सिक्ख – मुग़ल संबंध : एक विमर्श (Sikh-Mughal Relations: A Discussion)

डॉ एस एन वर्मा

एसोसिएट प्रोफेसर इतिहास,

राजकीय महाविद्यालय सेवापुरी वाराणसी।

सिक्ख धर्म मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का अनिवार्य उत्पाद था । अखिल भारतीय स्तर पर अपनी धमक दर्ज कराने के कारण इसे राष्ट्रीय स्वरूप  वाला अभिधान भी दिया  जाता है। इसके केंद्र में भक्ति  थी] जिसे  मुस्लिम आक्रमण से उत्पन्न पराजित मनोवृत्ति का परिणाम कहा जाता है। हजारी प्रसाद इसे  बारह आने  मुस्लिम पराजय का परिणाम मानते हैं । शेष दूसरी घटनाओं का प्रभाव जिसमे दक्षिण से आने वाली भक्ति भी शामिल थी। अधिकांश भारतीय विचारक अब दक्षिण से आये भक्ति प्रवाह को अधिक महत्त्व देने लगे है । रामानंद इस क्रांति के प्रसारक और उत्तर- दक्षिण सेतु मान लिए जाते हैं । इन्ही के प्रभाव के कारण उत्तर भारत मे कबीर] महाराष्ट्र में नामदेव] बंगाल में चैतन्य और पंजाब में नानक का उदय होता है । सबने अपने क्षेत्रों में नवीन चेतना] प्रगतिशीलता] मानवता] ईश्वर प्रेम] समाज सुधार आदि की बात करते हैं । भाषा के आधार पर अलग अलग दिखने वाले अपनी अपील में एकरूप  दिखते हैं । राजनीतिक रूप से मुस्लिम प्रभाव इन क्षेत्रों में अलग अलग समय पर स्थापित हुआ था । पंजाब तो सबसे पहले प्रभावित हुआ था। सल्तनत की स्थापना के बाद भी पंजाब अलग धार्मिक पृष्ठभूमि वाले मंगोलों से आक्रांत रहा। तैमूर के आक्रमण के समय तक मुस्लिम सत्ता पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थिर नही हो पाई थी। दिल्ली के सुल्तान कभी अलगाव] कभी दबाव तो कभी संघर्ष की नीति पर चलते रहे। शांति तब स्थापित हो पाई जब मङ्गोल नव -मुस्लिम के रूप में आ गए। पंजाब की  राजनीतिक और कृषीय व्यवस्था  ने एक साथ  परिवर्तन और अशांति देखी । अतः यहाँ विकसित सिक्ख धर्म के साथ दूसरे अन्य तथ्यों पर सोच विचार की आवश्यकता है। आजकल सिक्ख और हिन्दू धर्म मे घालमेल कर दिया गया है। क्या भक्ति आंदोलन के  सभी संत हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना चाहते थे] शायद नही। यदि उन संतो के विचार आज हिन्दू धर्म के अंग हैं तो सिक्खों के धर्म को क्योंकर हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाए। विशेषकर तब जब इस धर्म के संस्थापकों ने बाकायदा अलग धार्मिक विधान बना लिए थे। मसलन ]उनके पूजा स्थल] धार्मिक पुस्तक] आचार संहिता आदि सभी कुछ अलग हो गए थे जो अब तक विकसित धार्मिक प्रणालियों के आवश्यक अंग माने जाते थे।  हिन्दू धर्म इस मानक पर धर्म नही बल्कि जीवन दर्शन था। इस आलेख में सिक्ख धर्म के विकास क्रम के साथ मुगलों के साथ इसके सम्बन्धों की जांच पड़ताल की कोशिश की गई है। क्या यह संबंध केवल धार्मिक मुठभेड़  ही बना रहा  या फिर इसके मूल में अन्यान्य तत्त्व थे। यह जन्मना भारतीय धर्म तो है लेकिन क्या यह अखिल भारतीय मुक्ति का आकांक्षी रहा है। हिन्दू फोल्ड के अंतर्गत इसे शामिल करने की मंशा कुछ और तो नही है। इन प्रश्नों का उत्तर आज जनमानस में कौतूहल का विषय है।

