आयुर्वेद और आयुर्वेदिक आचार(Ayurveda And Ayurvedic Ethics)

वेदों में अनेक स्थलों में विज्ञान पर प्रकाश डाला गया है और जहाँ तहाँ अनेक प्रकार के वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध होते हैं। प्राचीन वैज्ञानिक विवेचकों में आचार्य यास्क अन्तिम थे। उनके बाद समय के प्रभाव से विज्ञान की ओर से दृष्टि हटकर यज्ञों को (वैधानिक) महत्व दिया जाने लगा और वैज्ञानिक तथ्य अर्थवाद की कोटि में विक्षिप्त होकर विस्मृति के गर्त में विलीन हो गयी। यही कारण है कि यास्क के परवर्ती वेद भाष्यकारों ने यज्ञपरक ही वेदों की व्याख्या की है। विज्ञान पक्ष सर्वथा उपेक्षित हो गया। वर्तमान युग में पश्चिम के विद्वानों ने जो आविष्कार किये उनके द्वारा भारतीय वेदज्ञों की दृष्टि भी वैदिक विज्ञानों की ओर आकृष्ट हुई और इस प्रकार वेदों की विज्ञान चर्चा का पुनरूद्धार प्रारम्भ प्रारम्भ हुआ।
आयुर्वेदः
भारतीय विज्ञानों में आयुर्वेद का अप्रतिम महत्व रहा है। जिस प्रकार ज्योतिष में अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, भूगोल आदि का अन्तर्भाव हुआ था, उसी प्रकार आयुर्वेद में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, खनिज-विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, प्राणि- विज्ञान मनोंविज्ञान आदि का समावेश हुआ। सिन्धु-सभ्यता काल से श्रृंगचूर्ण, शिलाचूर्ण और गंड़ा-ताबीज़ आदि के प्रयोग द्वारा रोगों को शान्त करने की विधि सदा प्रचलित रही।
वैदिक साहित्य के उल्लेखों द्वारा तत्कालीन आयुर्वेद-विज्ञान सम्बन्धी प्रगति का परिचय प्राप्त होता है। सभी महर्षि चिर जीवन की अभिलाषा करते थे। वैदिक युग में आयुर्वेद की अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। अश्विनीकुमार, वरूण, रूद्र आदि अनेक देवता वैद्य थे। अश्विनीकुमारों की नेत्र चिकित्सा और टूटी हड्डी को जोड़ना प्रसिद्ध कार्य थे। वरूण का एक विशाल औषधालय था, जिसमें सहस्रों वैद्य कार्य करते थे। ऋग्वैदिक काल में जल चिकित्सा आक्र सूर्यरश्मि- चिकित्सा का प्रचार था। उस समय अनेक प्रकार की औषधियों का ज्ञान था। यथा-
याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुंचन्त्वहंसः ।।
अथर्ववेदः
अथर्ववेद में अनेक रोगों के लक्षण, निदान और चिकित्सा का सूक्ष्म विवेचन मिलता है। विभिन्न रोगों के निवारण के लिए विविध द्रव्यों का उपयोग किया जाता था। जैसे-कुष्ठ के द्वारा तक्मज्वर नष्ट किया जाता था। इसी तरह नितत्नी के प्रयोग से केश बढ़ाये जाते थे। रजनी के प्रयोग से कुष्ठ का निदान होता था। सूर्यरश्मियों की कृमिनाशक शक्ति का ज्ञान उस समय था। वैद्य जानते थे कि शरीर के अनेक अंग और जंगली औषधियाँ कृमियों के आश्रय- स्थान हैं और कृमि अनेक प्रकार के होते हैं। वे बिषैले भी होते हैं। मच्छरों का नाश करने के लिए किसी वनस्पति का प्रयोग होता था। परवर्ती युग की प्रथम प्रसिद्ध संहिता चरक की है। सर विलियम हण्टर ने लिखा है कि ‘‘भारतीय आयुर्वेद में विज्ञान का सर्वांगीण अन्तर्भाव हुआ है। इसमें शरीर के अंग-प्रत्यंग का सूक्ष्म विवेचन मिलता है। चिकित्सा के औषधि- विज्ञान की परिधि में आयुर्वेद के अनुसार खनिज, वनस्पति,पशु आदि सभी उपयोगी हैं। औषधियों का निर्माण, उनका वर्गीकरण और प्रयोग अतिशय वैज्ञानिक पद्धति से निष्पन्न किया जाता है। स्वच्छता, पथ्यापथ्य-नियम और भोजन के विषय में पूरा ध्यान दिया गया है।
