अधिक संख्या में पाषाण कालीन उपकरण मिले। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक मद्रास (वर्तमान चेन्नई), बंबई ( वर्तमान मुम्बई ), मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और उत्तर प्रदेश के स्थलों तथा मैसूर, हैदराबाद, रीवा, तलचर आदि से भी प्रागैतिहासिक संस्कृति के अनेक स्थल प्रकाश में आये। 1935 ई. में डी. टेरा एवं पैटरसन के निर्देशन में येल कैब्रिज अभियान दल ने शिवालिक की पोतवार ( पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त ) के पठारी भाग का सर्वेक्षण किया और वहाँ कई पुरा पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त किये।  पूर्व पाषण काल के उपकरणों की प्राप्ति स्थलों से स्पष्ट होता है कि इस समय मनुष्य नदियों के किनारे एवं झीलों के तटों या पर्वतों की कंदराओं में निवास करता था। पूर्व पाषाण कालीन संस्कृति के उदय एवं विकास का समय प्रातिनूतन काल में लगभग 6 लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। जो सहस्रों वर्षों तक चला। डा0 धीरेन्द्रनाथ मजूमदार के अनुसार इस अवधि में उत्तर एवं दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों का क्रम चलता रहा। उत्तर भारत में यह क्रम इस प्रकार रहा-1. प्रथम हिम युग, 2. प्रथम अन्तर्हिम युग, 3. द्वितीय हिम युग, 4. द्वितीय अन्तर्हिम युग, 5. तृतीय हिम युग, 6. तृतीय अन्तर्हिम युग, 7. चतुर्थ हिम युग, 8. हिमोत्तर युग। हिम युग अत्यधिक शीतप्रधान और अन्तर्हिम युग अपेक्षाकृत उष्ण था। दक्षिण भारत में भी जलवायु परिवर्तन का क्रम चलता रहा। यहाँ जो यह क्रम चला वह वृष्ट्यावर्तन और वृष्टिप्रत्यावर्तन काल अपेक्षाकृत शुष्क था। पूर्वपाषणकालीन संस्कृति का उदय एवं विकास इसी प्रकार की जलवायु सम्बन्धी परिवर्तनों की पृष्ठभूमि पर दर्शित होता है। मानव द्वारा प्रस्तर-उपकरणों के प्रयोग की एक लम्बी शृंखला है। अनगढ़ पत्थर के औजारों से लेकर परिष्कृत पाषाण-उपकरणों में मानव की विकसित होती बुद्धि-क्षमता सहज ही प्रतिबिंबित होती है। 1816ई0 में कोपेनहेगेन, डेनमार्क राष्ट्रीय संग्रहालय के अध्यक्ष सी जे थामसन ने पुरावशेषों के त्रिवर्गीय पद्धति अथवा त्रिकाल प्रद्धति का आविष्कार संग्रहीत पुरावशेषों के आधार पर किया। थामसन महोदय ने पाषाण उपकरणों या औजारों को सर्वप्रथम, कांस्य उपकरणों को उसके बाद तथा अन्त में लौह उपकरणों को रखा। जो इस प्रकार है-1. पाषाण युग 2. ताम्र/कांस्य युग, 3. लौह युग यह वर्गीकरण संभापित मानव के तकनीकी विकास के आधार पर किया गया था। कुछ वर्ष बाद डेनमार्क में वारसा द्वारा उत्खनन किया गया। जिसके फलस्वरूप स्तरीकरण जमाव क्रमशः फ्लिंट अर्थात् पाषाण, कांस्य और लौह उपकरणों के मिले। अतः इस आरम्भिक संकेत को आधार मानकर पुरातत्व विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानव सभ्यता का तकनीकी विकास क्रमशः इन्हीं तीन काल क्रमों हुआ। लेकिन कुछ पुरातत्वविद् इस त्रिकाल प्रणाली के वर्गीकरण से असंतुष्ट थे। वे पुरावशेषों का वर्गीकरण उपकरणों का प्रयोग, परम्परागत प्रणाली से पुरावस्तुओं की व्याख्या, मानव के क्रमिक विकास आदि के आधार पर करना चाहते थे। सर्वप्रथम निलसन महोदय ने 1. बर्वर , 2. शिकारी या घुमक्कड , 3. कृषक , 4. सभ्यता इन चार वर्गों में विभाजित किया। लेकिन इस वर्गीकरण के माध्यम से मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का पता तो चलता है लेकिन मानव के तकनीकी विकास की व्याख्या नहीं हो पाती है। सर्वप्रथम जान लुब्बक

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कल्याणी का चालुक्य युगीन संस्कृति: भाग-2(Kalyani’s Chalukya Era Culture:Part-2)