1-सिक्ख धर्म की स्थापना का इतिहास

गुरु नानक को सिक्ख धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। उनका जन्म  कार्तिक पूर्णिमा के दिन 1469 ईस्वी में पंजाब के रावी नदी के किनारे  गुजरांवाला जिले के तलवंडी नामक स्थान  पर हुआ था। उनके जन्म के समय तक पंजाब पर इस्लाम का पूर्ण प्रभाव स्थापित हो गया था। पानीपत] सरहिन्द] पाक पट्टन] मुल्तान] उच्छ आदि सूफी संतों और फकीरों से भरा  पड़ा था। अतः नानक की भाषा व्यंग्यात्मक की बजाय प्रेम और सहानुभूति की है। उन्होंने दलितों को उचित सम्मान देकर इस्लाम अपनाने से रोका लेकिन वापस हिंदू धर्म मे बने रहने की अपील नही की। धर्म और समाज के बाहर वे राजनीतिक चेतना के प्रसार की बात  आरम्भ से ही कहते हैं। लोंगो के निराशा भाव को दूर करके आशा विश्वास और पौरुष का संचार उनका लक्ष्य बन गया। बाबर के आक्रमण के समय की दुश्वारियों को उन्होंने महसूस किया था। एक समाज सुधारक के रूप में उन्होंने जाति प्रथा का खंडन किया] हिन्दू- मुस्लिम समन्वय] स्त्री सुधार की वकालत की। स्त्रियों को आध्यात्मिक साधना और अन्य क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार दिया। प्रायः  अन्य संत केवल धार्मिक और सामाजिक  जीवन को केंद्र में रखते रहे लेकिन नानक  इस दृष्टि की व्यापकता में भी आगे रहे। उनके विचारों में जनतांत्रिक सिद्धान्तों के महत्त्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं जो समाजवादी समाज का पूर्वाभास देते हैं। यह अकारण नही था कि उनके अनुयायियों ने एक बिशिष्ट सामाजिक राजनीतिक वर्ग बना लिया। यह हिन्दू सामाजिक ढांचे की मान्यता का उतना ही विरोध करता है जितना कि मुगल नीतियों का। कहा जाता है कि नानक और बाबर की मुलाकात भी हुई थी। बाबर उनके आध्यात्मिक विचारो से प्रभावित भी था । उनकी नीतियां ही आगे चलकर  गोविंद सिंह के धार्मिक सैन्यवाद में परिणत हुईं। उनके उपदेशों का आधार इतना सशक्त था कि आगे चलकर सिक्ख धर्म ने एक प्रभावशाली पूर्ण धर्म का स्वरूप धारण किया। 1538 में नानक की मृत्यु के बाद अंगद दूसरे गुरु हुए जिनका नॉमिनेशन नानक ने अपने जीवनकाल में ही कर दिया था।

अमरदास तीसरे गुरु हुए ] और रामदास चौथे] उनके समय तक सिक्ख अलग समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। सिक्ख अपने गुरुओं को भगवान का अवतार और दैवीय शक्ति सम्पन्न मानने लगे ।यह धारणा बन गयी कि  नानक की आत्मा  ही अंगद] अमरदास रामदास तक यात्रा की है बाद में यह गोविंद सिंह तक  चलती चली गयी। अधिंकाश सिक्ख जाट समुदाय से जुड़े थे जो स्वाभाविक रूप से मेहनती और बहादुर थे। उनके मन मे गुरुओं के प्रति अगाध सम्मान था] एक आवाज पर अपनी जान न्यौछावर करने को तैयार थे। अब तक के सभी गुरु सांसारिक चकाचौंध से दूर आध्यात्मिक प्रकर्ष के हिमायती थे। यद्यपि सभी ने गृहस्थ जीवन का परित्याग नही किया था लेकिन रामदास के  समय से ही धन संग्रह की प्रवृत्ति आरम्भ हो गयी। अकबर ने उन्हें  500 बीघा जमीन दान की जिससे कि अमृतसर में मंदिर और तालाब का निर्माण किया जा सके।  मियां मीर एक मुस्लिम था जिसने  अमृतसर के गुरुद्वारे का प्रथम पत्थर रखा था। अतः दोनों समूहों में अनबन होने का कोई कारण नही था। अब तक उत्तराधिकार नियम पैतृक नही हुआ था। जब रामदास ने अपने पुत्र अर्जुनदास को गुरु का पद दिया] तभी से पैतृक अधिकार का समावेश हुआ।  अमरदास और रामदास के बीच जामाता का सम्बंध था।