चरक संहिताः
सदाचार के द्वारा निरोग रहने की योजना चरक ने प्रस्तुत की है। चरक के अनुसार सदाचारी वह व्यक्ति है, जो सभी प्राणियों का बन्धु है, क्रुद्ध मनुष्यों का अनुनय करता है, डरे हुए को आश्वासन देता है, दीनों का सहारा है, अपनी प्रतिज्ञा को कार्यरूप में परिणत करता है, दूसरों की बात को सह लेता है, स्वयं दूसरों के दोषों को नहीं देखता, किसी के रहस्य को प्रकाशित नहीं करता और पतित, दुष्ट,नीच तथा पापियों का साथ छोड़ देता है।
चरक ने आयुर्वेद की दृष्टि से आचार के कुछ अन्य ऊॅचे आदर्शों की प्रतिष्ठा की है-‘‘सदा सहानुभूतिमय रहना चाहिए। मनुष्य को समय और नियम को नहीं तोड़ना चाहिए। अधिक नहीं बोलना चाहिए। धैर्य नहीं खोना चाहिए। अकेले ही सुखी नहीं रहना चाहिए। सबके सुख में सुख मानना चाहिए। सदा विचारमग्न नहीं रहना चाहिए। निरलस होकर कार्य परायण बनना चाहिए। सफलता में हर्ष और विफलता में शोक नहीं करना चाहिए और ब्रह्मचर्य, ज्ञान, दान, मैत्री, करूणा, हर्ष, उपेक्षा ण्वं शान्ति को अपनाना चाहिए।’ यथा-
मनसः इन्द्रियाणां च निग्रहे बुद्धिसापेक्ष्यम्
तत्रेन्द्रियाणां समनसकानामनुपतापाय प्रकृतिभावे प्रयतिव्यमेभिर्हेतुभिः, तद्यथा- सात्म्येन्द्रियार्थसंयोगेन, देशकालात्मगुणविपरीतोपसेनेन चेति। तस्मादात्महितं चिकीर्षता सर्वेण सर्वं सर्वदा स्मुतिमास्थाय सद्वृत्तमनुष्टेयम्। तद्धयनुतिष्ठन् युगपत्सम्पादयत्यर्थ-द्वयमारोग्यमिन्द्रियविजयं चेति।
उपर्युक्त आचार- विधान चरक के शब्दों में स्वस्थ-वृत्त है। ‘‘स्वस्थ-वृत्त के परिपालन मात्र से मनुष्य सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर सकता है।। यथा-
स्वस्थवृत्तं यथोद्दिष्टं यः सम्यगनुतिष्ठति।
स समाः शतमव्याधिरायुषा न वियुज्यते।।
चरक के अनुसार आरोग्य के अतिरिक्त यश, धर्म और अर्थ की प्राप्ति भी स्वस्थ-वृत्त से सम्भव होती है। इसका पालन करने वाला सबका भाई है। मरने के बाद भी उसकी उत्तम गति होती है।
चरक के अनुसार वायु आदि की विगुणता का कारण अधर्म अथवा पहले के किए हुए असत्कर्म हैं। इनकी उत्पत्ति जान-बूझ कर किए हुए अपराधों से होती है। जब छोटे और बड़े शासक धर्मपूर्वक प्रजा-पालन नहीं करते तो अधर्म को अन्तर्हित कर देता है। अधर्म-परायण लोगों को देवता छोड़ देते हैं। ऐसी परिस्थिति में ऋतु बिगड़ जाती है। जल समय पर नहीं बरसता है। वायु ठीक से नहीं बहती है। जल सूख जाता है। पेड़-पौधे अपने स्वभाव को छोड़कर सूख जाते हैं। इस प्रकार राष्ट्र का विध्वंस हो जाता है।’चरक ने राष्ट्र के संबर्द्धन के लिए देश, नगर, निगम और जनपद के शासकों के सच्चरित्र और धर्मनिष्ठ होने की आवश्यकता बतलाई है।