धार्मिक स्थितिः                     भारतीय समाज में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। नैतिक नियमों के पालन से ही मानव का हित समभव है। धर्म के अन्तर्गत धार्मिक, सामाजिक संस्कार, परम्परायें, एवं नैतिक मान्यतायें आती हैं। प्राचीन काल से ही भारत में धार्मिक स्वतंत्रता रही है और इसी परम्परा में कल्याणी के चालुक्य शासक अत्यन्त सहिष्णु और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इस काल में सभी धर्मों के अनुयायिों में एक दूसरे धर्म के प्रति आदर भाव एवं सहनशीलता थी। इस काल की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि चालुक्य राजाओं द्वारा सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों को बिना किसी भेद-भाव के उदारता पूर्वक दान दिया जाता था। तत्कालीन अभिलेखों का प्रायः मुख्य उद्देश्य धर्म की अभिवृद्धि करने के लिए किये गये यज्ञों तथा दानों को स्थायित्व प्रदान करना था। इस काल में समाज में मुख्यतः दो धर्मों का विशेष विकास हमें दिखाई पड़ता है। पहला वैदिक धर्म और दूसरा जैन धर्म। बौद्ध धर्म इस समय पतनोन्मुख था। तथापि चालुक्यों के काल में वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध धर्मों का अस्तित्व निरन्तर बना रहा।                 चालुक्य शासन काल में वैदिक धर्म और संस्कृति का काफी विकास हुआ था। इस काल में अनेक धार्मिक यज्ञों का अनुष्ठान सम्पादित किये गये। चालुक्य लेखों से पता चलता है कि दान प्राप्त ब्राह्मण विभिन्न वैदिक धर्म की शाखाओं से सम्बन्धित थे। इस काल में वैदिक धर्म से सम्बन्धित अनेक पौराणिक देवी -देवताओं का प्रचलन समाज में हुआ। इस समय दक्षिण भारत में शैव धर्म का व्यापक प्रचार एवं प्रसार हा रहा था। राजा अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपने आराध्य शिव की दर्शनार्थ शिव मंदिरों में जाते थे और दान करते थे। दक्षिणापथ में इस काल में शैव धर्म से सम्बन्धित पाशुपत सम्प्रदाय सबसे अधिक लोकप्रिय था। बल्लिगावे, सूदि, कक्कनूर, श्रीशैलम आदि इस धर्म से सम्बन्धित प्रमुख केन्द्र थे। शैव धर्म से सम्बन्धित दूसरा प्रमुख सम्प्रदाय कालामुख सम्प्रदाय था। इसका प्रमुख केन्द्र बल्लिगावे था। चालुक्य कालीन एक लेख में सोमेश्वर नामक एक नैयायिक कालामुख का विवरण मिलता है। इस काल में शिव भक्त कार्तिकेय एवं सुब्रह्मण्य की भी पूजा करत थे। कर्नाटक का बेल्लारी कार्तिकेय पूजा का मुख्य केन्द्र था।                 शैव धर्म की भाँति दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म काफी लोकप्रिय था। वातापी के चालुक्य शासक वैष्णव धर्म के अनयायी थे। लेकिन इस समय शैव धर्म काफी लोकप्रिय हो रहा था जिसके कारण वैष्णव धर्म की लोकप्रियता में कुछ गिरावट देखने को मिलती है। गदग लेख से ज्ञात होता है कि गदग में त्रैपुरूष एवं द्वादश नारायण का मंदिर था। इसी तरह पोंबुल्व में एक जीर्ण -क्षीर्ण वैष्णव मंदिर का पुनर्निर्माण जक्किमप्य नामक एक ब्राह्मण ने करवाया था। मैलार से प्राप्त एक लेख में 200 वैष्णव महाजनों द्वारा एक शिव मंदिर के प्रबन्धन की व्यवस्था दिये जाने का विवरण मिलता है। नागवानि का मधुसूदन मंदिर वैष्णव धर्म का प्रधान केन्द्र था।                 