2- गुरु अर्जुनदेव का समय 

अर्जुनदेव की अगुवाई में सिक्ख धर्म ने नए आयाम ग्रहण किये। गुरु पद पैतृक हो गया] जो धार्मिक और आध्यात्मिक बंधुत्व के लिए नए विवाद उत्पन्न कर सकता था। पृथ्वीचंद ने  जो अर्जुन बड़े भाई थे] गुरु पद को लेकर अपनी दावेदारी प्रस्तुत की। क्योंकि उनका व्यक्तित्व उतना प्रभावशाली नहीं था] इसलिये उन्हें व्यवस्थापकों ने नहीं स्वीकार किया। अर्जुनदेव के दयालु चरित्र से प्रभावित होकर सिक्ख धर्म के अनुयायी बढ़ने लगे। काबुल से लेकर ढ़ाका तक कोई ऐसा शहर नही रहा ]जहाँ उनके अनुयायी नही बन गए। अपने अनुयायियों को सुझाव देने के लिये गुरु अर्जुन ने आदि ग्रंथ का संकलन आरम्भ किया। इसमें तत्कालीन प्रमुख संतो –कबीर] रहीम] फरीद और नानक के विचारों के साथ स्वयं के उद्गारों  को संकलित किया। अर्जुनदेव एक निर्भीक और बहादुर संत थे ] उन्होंने अनुचित प्रतीत होने वाली हर बात का विरोध किया। जब दानीचन्द नामक व्यक्ति ने अपने विचारों को गुरु ग्रन्थ में शामिल करने और गुरु पुत्र का अपनी पुत्री के साथ विवाह करने  दबाव डाला तो उन्होंने स्पष्ट  इन्कार कर दिया। इससे नाराज दानीचन्द ने  गुरु -पद के लिए पृथ्वी चंद का समर्थन करना आरम्भ कर दिया। गुरु इससे विचलित नही हुए] वे सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत कर सिक्खों को एकत्र करते रहे। उन्होंने व्यापार और कर से बहुत सारी संपदा भी एकत्र कर ली।

उनके बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दू और मुस्लिम मिथ्या आरोप लगाने लगे। हिन्दुओं  ने अवतार पर प्रश्न किया तो मुस्लिमों ने कुरान की ग़लत व्याख्या का आरोप लगाया । वे कामयाब नही हुए। 1606 ईस्वी में विरोधियोँ को एक अवसर उस समय मिल गया जब खुसरो ने केंद्रीय सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया और पंजाब जाकर गुरु से मदद मांगी। गुरु ने दया दिखाई और उसकी धन दौलत से मदद कर दी। विरोधियों ने इसकी शिकायत जहांगीर से की तो गुरु को 2 लाख रुपये दंड के रूप में देने को कहा। अर्जुनदेव ने दंड देने से मना कर दिया तो मुगल शासक ने उसे नाफ़रमानी के आरोप में गिरफ़्तार करा दिया और उसकी हत्या करा दी। इस घटना का सिक्खों पर विपरीत प्रभाव पड़ा। यदि  जहांगीर के राज्य को अस्थिर किया गया होता तो इस प्रकार का दंड  न्याय पूर्ण होता। गुरु ने आर्थिक सहायता की बात स्वीकार की थी] अतः  चेतावनी देकर भी मुग़ल हितों की रक्षा की जा सकती थी। चंदू शाह  जो एक हिन्दू था]उसने गुरु अर्जुनदेव की हत्या की और अपने भाई पृथ्वीचंद के दिल को ठंडा किया। खुसरो इस घटना के बाद भी  मुग़ल राजनीति में  सक्रिय रहे। 1607 में उन्हें अंधा बनाकर छोड़ दिया गया था। लेकिन विरोधियों  की सक्रियता के कारण उन्हें कठोर दंड दिया गया। यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सिक्ख धर्म के अनुयायियों को टारगेट नही किया गया। केवल गुरु को व्यक्तिगत क्षमता में ही दंडित किया गया।ऐसा कोई कार्य नहीं दिखता जिसमे पूरा समूह दमन का शिकार हुवा हो। लेकिन सिक्ख इस घटना को सम्बन्धों  की शिफ्ट मानने लगे।

3-गुरु हरगोविंद का समय

गुरु की हत्या के बाद पृथ्वी चंद ने  अपने को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया लेकिन सिक्खों ने मृत गुरु के पुत्र  हरगोविंद को गद्दी पर बिठाया। हरगोविंद ने सैनिक प्रशिक्षण का नियम लागू किया और सामन्तों की जीवन शैली अख्तियार कर ली। उन्होंने कुछ समय तक जहांगीर की सेवा भी की लेकिन लेखा की खामियों की शिकायत पर गिरफ्तार कर लिए गए।  शाहजहां ने उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया लेकिन कुछ समय बाद गुरु की सैनिक महत्वांकाक्षा और शिकारी प्रवृति के कारण तनाव उत्पन्न हो गया। सिक्ख अभी इतना प्रशिक्षित नहीं थे कि वे शाही सेना का सामना कर सके। गुरु को अपना अंतिम समय कश्मीर की पहाड़ियों में बिताना पड़ा। अपने जीवनकाल में ही उन्होंने पौत्र हर राय को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। 1645 ईस्वी में उन्होंने गद्दी भी सम्भाल ली। वे शांतिप्रिय थे इसलिए इस दौरान मुगल सत्ता के साथ कोई संघर्ष नही हुआ। अलबत्ता सिक्खों का सैनिकीकरण चलता रहा। 