सुश्रुत संहिताः
सुश्रुत ने वैद्यों का कत्र्तव्य-पथ निर्धारित करते हुए आदेश दिया है-‘रोगियों को अपने बन्धु-बान्धव जैसा मानकर चिकित्सा करनी चाहिए, चाहे वे सन्यासी, मित्र, पड़ोसी, विधवा, अनाथ, दीन-हीन या पथिक क्यों न हों। मृगया से जीविका चलाने वाले ब्याघ्र, जाति से बहिष्कृत अथवा पापियों की चिकित्सा नहीं करनी चाहिए।’ सुश्रुत की दृष्टि में केवल निःस्वार्थ भावना से प्रेरित होकर ही कोई मनुष्य सफल चिकित्सक हो सकता है। उसने लिखा है कि जो लोग धन के लिए चिकित्सा करते हैं, वे स्वर्ण-राशि को छोड़कर धूलि के लिए श्रम कर रहे हैं। वैद्यों को सम्बोधित करते हुए सुश्रुत ने लिखा है -‘‘तुम्हें सभी प्राणियों के कल्याण की भावना से प्रयत्नशील होना है। प्रतिदिन खड़े होकर या बैठकर सौहार्दपूर्वक रोगी का निदान करना चाहिए। अपनी जीविका के लिए रोगी से अधिक धन नहीं मांगना चाहिए। दूसरों के धन का लोभ नहीं करना चाहिए। तुम्हारे वस्त्रों से शान्ति और आचरण से मानवता टपकनी चाहिए। तुम्हारी वाणी में कोमलता, सत्य और विश्वसनीयता होनी चाहिए। कुशल वैद्य का लक्षण बताते हुए सुश्रुत ने कहा है- वैद्य को सच्चा होना चाहिए। उसके हृदय में उत्साह होना चाहिए तथा उसे सत्य को सबसे बढ़कर मानना चाहिए।
चरक और सुश्रुत दोनों ने उदात्त चरित्र के विद्यार्थी को आयुर्वेद का ज्ञान कराने की अनुमति दी है। आचार्य भी ज्ञान और चरित्र की दृष्टि से आदर्श होना चाहिए। शिष्य रूप में स्वीकार करने के पहले आचार्य विद्यार्थी के बारे में परीक्षा करके जान लेता था कि वह सुन्दर, धैर्यशाली, निरभिमान, उदार- सत्व, शान्त, अनुद्धत वेश वाला, व्यसन और क्रोध से रहित, शीलाचार सम्पन्न, अनुरागी, दक्ष, निर्लोभ, निरलस, सभी प्राणियों का हितैषी आदि है। आचार्य की शिक्षा का आरम्भ इस सनातन उपदेश से होता था- तुम्हें कार्य में सफलता की कामना करनी है। यशस्वी बनना है। मर कर स्वर्ग जाना है। तुम्हें सभी प्राणियों के कुशल की कामना करनी चाहिए। प्रतिदिन उठते-बैठते पूरा मन लगाकर तुम्हें रोगियों का रोग दूर करने के लिए यत्न करना चाहिए। अपने प्राण के लिए भी रोगियों से द्रोह नहीं करना चाहिए। दूसरों के धन की कामना न करना, मद्य न पीना तथा पापियों से सम्बन्ध न रखना। तुम्हारा कत्र्तव्य है कि तुम सदैव सत्य और प्रिय बातें कहो, राजद्रोही, दुराचारी और सज्जनों के शत्रु की चिकित्सा न करो। रोगी के रोग के अतिरिक्त अन्य बातों को न सोचो। रोगी के घर की बातें अन्यत्र न कहो। अपने ज्ञान की प्रशंसा न करो।गुरू जनों के प्रति शालीन व्यवहार करो। शिष्य अन्त में कहता था-ऐसा ही करूॅगा ।
अतः हम कह सकते हैं कि सदाचार से आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, यश और पुण्य- लोकों की प्राप्ति होती है। दान देने वाले, सबको समान मानने वाले और क्षमाशील व्यक्ति निरोग रहते हैं। अपकार करने वाले का भी उपकार करना चाहिए। इस प्रकार वैद्य का मुख्य लक्षण उसे चरित्रवान और दयालु होना चाहिए।