चालुक्यों का शासन काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। वैष्णव तथा शैव धर्मों के साथ-साथ जैन धर्म की प्रगति विशेष उल्लेखनीय है। तत्कालीन समाज में जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या अधिक थी। वे अपने धर्माचरण में पूर्ण स्वतंत्र थे। इस काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म अधिक लोकप्रिय हो रहा था। चालुक्य लेखों में जैन धर्म के श्रेष्ठ जनों का सन्मार्ग पर चलने में आनन्द प्राप्त करने वाले गृहस्थों के रूप में उल्लेख मिलता है। (सागार सुमार्ग निरतार)। इस समय यहाँ अनेक जैन मंदिर का उल्लेख मिलता है। चोल आक्रमण के फलस्वरूप अनेक जैन मंदिरों को काफी नुकसान पहुँचा था। वासवपुराण के अनुसार होट्टलकेरे का शासक जयसिंह द्वितीय जैन था, जब कि उसकी पत्नी सुग्गलदेवी शैव धर्मानुयायी थी। बाद में सुग्गलदेपी के आग्रह पर उनके गुरू ने जयसिंह द्वितीय को शैव धर्म में दीक्षित किया। लेकिन यह वर्णन सत्य के कितना निकट है, कुछ नहीं कहा जा सकता है। चालुक्य शासक सत्याश्रय ने जैन कवि पम्प को संरक्षण प्रदान किया था।                 चालुक्य वंशीय नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। अतः इसमें कोई आश्चार्य नहीं कि बौद्ध धर्म के निरन्तर हो रहे अवनति के कारण लोंगो का विश्वास कम होने लगा। यद्यपि चालुक्य शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी थी, किन्तु उनके द्वारा बौद्ध धर्म को कोई संरक्षण मिला, इसका कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। बौद्ध धर्म की अवनति इस समय अवश्य हो रही थी लेकिन यह पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ था। क्योंकि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में अनेक बौद्ध मंदिरों, विहारों एवं संघारामों का उल्लेख किया है। इनके अवशेष आज भी मिलते हैं। दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार-प्रसार था। बेलगावे एवं डंबल इस काल का प्रमुख बौद्ध केन्द्र था। डंबल में एक बौद्ध विहार था, जिसका निर्माण 16 सेट्टियों ने करवाया था। जो इस बात का प्रमाण है कि इन संस्थाओं को दान दिया जाता था, और इसे राजा की स्वीकृति रहती रही।                 चालुक्य काल की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि चालुक्य शासक धार्मिक जगत में सहिष्णु थे। सहिष्णुता की यह भावना भारत में बहुत पहले से चली आ रही है। चालुक्य शासक ब्राह्मण धर्म विशेषकर शैव धर्म के अनुयायी होते हुए भी जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। इस समय ब्राह्मण और जैन धर्म का बोलबाला था। पौराणिक देवताओं के अनुयायियों में पूर्ण समरसता थी। परिवारों में वैयक्तिक आवश्यकता अनुसार इष्टदेव परिवर्तित होते रहते थे। प्रारम्भिक चालुक्य शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, किन्तु बाद के शासक शैव धर्म के अनुयायी बन गये। जैन धर्म को इस समय राजाश्रय प्राप्त था। अनेक चालुक्य शासकों ने जैन मंदिरों, मठों एवं विहारों को दान प्रदान किया। इससे यह कहा जा सकता है कि यह काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। कला एवं साहित्यः                 भारतीय कला सदा से ही धर्म की सहचरी रही है। जिसके फलस्वरूप इसका विकास धर्म के माध्यम से देवालयों तथा भवनों के निर्माण के रूप में होता रहा। कल्याणी के चालुक्य शासकों ,सेनापतियों एवं अधिकारियों द्वारा निर्मित अनेक मंदिर उस समय की कला के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस अवधि में अनेक चालुक्य शासकों ने ब्राह्मण धर्म को राजाश्रय प्रदान किया। चालुक्य शासकों की उदार सहिष्णुता के कारण जैन धर्म के अनेक मंदिरों का भी निर्माण हुआ। जिनसे उस काल की स्थापत्य, मूर्ति और वित्रकला पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। चालुक्यों की राजनैतिक उत्थान-पतन के

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कल्याणी का चालुक्य युगीन संस्कृति: भाग-1(Kalyani’s Chalukya era culture: Part-1)