औरंगज़ेब ने दारा की सहायता के आरोप के बावजूद क्षमा कर दिया। गुरु ने क्षमा मांग ली थी और अपने पुत्र राम राय को  मुगल दरबार में बंधक के रूप में भेज दिया। एक धार्मिक समूह के शत्रु बन जाने जैसा प्रोजेक्शन नही बना था।1661 में जब हरराय की मृत्यु हुई तो उत्तराधिकार का प्रश्न फिर से खड़ा हो गया। प्रथम पुत्र हर राय एक दासी से उत्पन्न हुआ था तो दूसरा हरकिशन धर्म पत्नी से । हरराय प्रथम पुत्र को गुरु बनाना चाहते थे वे इसकी घोषणा भी कर चुके थे। राम राय को मुग़ल सत्ता का समर्थन भी था। लेकिन सिक्ख समुदाय  हरकिशन को गुरु पद पर बैठाना चाहता था। इससे जब तनावपूर्ण माहौल बना तो लोंगो ने औरंगजेब से हस्तक्षेप की मांग की। वह इसे आंतरिक मामला कहकर अलग ही बना रहा। सिक्खों ने हरकिशन को ही गुरु चुन लिया। 1664 ईस्वी में उनकी भी मृत्यु हो गयी। रामराय ने पुनः प्रयास आरम्भ कर दिया ] इस बार भी उसे सफलता नही मिली । गुरु हरगोविंद के सबसे छोटे पुत्र तेगबहादुर को उत्तराधिकारी मान लिया गया।

4- गुरु तेगबहादुर और उनका संघर्ष

तेगबहादुर आरम्भ से ही मुगलों की सत्ता के निकट रहे। उन्होंने शाही सेवा में हिस्सा लेकर अनेक युद्ध लड़ा। मुगल सेना के साथ असम के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई में भाग लिया। बाद में अपने शिष्यों और सैनिको के खर्च के लिये दबावपूर्वक धन एकत्र करना आरम्भ कर दिया। जब वे पंजाब आये तो गुरु ने अपने को सच्चा बादशाह कहना आरम्भ कर दिया। उनका स्थान ईश्वर से भी ऊपर बताया जाने लगा। जिस तरह की संप्रभुता और भव्यता का प्रदर्शन होने लगा उससे गुरु के विरोधी सक्रिय हो गए। उन्होंने औरंगज़ेब के पास शिकायत भेजी। औरंगजेब ने इसे अपने विरुद्ध षणयंत्र माना और गुरु की सत्ता को समाप्त करने के गिरफ्तार करा दिया] उसके सामने अपनी आध्यात्मिक शक्ति को साबित करने या मृत्यु दंड की चुनौती । गुरु ने  अपने गले  के हार को  मृत्यु पर विजय करने वाला बताया और इसके गले मे रहने तक तलवार की मार को बेअसर बताया। इसकी सत्यता की जांच के लिए जब तलवार चलाई गई तो गुरु की हत्या हो गई। गले के हार पर लिखा था- सर दाद] सिर्रे न दाद] मतलब सिर कटा दिया लेकिन राज नहीं खोला। इस घटना से मुग़ल -सिक्ख संबंध बिगड़ने लगे।

सिक्ख समुदाय तेगबहादुर की हत्या को अलग रूप में देखता है] और दूसरे लोग अलग रूप में। सिक्खों का मानना था कि मुग़ल  शासक ने मास कंवर्जन का अभियान चला रखा था।  जब कश्मीर के हिन्दू इसके लिए बाध्य किये जा रहे थे तो उन्होंने तेगबहादुर से मदद मांगी। उस समय गुरु ने कहा कि वे जाकर सम्राट से कहें कि पहले  गुरु का धर्म परिवर्तन कराएं फिर वे धर्म परिवर्तन कर लेंगे। यह सूचना मिलने पर औरंगजेब ने तेगबहादुर को अपने दरबार मे बुलाया और दो विकल्प दिए। या तो इस्लाम या फिर मृत्यु। गुरु ने दूसरा विकल्प चुना और उनकी हत्या  कर दी गयी। दूसरा वर्जन यह है कि गुरु ने अपने समर्थक हिन्दू और सिक्ख जनता से कर उसूलना आरम्भ कर दिया था। उनके एजेंट जनता को परेशान करते थे। इसलिये अनेक सिक्ख गुरु के विरोध में हो गए थे। एक एजेंट स्थानीय मुस्लिम आदम हाफ़िज़ भी था जिससे लोग ज्यादा पीड़ित थे। रामराय इस समय भी सक्रिय थे उन्होंने सम्राट को उकसाया। अन्ततः सम्राट ने  गुरु के खिलाफ युद्ध  का निर्णय लिया और उन्हें  पराजित ही नहीं किया बल्कि उनकी हत्या करा दी। दूसरे वर्जन में यह हत्या धार्मिक नहीं थी बल्कि इसका कारण केंद्रीय सत्ता को चुनौती और इसका अंत करना था। गुरु की सार्वभौम सत्ता की घोषणा] अर्जुनदेव और हरराय की विद्रोही राजकुमारों के प्रति समर्थन की नीति सच्चा बादशाह की उपाधि] गद्दी के विवाद ]औरंगजेब की आक्रामक नीति] तेगबहादुर की  न्याय प्राप्ति  के प्रति अविश्वास की भावना आदि  चींजे हत्या का कारण बनीं। धीरुमल ] जो गुरु का भतीजा था] हमेशा उनके विरुद्ध मुग़ल दरबार में सूचनाएं भेजता रहता था। कंनिघम कृत सिखों के इतिहास (संपादक कमलाकार तिवारी] अनुवाद रमेश तिवारी] वाराणसी 1965] के अनुसार तेगबहादुर की मृत्यु कैसे हुई] इस मामले में ठोस प्रमाण नही हैं। उन्होंने वही गले मे ताबीज वाली बात लिखी है जिसे पहनकर गुरु अपने को अबध्य कहते थे। सबसे पहले मैकलिफ  नामक अंग्रेज़ ने लिखा था कि तेगबहादुर की हत्या औरंगज़ेब के आदेश से हुई थी। 1893 में भाई मुनि सिंह ने भगत रत्नावली नामक पुस्तक लिखी थी इस पुस्तक के अनुसार गुरु की हत्या किसी सिक्ख ने उनकी अपनी आज्ञा के अनुसार की थी।

1912 में भगत रत्नावली पुनः छपी तो इस तथ्य को निकाल दिया गया। 1879और 1883 में प्रकाशित ज्ञानीसिंह रचित पुस्तक पंथ प्रकाश में भी इसकी चर्चा नही है कि औरंगज़ेब ने गुरु तेगबहादुर का कत्ल करवाया। लेकिन इसी पुस्तक के तीसरे संस्करण में जो मैकलिफ की पुस्तक के बाद में आया] उसमे दिल्ली के चाँदनी चौक में हत्या किए जाने की घटना का समावेश कर दिया गया। “शिखा दे राज”नामक पुस्तक में भी औरंगजेब द्वारा मृत्युदंड देने की चर्चा नही है। इन सभी पुस्तकों से यह संदेह होना स्वाभाविक है कि  मुग़ल और सिखों के बीच संघर्ष का कारण केवल धार्मिक नहीं था। अंग्रेज़ लेखकों ने इस घटना से भी लाभ उठाने की कोशिश की और उसे सम्प्रदायिक रूप दिया। यहां यह भी स्पष्ट नहीं है कि सिक्ख और हिन्दू एक समूह के रूप में एकजुट थे। ऐतिहासिक तथ्य तो केंद्रीय सत्ता बनाम क्षेत्रीय सत्ता की ही कहानी बयां कर रहे हैं।

गुरु गोविंदसिंह और मुगल

तेगबहादुर की मृत्यु के बाद 1676 में गोविंद सिंह गद्दी पर विराजमान हुए। क्रमानुसार वे दसवें गुरु थे। उस समय तक यह भावना दृढ हो चली थी कि मुग़ल शासक सिक्खों की सत्ता को अस्थिर करना और अन्ततः समाप्त करना चाहते हैं। वे पृथ्वीचंद और रामराय को भेदिया मानने लगे। ऐसे  माहौल में नए गुरु से ज्यादा उम्मीद थी। संकट यह था कि गोविंद सिंह अल्पायु थे। सिक्ख प्रमुखों ने कई वर्ष तक उन्हें छिपाए रखा। 20 साल तक गोविंद सिंह ने फ़ारसी और संस्कृत का अध्ययन और सैनिक कौशल का अर्जन किया। बड़े होकर गुरु ने सिक्खों के सैनिक जाति के रूप में और संगठित कर दिया। जिस आचार संहिता का निर्माण उनके द्वारा किया गया वह कमोवेश आज भी लागू है। इसकी कुछ विशेषताएं निम्न हैं-