इतिहास के वातायन से अतीत का मूल्यांकन करना सहज कार्य नहीं है, विशेष कर जब ऐतिहासिक लिपियों, साक्ष्यों और चरित्रों की प्रामाणिकता का कोई ठोस आधार न हो। प्रत्येक देश में सामाजिक संगठन, विभाजन एवं स्तरीकरण का रूप उसकी अपनी भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन की आवश्यकताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया की अपनी विशेषतायें हैं। दक्षिणापथ का तात्पर्य उस भू-क्षेत्र से है, जो उत्तर में विन्ध्य पर्वत  के दक्षिण पूर्वी सागर से लेकर पश्चिमी सागर पर्यन्त तथा दक्षिण में हिन्द महासागर तक विस्तृत था। दक्षिणापथ के उदीयमान राजवंशों में चालुक्य वंश का महत्वपूर्ण स्थान था। चालुक्यों की गतिविधयों को समझने के लिए तत्कालीन दक्षिण भारत के इतिहास को भली-भाँति जानना आवश्यक है क्योंकि न केवल राजनैतिक अपितु प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी चालुक्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। चालुक्य वंश का अस्तित्व भारतीय इतिहास में दीर्घकालिक रहा। राष्ट्रकूट राजवंश के सुदीर्घ शासन अवधि के बाद दक्षिण भारत में कल्याणी के चालुक्यों नें अपने नवीन साम्राज्य की स्थापना की। अन्तिम राष्ट्रकूट कर्क द्वितीय को सत्ताच्युत कर तैलप द्वितीय ने जिस नवीन राजवंश की स्थापना की, वह कल्याणी के चालुक्य राजवंश के नाम से प्राचीन भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। इस राजवंश को ही परवर्ती चालुक्य या पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। चालुक्य वंश के अध्ययन के लिए साहित्यिक साक्ष्यों एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से जानकारी मिलती है। साहित्यिक ग्रन्थों में कश्मीरी कवि बिल्हण की रचना ‘विक्रमांकदेव चरित’ एवं कन्कड कवि रन्न कृत ‘गदायुद्ध’ विशेष महत्वूर्ण हैं। कवि बिल्हण कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के दरवारी कवि थे। जिन्हें विक्रमादित्य षष्ठ ने ‘विद्यापति’ की उपाधि प्रदान की थी। विक्रमांकदेवचरित में चालुक्य वंश की उत्पत्ति से लेकर विक्रमादित्य षष्ठ के राजा बनने, विवाह, विक्रमपुर नगर की स्थापना, विजयें आदि का विवरण इसमें सविस्तार मिलता है। गदायुद्ध से हमें तत्कालीन सामाजिक- सांस्कृतिक गतिविधयों की पर्याप्त जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा से हमें विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से भी हमें महत्वपूर्ण सूचना मिलती है। शासन पद्धतिः                 चालुक्य राजवंश का अस्तित्व सुदीर्घ अवधि तक प्राचीन भारतीय इतिहास में बना रहा।  भारत के विभिन्न प्रदेशों में इनकी अनेक शाखायें अपना शासन-प्रशासन चलाती थीं। जिसके कारण इनके राजनीतिक एवं प्रशासनिक संगठन भी भिन्न-भिन्न रहा। यहाँ हमारे अध्ययन का विषय कल्याणी के चालुक्य वंश की प्रशासनिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करना है। प्रारम्भिक चालुक्यों का प्रशासन गुप्त-वाकाटकों का परवर्ती होने के कारण बहुत कुछ उनकी प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित रहा। एक विस्तृत भू-भाग में फैले होने के कारण जिसमें विभिन्न बोली और भाषा वाले व्यक्ति रहते थे। जिनका प्रशासन के स्थानीय नियमों और नामों में काफी प्रभाव था।  