  • हर सिक्ख को 5 क] केश] कच्छ] कंघा] कड़ा और कृपाण को  धारण करना होगा।
  • सभी सिख जाति बंधन से मुक्त होकर सहभोज और वैवाहिक संबंध का नियम अपनाएंगे।
  • सभी आंख मूंदकर गुरु के निर्देशों का पालन करेंगे भले ही उन्हें हिन्दू -मुस्लिम परम्परा और ग्रंथों का परित्याग करना पड़े।
  • सभी सिक्ख अपने नाम के साथ निडरता के प्रतीक] सिंह] शब्द का प्रयोग करेंगे।
  • सभी सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे और मुस्लिमों से कोई संबंध नहीं रखेंगे।
  • पृथ्वीचंद और रामराय जैसे  शोषक और अवांछित लोंगों का सामाजिक वहिष्कार करेंगे।
  • सभी सिक्ख झटका मीट( एक बार में हलाल का प्रयोग करेंगे] लेकिन धूम्रपान नहीं करेंगे।

सामान्य रूप से किसी धार्मिक संगठन के सैनिक रूपांतरण को उचित नहीं माना जाता है। अनेक इतिहासकार इस विचलन को रेखांकित करते हैं और कहते है कि गोविंद सिंह ने आध्यात्मिक  लक्ष्य के स्थान पर राजनीतिक लक्ष्य तय कर लिया था। यह बात पूर्ण सत्य नही कही जा सकती क्योंकि 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में  भारत मे धार्मिक सहिष्णुता का ताना बाना शिथिल हो गया था। उत्तर से दक्षिण तक फैले अनेकों धार्मिक संप्रदायों ने राजनीतिक सत्ता में ही अपनी समस्या का समाधान खोजना आरम्भ कर दिया था। सिक्ख और मराठा दोनों ही सैनिक अनुशासन की बात शायद इसीलिए कर रहे थे। गोविंद सिंह ने अपना मुख्यालय आनंदपुर में बना लिया था। उन्होंने कश्मीर और पंजाब के लोंगों को मुग़ल सम्राट के विरुद्ध  भड़काना आरम्भ किया। जिन्होनें इस कार्य को अनुचित माना ]गुरु ने उनके खिलाफ भी सैनिक कार्यवाही की।  इस क्रम में अनेक हिन्दू राजा भी उनके आक्रमण के शिकार हुए। और अनेक बार हिन्दू राज्यों की सेना मुग़लों के पक्ष में खड़ी दिखी। गोविंद सिंह को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भागना पड़ा। उनकी मां और दो पुत्र -फतेह सिंह और जोरावर सिंह पकड़ लिए गए और मारे गए। उनकी दादी ने आत्म हत्या कर ली। एक मुस्लिम इतिहासकार फ़ारूक़ी ने लिखा है कि इस परिश्थिति से घबराकर गोविंद सिंह ने औरंगजेब से क्षमा मांगते हुए और अधिक न पीड़ित करते हुए दक्षिण भारत जाने की अनुमति देने संबंधी पत्र लिखा जिसे औरंगजेब ने स्वीकार भी कर लिया था।

औरंगजेब की क्रूरता और सिक्ख विरोधी होने को बताने के लिए भाई बीर सिंह पटियाली ने 1827 ने एक पुस्तक संघ सागर लिखी। इस पुस्तक में बिना किसी ठोस प्रमाण के कहा गया कि गोविंद सिंह के दोनों बेटों को  दीवार में चुनवा दिया गया था। आगे चलकर कंनिघम आदि ने इसी  बात को सच मान लिया। 1887 से गोविंद सिंह के दोनों बेटों के नाम पर मेला लगना आरम्भ हो गया। इसमे संदेह नहीं कि गोविन्द सिंह की महत्वांकाक्षा और केंद्र विरोधी नीति से औरंगजेब चौकन्ना हो गया था। उसने अपने धर्म के विद्रोहियों के साथ सिक्खों और अन्य धर्मों के विरोधियों को दंडित किया। फिर भी इस बात के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं कि गुरु के दोनों पुत्रों की हत्या औरंगजेब द्वारा ही की गई थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरु ने उत्तराधिकार युद्ध मे मुअज़्ज़म का साथ दिया। जब वह बहादुर शाह की उपाधि लेकर शासक बन गया तो उसने गुरु को मनसबदार बनाया। यह ज्ञात नही है कि उनकी मनसब श्रेणी क्या थी लेकिन बहादुर शाह की दी हुई ज़ुल्फ़िकार(तलवार)आज भी आनंदपुर साहिब में मौजूद है। कंनिघम लिखते हैं कि गुरु गोविंद सिंह की हत्या 1708 में नांदेड में उस  पठान ने की थी जिसके बेटों को गुरु ने मार दिया था। यदुनाथ सरकार  ने लिखा है कि धार्मिक आधार पर विरोध की बात इतिहास सम्मत नहीं है। उदाहरण के लिए गंगाराम एक ब्राह्मण था जिसके यहाँ गुरु गोविंद सिंह की माता और बच्चे शरण ली थी। इसी गंगाराम ने सरहिंद के हाकिम के हाथों उनकी माता और बच्चों को सौंप दिया। जान की बाजी लगाकर गोविंद सिंह की जान बचाने वाले नबी खान और गनी खान  दो मुस्लिम ही थे] जिन्हें गुरु ने बेटों से भी प्यारे कहा था।

 फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि मुग़ल और सिक्ख धार्मिक युद्ध लड़ रहे थे।

6-गोविंद सिंह के बाद

गोविंद सिंह की मृत्यु के समय उनकी  कोई जीवित संतान नहीं थी] इसलिये दत्तक पुत्र अजीत सिंह को गुरु की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनाया गया। अपने जीवनकाल में ही उन्होंने गुरु के पद को समाप्त कर दिया था। वास्तव में एक निरंकुश शासक की भांति सिक्खों की समस्त निर्णय शक्ति को अपने हाथ में ले लिया था। उनका कहना था कि पांच सिक्ख मिलकर जो निर्णय करेंगे उसे गुरु का निर्णय माना जायेगा। यह स्थायी सैनिक भ्रातृत्व पर आधारित एक नई व्यवस्था थी जिसे निर्देशक और नियंत्रक की भूमिका निभानी थी। इसे सिक्खों की एकता बनाये रखने का महत्वपूर्ण दायित्व भी निभाना था। पंच प्यारे की यह व्यवस्था कामयाब नहीं हुई। सिक्ख सरदारों ने सामन्तों की तरह  जागीर और सेना पर अधिक ध्यान दिया। परिणामस्वरूप सिक्खों की संख्या तो बढ़ी लेकिन आपसी एकता नष्ट हो गयी। एक केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में भी स्वतंत्र सिक्ख राज्य की सम्भावना बनी रही। ऐसे समय मे ही बंदा बहादुर का प्रभाव बढ़ने लगा। बंदा गोविन्द सिंह के शिष्य थे उन्होंनें यह प्रचारित किया कि गुरु की वास्तविक सत्ता अब भले ही समाप्त हो गयी है लेकिन उसके रूप में उनकी सत्ता जिंदा है] उपयुक्त समय पर यह सिक्खों की स्वतंत्रता के लिए कार्य कर रही है। बंदा ने स्वयं को ही गोविन्द सिंह कहा (उसमे उनकी आत्मा का प्रवेश )। यह अफवाह जंगल की आग की तरह फैली। सिक्ख अस्र- शस्त्र एकत्र करने लगे। देखते -देखते बंदा के अनुयायी कई गुना बढ़ गए। सैनिक अभियान सोनीपत से  आरम्भ हुआ औऱ बढ़ता हुआ सरहिंद के फ़ौजदार वज़ीर खान तक पहुंच गया। क्योंकि वज़ीर खान गोविन्द सिंह के पुत्रों की हत्या के लिये जिम्मेदार थे] इसलिए न केवल उनकी हत्या हुई वरन उसकी लाश को पेड़ से लटका कर दूसरे लोंगो के लिये नज़ीर बनाई गई। सभी मुस्लिम बंदियों के साथ कठोर वर्ताव किया गया। उस जगह की सभी मस्जिदों को नष्ट कर दिया गया] मक़बरे खाली कर दिये गए ]कुल मिलाकर इस्लाम का नामोनिशान मिटा  दिया गया। 2 करोड़ से अधिक मूल्य की  युद्ध -लूट की सामग्री एकत्र हुई। इस विजय के बाद सिक्खों ने समाना] सुनाम] कैथल] कुहराम] अम्बाला] थानेश्वर] मच्छीवारा] लुधियाना और अन्य महत्वपूर्ण ठिकानों पर अधिकार कर लिया । केवल सुल्तानपुर ]जालंधर और सहारनपुर में उन्हें सफलता नहीं मिली। इसी बीच बहादुर शाह] कामबक्स को हराकर उत्तर भारत आ गया। उसने सिक्खों के विरुद्ध विशाल सेना भेजी साथ ही मुग़ल शाही सेवा में शामिल में सिक्खों को संदेश दिया कि वे या तो अपनी दाढ़ी कटाकर अपनी निष्ठा का प्रमाण दें या शाही सेवा से त्याग पत्र दें।1715 तक मुग़ल सम्राट ने पंजाब पर दबाव बनाए रखा और महत्त्वपूर्ण केन्दों  सरहिंद लोहगढ़ और  सढौरा पर नियंत्रण कर लिया । जहाँदार शाह और फर्रुखसियर ने भी बन्दा को प्रताड़ित किया। उसके तीन वर्ष के बेटे को उसकी गोंद में बैठाकर उसकी  हत्या कर दी गयी। इतिहासकार ख़फ़ी खान ने अपने विवरण में लिखा है कि  सिक्खों की वीरता  अद्भुत थी उनकी गुरू के प्रति निष्ठा अदम्य थी। बंदी 700 सैनिकों के मुख पर कोई अवसाद भाव नहीं था] उनकी इसी विशेषता के कारण  बन्दा बहादुर कई वर्षो तक संगठित विशाल मुगल सेना का सामना करता रहा।