चालुक्यों की कोई अपनी शासन पद्धति नहीं थी, ऐसा साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है। इस राजवंश के शासक निरन्तर युद्ध एवं साम्राज्य विस्तार में के कारण लड़ाईयों में ही व्यतीत हुआ, जिससे इन्हें प्रशासनिक संगठन में बदलाव करने का अवसर नहीं मिला। अतः चालुक्यों का प्रशासन परम्परा, प्रयोग और विवके अर्थात् धर्मशास्त्रों के अनुसार चलता था। तत्कालीन अभिलेखों से राजतंत्र एवं प्रशासन पर कुछ प्रकाश पड़ता है। राजाः मानवीय संस्कृति की चार मुख्य प्रवृत्ति-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष है। इनके प्रवर्तन के लिए समाज में समुचित वातावरण का होना आवश्यक है। इसके लिए समाज का संघटन करने का उत्तरदायित्व सदैव राजा एवं उच्चकोटि के विचारकों तथा आचार्यों पर रहा है। विचारक और आचार्य समाज की सुदृढ़ व्यवस्था के लिए योजनायें बनाते आये हैं और राजा उन योजनाओं को कार्य-रूप में परिणत कराने के लिए सूत्रधार रहा है। समाज-संघटन की योजना के अन्तर्गत राजा और प्रजा का जो सम्बन्ध स्थापित होता है, वह राजनीतिक जीवन का प्रथम रूप है। चालुक्यों के प्रारम्भिक लेखों से उनके पूर्वजों का कोई ज्ञान नहीं होता किन्तु परवर्ती लेखों में बादामी की मुख्य शाखा से सम्बद्ध करने का प्रयास किया गया है। दक्षिण भारत के इतिहास में कल्याणी के चालुक्य शासक साम्राज्य निर्माता के साथ- साथ संस्कृति के महान् उन्नायक थे। इनके शासनावधि में साहित्य, कला और प्रशासन के क्षेत्र में महती प्रगति हुई। चालुक्यों एवं उनके समकालीन राज्यों में राजा शासन सम्बन्धी गाड़ी की धुरी के समान था। चालुक्यों का प्रशासन एकतंत्रात्मक था। राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वही सेना, शासन एवं न्याय तीनों का प्रमुख था। सैनिक क्षेत्र में वह बडे़-बड़े युद्ध का नेतृत्व करता था। असीमित शक्तियों से युक्त राजा निरकुंश नहीं था। कल्याणी के चालुक्य शासक राज्य के अधिकारियों एवं सामन्तों को उपाधियों का वितरण करता था। चालुक्य राजवंश का राजकीय चिन्ह देवी कात्यायनी द्वारा प्रदत्त ‘मयूरध्वज’ था तथा मुद्राओं पर ‘वराह’ का चिन्ह अंकित होता था। अभिलेखों में मंगलाचरण के रूप में एक छन्द में वराह रूप में विष्णु द्वारा धरती के उद्धार करने का विवरण मिलता है। इसमें कहा गया है कि भगवान विष्णु ने वराह रूप में धरती का उद्धार किया, उसी प्रकार ये अर्थात् चालुक्य भी पृथ्वी की रक्षा के लिए प्रकट हुए हैं। कौथेम ताम्रपट्ट अभिलेख में ‘सर्ववर्णधरम् धनुः’ मिलता है, जो चालुक्य नरेश इरिव-बेदंग सत्याश्रय के धनुष के बारे में कहा गया है। जिसका तात्पर्य है कि वह धनुष जो सभी वर्णों की समान रूप से रक्षा करता है एवं यह धनुष इन्द्रधनुष की तरह सभी रंग धारण करता है। चालुक्य शासक समस्तभुवनाश्रय, सर्वलोकाश्रय, विष्णुवर्धन और विजयादित्य जैसी उपाधियाँ अपनी विशेषनाम् (विशिष्टिता) के संदर्भ में धारण करते थे। कई शासको ने त्रिभुवनमल्ल, त्रैलोक्यमल्ल और आहवमल्ल का विरूद धारण किया था। इस समय राजा का पद प्रायः आनुवंशिक होता था। जब तक कोई विशेष परिस्थिति न आ जाय तब तक राजा का बडा़ पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता था। अनेक पुत्रों की स्थिति में बडे़ पुत्र को ही राजा का पद मिलता था। कभी-कभी योग्यता को भी आधार मानकर शासक का चयन कर लिया जाता था। जैसे सोमेश्वर प्रथम ने अपने बडे़ पुत्र सोमेश्वर द्वितीय के स्थान पर अपने छोटे पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ को अपना उत्तराधिकारी बनाने का प्रस्ताव रखा था। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। कभी-कभी राजा के पुत्र हीन की स्थिति में राजा के अनुज को उत्तराधिकारी बनाया जाता था। जैसे जगदेकमल्ल के निःसंतान होने की स्थिति में तैलप तृतीय ने सिंहासन प्राप्त किया था। कल्याणी के राजाओं का राज्याभिषेक ‘किसुबोलल’ (पट्टदकल, बीजापुर) में होता था। अभिलेखों में इसे ‘समस्त नगरों में श्रेष्ठ एवं

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