लगभग 5 वर्ष तक चले युद्ध में सिक्ख सभी लड़ाई हार गए लेकिन उनकी शूरवीरता के प्रति सम्मान कई गुना बढ़ गया। उनके सभी सैनिक गढ़ समाप्त हो गए] पर उनका यह विश्वास दृढ़ हो गया कि अपनी वीरता और शहादत के बल पर वे भविष्य में अवश्य सफल होंगे।

7- खालसा की स्थापना

बन्दा बहादुर के बाद सिक्ख कुछ वर्ष तक शांत रहे] लेकिन उनमें  बदले की भावना बनी रही। मुग़ल प्रांतीय गवर्नरों ने सख्ती बनाये रखी। इनमें अब्दुल समद और ज़कारिया खान  के कार्य उल्लेखनीय हैं। 1733 के बाद स्थिति बदलने लगी। ज़करिया खान ने सिक्खों को मिलने के लिए कपूर सिंह को नवाब की उपाधि और एक जागीर प्रदान कर दी। सिक्खों को इससे कहाँ संतोष मिलने वाला था। उनके मन मे दबी विद्रोही भावना उचित समय की तलाश में लगी रही। इस बीच कपूर सिंह ने सिक्खों को एकजुट रखा। सैनिकों को बुड्ढा दल और तरूण दल नाम दे दिया। पहले दल में श्याम सिंह ] गुरू बख्श सिंह] गुरु दयाल सिंह] जस्सा सिंह  आदि थे तो  दूसरे दल में  दीप सिंह] कर्मा सिंह] कान्हा सिंह मदन सिंह आदि शामिल थे। 1739 के बाद अफ़ग़ान आक्रमण आरम्भ हो गए। इस समय का सदुपयोग  समुदाय के समर्थकों की संख्या और धन संपदा  में बृद्धि के लिए किया गया। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि गवर्नर के दमन कार्य बंद हो गए। सिक्खों के विनाश की कार्यवाही चलती रही। विदेशी आक्रमण से पंजाब की कानून व्यवस्था विगड़ती गई जिसका लाभ सिक्ख प्रमुखों ने उठाया । जस्सा सिंह ने  कपूर सिंह के सैनिक संगठन को मजबूत बना दिया। 1761 में स्थापित खालसा ने गुरु का स्थान ले लिया।  खालसा की राजनीतिक महत्वांकाक्षा काफी समय बाद रणजीत सिंह ने पूर्ण की।

इस विवरण से स्पष्ट है कि सिक्ख अलग राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। उनका मुगलों के साथ सम्बन्ध राजनीतिक प्रतिद्वंदी का रहा। धार्मिक पहचान एक सहायक तत्त्व रही। एक धार्मिक समूह के रूप में वे हिन्दू जनता से भी अलग रहे। उनकी मान्यताएं  आज भी अलग जीवन दर्शन पर आधारित हैं। हकीकत राय का उदाहरण भी यह बताने के लिए पर्याप्त नहीं है कि सिक्ख और हिन्दू एक थे। हकीकत राय एक स्वाभिमानी बालक थे वे फारसी पढ़ने के लिए मदरसे में शामिल हो गए थे वहां उन्होंने कुरान की अतार्किक बातों का विरोध किया और नौ वर्ष की उम्र में शहीद कर दिए गए। सिक्ख और हिन्दू मिलन की थ्योरी 19वीं सदी में आर्य समाज के प्रभाव में विकसित हुई। आजादी के बाद अनेकता में एकता के विचार के साथ अनेक परमपरायें एक दूसरे का अंग बन गई । गाय की पूजा सिक्ख धर्म मे शामिल हो गयी। लेकिन यह अधिक दिन चल पाता कि प्रधानमंत्री गांधी की उनके सिक्ख सुरक्षा कर्मियों ने हत्या कर दी। हम  सभी पंजाब के अलगाववादी आंदोलन की उत्पत्ति ] विस्तार और गंभीरता से वाकिफ़ हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उठे सिक्ख -विरोधी दंगों ने अलग पहचान को भावनात्मक आधार पर बनाये रखा । सिक्ख  एक अलग कौम के रूप में आज भी भारतीय समाज के अंग बने हुए हैं। उनकी धार्मिक और राजनीतिक विकास- यात्रा की कहानी दिलचस्प है] इतिहास यही बताता है।

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